मेरे गाँव की गलियां कहती हैं कभी हमसे भी मिलने आया करो
मेरे गाँव की गलियां कहती हैं
कभी हमसे भी मिलने आया करो
इस मिट्टी में तुमने जन्म लिया
कभी इस मिट्टी से भी मिल के जाया करो
ये खेत, चौपाल, पनघट के रस्ते
बैल, जोहड़, लकड़ी की तख्ती
और खेल तुम्हारे सब बचपन के
कब से रस्ता देख रहे हैं
कभी याद इन्हे कर मुस्काया करो
कभी इनसे भी मिलने आया करो
जोहड़ के किनारे का पीपल कब से इस आस में बैठा है
तुम फ़िर कब उसके पतों की फिरकी को बना के दौडोगे
बरगद भी बाट में बुढा हुआ उसकी दाढी भी गहरी हुई
उसके पतों की खड-खड में जैसे विरह वेदना ठहरी हुई
ये सब तो यादों को संजोयें हैं
तेरी याद में कितना रोये हैं
अपने बचपन के मित्रों के लिए तनिक
दो अश्रु तुम भी बहाया करो
इसी मिटटी से हो गढे गए, रहते थे इसी में सने हुए
खेला करते थे देर दुपहर, गिर गिर कर इसी में खड़े हुए
जाने अब क्यों हमसे रूठे हो
दूर जो इतना जा बैठे हो
क्या आने की भी चाह नही
क्या उठती कभी दिल से आह नही
आ जाओ की आँगन सुना है,
नही अब लगती कोई किलकारी है
तुम बिन इस घर में
सन्नाटे का दांव भारी है
तुम तो इन सब के प्यारे थे, क्या तुमको न याद सताती है
या समय की लम्बी अवधी ने यादों को नींद दिला दी है
जिस मिटटी के चूल्हे पर पूरे कुनबे की रोटी सिकती थी
अब राख के नीचे कोने में इक याद सिलगती रहती है
इक इक कर सब आँगन से उठ चले गए
अबके बरस इन जाडों में बूढी दादी की बारी लगती है
क्या अब मिलने के लिए दो घड़ी भी भारी लगती हैं
जब छत की मुंडेरों से तुम नीचे झाँका करते थे
दादी पर फ़िर चुपके से हौले से कंकर मारा करते थे
डंडा लेकर दादी फ़िर पीछे दौड़ा करती थी
तुम्हारी इस शैतानी में मासूमी झलका करती थी
मुंडेरों की इंटें अब गल कर गिरने को हैं
नीर लिए अंखियों में जम के शिकायत भरने को हैं
क्या इनकी मायूसी भरी शिकायक की भी तुम्हे कोई परवाह नही
फौजी चाचा की चिट्ठी को चाव से पढ़ के सुनाते थे
फ़िर फ़ौरन जवाब लिखने को दौड़ के लिफाफा लाते थे
ख़तम हुए वो दौर भी अब तो
डाकिये की भी आमद ख़तम हुई
तेरी चिट्ठी की आहट सुनने को
दरवाजे की कुण्डी के कान रह रह कर जागा करते हैं
मेरे गाँव की गलियां कहती हैं
कभी हमसे भी मिलने आया करो ....
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