Sunday 28 September 2014

कृतिका रावत -जिंदगी बचाने वाली खातून -मिडिल ईस्ट की अकेली ऐसी शख्सियत हैं, -जिनके नाम पर केक का नाम रखा गया है।

अपनी काबिलियत के बूते अपनी पसंद के क्षेत्र में मुकाम बनाना अलग बात है, लेकिन बात तब है, जब इस मुकाम की बदौलत दूसरों के जीवन में उजाला फैले।

मूल रूप से उत्तराखंड पौड़ी की रहने वाली और जीवन के कई साल कोटद्वार में बिताने वाली कृतिका रावत कई के जीवन में ऐसा ही उजाला लेकर आईं हैं।वर्तमान में दुबई की सेलिब्रिटी आरजे और के कंपनी की एमडी कृतिका की शख्सियत के बारे में जानने के लिए दुबई का राशिद अस्पताल एक छोटी मिसाल है

 यहां उन्हें कई की जिंदगी बचाने वाली खातून की पहचान हासिल है। इस अस्पताल में लाई गई 6 दिन की दृष्टिबाधित बच्ची अफसाना की सर्जरी हो या ऑन ड्यूटी एक्सीडेंट के शिकार हुए डिलीवरी ब्वाय हामिद के लिए कृत्रिम टांग का संकट

ब्रेन ट्यूमर से लड़ रहा 8 साल के सौरभ की सर्जरी का मसला हो या कैंसर से लड़ रहे रूद्राक्ष का ट्रीटमेंट कृतिका ने अपने बूते हर किसी की बढ़-चढ़कर मदद की।

बात मजलूमों की आई तो उसने अजमान में बच्चों के स्कूल के लिए पूरी लाइब्रेरी तैयार कर दी। अपने रेडियो शो के जरिए पावर टू नॉलेज अभियान चलाकर अपने सुनने वालों को भी उसने इन गतिविधियों से सीधे जोड़ा।

कृतिका के नौकरीपेशा पिता तकरीबन ढाई दशक पहले दुबई चले गए थे। महज 30 साल की उम्र में पति गौरव टंडन के संग परिवार जमाने के साथ ही रेडियो और टेलीविजन प्रोडक्शन के निर्माण से जुड़ी के कंपनी की एमडी हैसियत के साथ ही वह रेडियो बिजनेस में 105.4 रेडियो स्पाइस के प्रबंध सलाहकार के तौर पर भी व्यस्त हैं।

उनकी कंपनी आइडिएशन, सेप्चुअलाइजेशन, रिसर्च, डाक्यूमेंटेशन, शूटिंग, सेट डेवलपमेंट, एनिमेशन, कंटेंट प्रोवाइडर, पोस्ट प्राडक्शन से जुड़े सभी काम देखती है।

चंद साल पहले काम के सिलसिले में दुबई पहुंची कृतिका इस वक्त एशियन कम्युनिटी की गैर-औपचारिक राजदूत कहलाती हैं। वह संभवत: मिडिल ईस्ट की अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जिनके नाम पर केक का नाम रखा गया है।

इस पर कृतिका के हस्ताक्षर हैं। वहां के बड़े प्रतिष्ठान बेकमार्ट प्लस का यह बेस्ट सेलिंग केक है।

बातें बनाने का शौक था, आज इससे कामयाब

सिंगिंग और बातें बनाने के शौक से रेडियो में इंट्री लेने वाली कृतिका ने अपनी मेहनत और लगन से बहुत जल्द वह हासिल किया, जो उसका सपना था।

निजी शोज के जरिए भी उसने खुद को वित्तीय रूप से मजबूत करने का कार्य किया। बाद में चंद साथियों के साथ मिलकर कंपनी खोली, जो इस वक्त कामयाबी की राह पर है।

Thursday 25 September 2014

किरण पुरोहित बडोला वह नाम है, जिसने यूएसए के दिल में पहाड़ को जिंदा किया हुआ है।


उत्तराखंड के श्रीनगर से ताल्लुक रखने वालीं किरण 2008 में स्थापित की अपनी कंपनी ‘माउंटेन हैंडीक्राफ्ट’ के जरिए पहाड़ के हैंडीक्राफ्ट को दुनिया के इस हिस्से की पसंद बनाने में जुटी हैं।

उन्होंने एक अमेरिकी लेखक डॉ. रिचर्ड पिगलगर के साथ मिलकर उत्तराखंड के एरि सिल्क पर ‘एरि सिल्क, कोकोन टू क्लाथ’ नाम से किताब भी लिखी है। दुनिया भर की प्रतिष्ठित बुनकर से जुड़ी मैगजींस में उनके उत्पादों, लेखों को जगह मिली है।

उत्पादों की डायरेक्ट और आन लाइन बिक्री से लाखों का टर्नओवर हासिल करने वाली किरण ने बायोलाजी और केमिस्ट्री जैसे विषयों के साथ ग्रेजुएशन किया। इस वक्त यूएसए के ओहायो में रह रहीं किरण ने 14 साल पहले यानी सन् 2000 में विवाह के पश्चात पति अनिल बडोला के साथ यूएसए का रुख किया। किरण ने अपना तो बड़ा व्यवसाय खड़ा किया ही है, लेकिन इस क्रम में अपने परिवार को भी नजरअंदाज नहीं किया।
किरण बताती हैं कि उत्तराखंड राज्य की आर्थिकी में मददगार बनने के साथ ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की भी मदद किरण हैंडीक्राफ्ट के इस व्यवसाय के माध्यम से कर पा रही है। वेबसाइट के जरिए अन्य देशों के भी ग्राहक किरण के हैंडीक्राफ्ट उत्पादों तक पहुंच बना रहे हैं।

किरण पुरोहित बडोला उत्तराखंड के इस विधा को प्रमोट करने के लिए कमर कर चुकी हैं। अपनी मित्र प्रियंका टोलिया के साथ मिलकर जल्द ही उत्तराखंड में टेक्सटाइल से जुड़ा एक प्रोजेक्ट भी लाने जा रही हैं। उत्पाद यहीं बनाए जाएंगे, उन्हें यूएसए में मार्केट किया जाएगा।

निफ्ट से की डिजाइनिंग की शुरुआत

किरण ने नेशनल इंस्टीट्यूट आफ फैशन डिजाइनिंग (निफ्ट) से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था। वह डिजाइनर बनना चाहती थीं। शुरुआत में स्कार्फ डिजाइन किए। जब हैंडीक्राफ्ट के प्रति बाहरी लोगों का क्रेज देखा तो राह बदल दी। माउंटेन हैंडीक्राफ्ट के नाम से उत्तराखंड केहैंडीक्राफ्ट उत्पादों को ग्राहकों तक पहुंचाती हैं।

महिलाओं के लिए संदेश

महिलाएं शक्तिपुंज हैं। उन्हें कुछ करने केलिए किसी सहारे की जरूरत नहीं। प्लानिंग के साथ दृढ़सोच को मिला कार्य शुरू कर दें। सफलता मिलेगी ही।

Wednesday 24 September 2014

नवरात्रि व्रत का महत्व- May the festival of Navratri bring joy and prosperity in your life-Happy Navratri




ईश्वर की उपासना के लिए किसी मुहूर्त विशेष की प्रतीक्षा नहीं की जाती. सारा समय भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं, हर घड़ी शुभ मुहूर्त है. हां, प्रकृति में कुछ विशिष्ट अवसर ऐसे आते हैं कि कालचक्र की उस प्रतिक्रिया से मनुष्य सहज ही लाभ उठा सकता है.

कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाता ऋषियों ने प्रकृति के अंतराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को दृष्टिगत रख कर ही ऋतुओं के इस मिलन काल की संधिवेला को नवरात्र की संज्ञा दी है. नवरात्र पर्वों का साधना विज्ञान में विशेष महत्व है. प्रात:कालीन और सायंकालीन संध्या को पूजा-उपासना के लिए महत्वपूर्ण माना गया है.
शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के परिवर्तन के दो दिन पूर्णिमा एवं अमावस्या के नाम से जाने जाते हैं तथा कई महत्वपूर्ण पर्व इसी संधिवेला में मनाये जाते हैं. इसी प्रकार ऋतुओं का भी संधिकाल होता है. शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन का यह संधिकाल वर्ष में दो बार आता है. चैत्र में मौसम ठंडक से बदल कर गर्मी का रूप ले लेता है और आश्विन में गर्मी से ठंडक का.

आयुर्वेदाचार्य शरीर शोधन-विरेचन एवं कायाकल्प जैसे विभिन्न प्रयोगों के लिए संधिकाल की इसी अवधि की प्रतीक्षा करते हैं. शरीर और मन के विकारों का निष्कासन-परिशोधन भी इस अवसर पर आसानी से हो सकता है.  उसी प्रकार नवरात्रियां भी प्रकृति जगत में ऋतुओं का ऋतुकाल हैं, जो नौ-नौ दिन के होती हैं. उस समय उष्णता और शीत दोनों ही साम्यावस्था में होते हैं.

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्माचारिणी। तृतीय चंद्रघण्टेति कुष्माण्डेति चतुर्थकम्।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।सप्तमं कालरात्रि महागौरीति चाऽष्टम्।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।

नव दुर्गा-

प्रथम दुर्गा : श्री शैलपुत्री

श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

द्वितीय दुर्गा : श्री ब्रह्मचारिणी

श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है।

तृतीय दुर्गा : श्री चंद्रघंटा

श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।

चतुर्थ दुर्गा : श्री कूष्मांडा

श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।

पंचम दुर्गा : श्री स्कंदमाता

श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।

षष्ठम दुर्गा : श्री कात्यायनी
श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।

सप्तम दुर्गा : श्री कालरात्रि

श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए।

अष्टम दुर्गा : श्री महागौरी

श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।

नवम् दुर्गा : श्री सिद्धिदात्री

श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
इस दिन को रामनवमी भी कहा जाता है और शारदीय नवरात्रि के अगले दिन अर्थात दसवें दिन को रावण पर राम की विजय के रूप में मनाया जाता है। दशम् तिथि को बुराई पर अच्छाकई की विजय का प्रतीक माना जाने वाला त्योतहार विजया दशमी यानि दशहरा मनाया जाता है। इस दिन रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के पुतले जलाये जाते हैं।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है|देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है। गॉंवों में इन्‍हें कन्‍या पूजन कहते हैं। जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है।

नवरात्रि व्रत विधि-

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें । इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्री :-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।

इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

कलश स्थापना-

नवरात्र के दिनों में कहीं-कहीं पर कलश की स्थापना की जाती है एक चौकी पर मिट्टी का कलश पानी भरकर मंत्रोच्चार सहित रखा जाता है। मिट्टी के दो बड़े कटोरों में मिट्टी भरकर उसमे गेहूं/जौ के दाने बो कर ज्वारे उगाए जाते हैं और उसको प्रतिदिन जल से सींचा जाता है। दशमी के दिन देवी-प्रतिमा व ज्वारों का विसर्जन कर दिया जाता है।

महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती मुर्तियाँ बनाकर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करें और पुष्पो को अर्ध्य देवें । इन नौ दिनो में जो कुछ दान आदि दिया जाता है उसका करोड़ों गुना मिलता है इस नवरात्र के व्रत करने से ही अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

कन्या पूजन-

नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। अष्टमी के दिन कन्या-पूजन का महत्व है जिसमें 5, 7,9 या 11 कन्याओं को पूज कर भोजन कराया जाता है।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्यण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

Wednesday 17 September 2014

कैसे अजय बिष्ट बने महंत आदित्यनाथ-अर्जुन की तरह ही आज भी रक्षा करने का ये जज्बा गोरखपुर की धरा पर कायम है-महंत आदित्यनाथ


पौड़ी जिले के पंचेर गांव में नंद सिंह बिष्ट के घर पांच जून 1972 को जन्मे बालक का नाम अजय रखा गया।

14 सितंबर को उनके जीवन में नया अध्याय जुड़ गया। महंत अवेद्यनाथ के समाधिस्थ होने के साथ ही बेशुमार लोगों और संत समाज के गणमान्य लोगों के बीच उन्होंने गोरक्षपीठाधीश्वर का दायित्व संभाल लिया। वैसे उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र जीवन से ही हो गई थी। गढ़वाल विश्वविद्यालय से बीएससी की डिग्री हासिल करने तक उनकी गिनती अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रखर कार्यकर्ताओं के रूप में होने लगी थी। नाम के अनुरूप बाल्यावस्था से हर काम की तेजी से अजय ने न सिर्फ अपने अजेयभाव का प्रदर्शन किया बल्कि कम उम्र में संत पंथ को अपनाकर न सिर्फ आदित्यनाथ बन गए बल्कि वोटों की शक्ल में आम लोगों का दिल जीतकर 1998 में सबसे कम उम्र सांसद बनने का गौरव भी हासिल किया।

इसके बाद 22 साल की उम्र में परिवार त्यागकर वह योगी स्वरूप में आ गए। 1993 से अपना केंद्र गोरखपुर बना लिया और गोरखनाथ मंदिर में निरंतर बढ़ते सेवाभाव ने उन्हें 15 फरवरी 1994 को उनको गोरक्षपीठाधीश्वर के उत्तराधिकारी की पदवी तक पहुंचा दिया।इसके बाद 1998 में जब फिर लोकसभा का चुनाव की घोषणा हुई तो गोरक्षपीठाधीश्वर ने अपनी सियासी विरासत भी उन्हें सौंपते हुए चुनाव लड़ाने का फैसला लिया।इस चुनाव में जीतकर उन्हें सबसे कम उम्र का सांसद बनने का गौरव हासिल हुआ। उसके बाद से वह लगातार पांचवीं बार चुनाव जीतकर बाल्यवस्था के अपने नाम के अनुरूप खुद के अजेय भाव को प्रदर्शित कर रहे हैं।
एक कार्यक्रम के दौरान उनके भाषण ने ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ को प्रभावित किया और उनके आह्वान पर रामजन्मभूमि आंदोलन से जुड़ गए। गतिविधियों के साथ काम के प्रति समर्पण का भाव बढ़ता देख महंत अवेद्यनाथ उन्हें अपना शिष्य बनाने पर हामी भर दी।

1996 के लोकसभा चुनाव में जब महंत अवेद्यनाथ गोरखपुर संसदीय सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में थे तो चुनाव का कुशल संचालन करके उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझ का खास परिचय दिया।

जब सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश जेहाद, धर्मान्तरण, नक्सली व माओवादी हिंसा, भ्रष्टाचार तथा अपराध की अराजकता में जकड़ा था उसी समय नाथपंथ के विश्व प्रसिद्ध मठ श्री गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर के पावन परिसर में शिव गोरक्ष महायोगी गोरखनाथ जी के अनुग्रह स्वरूप माघ शुक्ल 5 संवत् 2050 तदनुसार 15 फरवरी सन् 1994 की शुभ तिथि पर गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ जी महाराज ने अपने उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ जी का दीक्षाभिषेक सम्पन्न किया।

अपने धार्मिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के साथ-साथ योगी जी निरंतर समाज से जुड़ी समस्याओं के निवारण के लिए प्रयास करते रहते हैं। व्यक्तिगत समस्याओं से लेकर विकास योजनाओं तक की समस्याओं का हल वे बहुत ही धैर्यपूर्वक निकालते हैं।



1998 : 12वीं लोक सभा के लिए पहली बार गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित।
1999 : 13वीं लोक सभा के लिए दूसरी बार गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित।
2004 : 14वीं लोक सभा हेतु पुनः तीसरी बार निर्वाचित।
2009 : 15वीं लोक सभा हेतु पुनः चौथी बार निर्वाचित।
2014 : 16वीं लोक सभा हेतु पुनः पाँचवी बार निर्वाचित।

अपने अज्ञातवास के अंतिम समय में अर्जुन ने विराटनगर,नेपाल के राजा की गायो के हरण कर चुके कौरवो से जिस जगह युद्ध कर रक्षा की वो जगह ही  गो रक्षा पुर या गोरखपुर कहलाई. 

 अर्जुन की तरह ही आज भी रक्षा करने का ये जज्बा गोरखपुर की धरा पर कायम है आज की यह परंपरा गोरक्ष पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ निभा रहे है. जिस ‘समाज की रक्षा’ संविन्धान,सेना, प्रशासन रक्षा नहीं कर पा रहा है उसकी रक्षा योगी आदित्यनाथ बिना पुकारे ही कर रहे है. वे कौन सी बात से ‘रक्षा’ कर रहे है या  किस तरह से ‘रक्षा’ कर रहे है वो भी किसी से भी छुपा नहीं है.

हिन्दू जनमानस में अपनी ख़ास पहचान रखने वाले गोरखपुर का ‘गोरक्ष पीठ’ नाम का मठ नाथ सम्प्रदाय के हठ-योगियों का गढ रहा, जाति-पाति से दूर इस सम्प्रदाय के शाखा तिब्बत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर पूरे पश्चिम उत्तर भारत में फैली थी. नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ को हिन्दू समेत तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्ध योगी माना जाता है. रावलपिंडी शहर को बसाने वाले राजपूत राजा बप्पा रावल के गोरखनाथ को अपना गुरु मानते थे व् इन्ही के प्रेरणा से मोरी (मौर्या) सेना को एकत्र कर मुहम्माब बिन कासिम के नेतृत्व में अरब हमलो से भारत की रक्षा की, आज उसी प्रकार से ‘समाज की रक्षा’ गोरखनाथ मठ के उत्तराधिकारी होने के नाते योगी आदित्यनाथ कर रहे है.

योगी जी की कर्मभूमी उत्तर प्रदेश का सबसे पूर्वी हिस्सा है, जिसमे गोरखपुर मंडल के देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर,महाराजगंज, बस्ती मंडल के बस्ती,संतकबीर नगर, सिद्धार्थनगर और आज़मगढ़ मंडल के आज़मगढ़, बलिया,मऊ जिले शामिल हैं. ये तीनो मंडल एक ख़ास विचारधारा से प्रभावित हो साम्प्रदायिकता का जवाब साम्प्रदायिकता की राजनीति की तरफ आकृष्ट हुए है. कई दशको से मठ आधारित ये राजनीति अपने शुरुवाती दिनों के सोफ्ट हिंदुत्व से उग्र हिन्दुत्ववादी हो चुकी है तो इसका श्रेय योगी आदित्य नाथ के आक्रामक स्वाभाव को ही जाता है. पूर्व में इसी विचारधारा के तहत महंत अवैद्य नाथ ने 1989 और 1991 में गोरखपुर से लोकसभा का चुनाव जीता व् उनके बाद से उनके उत्तराधिकारी बने योगी आदित्यनाथ ने लगातार 1996,1998, 1999 ,2004 और 2009 के चुनाव के चुनाव जीत अपनी इसी राजनीति के सफल होने का प्रमाण दिया.

जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने जापानी इंसेफलाइटिस से बचाव और उसके उपचार के लिए उलेखनीय प्रयास किये, उसके अलावा गोरखपुर में सफाई व्यवस्था व् राप्ती नदी पर बांध बनवाने जैसे कई विकास के कार्य कराए है. सदियों से श्रद्धा का केंद्र रहने वाले गोरखनाथ पीठ के महंत होने की वजह से वे कभी भी मतदाता के सामने हाथ नहीं जोड़ते, उल्टे मतदाता उनके पैर छूकर आर्शीवाद मांगते हैं. सांसद होने के नाते कोई समस्या बयान करता तो वे सरकारी प्रक्रिया का इंतज़ार किये बिना  तुरंत संबंधित अधिकारी से बात कर समस्या का अपने स्तर पर निपटारा कर देते है. कुछ वर्ष पहले एक माफिया डॉन के द्वारा उनके एक मतदाता के मकान पर कब्जे से क्षुब्द, योगी ने सीधे ही उस मकान पर पहुँच अपने समर्थको के द्वारा उसे कब्जे से मुक्त करवा दिया ऐसे कई और मामलें है जो उनकी धार्मिक रहनुमाई से रोबिनहुडाई तक के सफ़र की कथा बयान करती है.

2009 में पार्टी पर मजबूत पकड़, मठ से प्राप्त धार्मिक हैसियत, विकास और हिन्दू युवा वाहिनी जैसे युवाओ के संगठन के बदौलत उन्होंने करिश्माई रूप से स्वयं की गोरखपुर शहर व् कांग्रेस के दिग्गज महावीर प्रसाद को कमलेश पासवान से हरवा कर बांसगांव लोकसभा सीट जीत ली.आदित्यनाथ भाजपा के टिकट पर सिर्फ चुनाव लड़ते हैं, और पार्टी की भी राज्य में अपने घटी हैसीयत के कारण उनकी ब्रांड वाली राजनीति को बाबूलाल कुशवाहा की तरह मजबूरन स्वीकारना पड़ता है. वे पार्टी की सांगठनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करके उसके पदों पर अपने समर्थकों को तो बिठाते हैं पर भाजपा संगठन की बनिस्बत वे अपने जन कार्यक्रम  हिन्दू युवा वाहिनी और हिन्दू महासभा के बैनर तले चलाते हैं. हालंकि नितिन गडकरी के मौजूदा  कार्यकाल में पार्टी पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ी है. पार्टी में धीरे धीरे उनकी उपेक्षा भी शुरू हो गयी है हुई मसलन इन चुनावो के मद्देनज़र पिछले नवम्बर माह में राजनाथ सिंह ने जो सद्भावना यात्रा गोरखपुर में की उसमे उन्होंने योगी को बुलाना तक उचित नहीं समझा, फिर पार्टी ने उनकी युवा वाहिनी की अपेक्षा राजनैतिक लोगो को उनके प्रभाव वाले इलाको में टिकट दे दिए. गडकरी ने बाद में बयान दिया की कुछ बड़े नेता अपनी मनमानी कर जितने वाले कार्यकर्ताओ की अपेक्षा अपने समर्थको को टिकट देने का मुझ पर काफी दबाव बना रहे है. स्वजातीय राजपूत नेता व् भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही व् गोरखपुर शहर के पूर्व विधायक शिव प्रताप शुक्ल से उनकी रार किसी से छुपी नही




Thursday 11 September 2014

गढ़वाल राइफल्स के स्वर्णिम इतिहास से मिला जनरल बकरा -प्राणी कोई भी हो उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु आत्मा एक ही होती है,


गढ़वाल राइफल्स के स्वर्णिम इतिहास से मिला जनरल बकरा का किस्सा सुनने से जितना अटपटा सा लगता है वास्तविकता में यह किस्सा उतना ही रोचक है। बात हिन्दुस्तान आजाद होने से पहले की है। लैन्सडाउन में उस समय गढ़वाल राइफल का ट्रेनिंग सेन्टर हुआ करता था। गढ़वाल राइफल के सभी महत्वपूर्ण फैसले उस समय अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा लिये जाते थे। उस समय फ्रांस, जर्मन, बर्मा, अफगानिस्तान आदि देशों से अंग्रेजी शासन का युद्ध होता रहता था अत: गढ़वाल राइफल की पल्टन को भी हुकूमत के शासन के अनुसार उन स्थानों पर जंग में शामिल होना होता था। गढ़वाली जवान इस समय जहां जहां भी जंग पर भेजे जाते थे अपनी वीरता की धाक जमाकर आते थे।

ऐसे ही एक समय अफगानिस्तान के विद्रोह को दबाने के लिये अन्य सैनिक टुकड़ियों के साथ "गढ़वाल राइफल" के जवानों को अफगानिस्तान के "चित्राल" क्षेत्र में भेजा गया। चित्राल अफगानिस्तान पहुंचने पर कमांडर ने जवानों को नक्शा समझाया और टुकड़ियों को अलग अलग दिशाओं से आगे बढ़ने को कहा। सभी टुकड़ियों को एक बहुत बड़े क्षेत्र को घेरते हुये आगे बढ़ना था और एक स्थान पर आगे जाकर मिलना था। वहां के बीहड़ तथा अन्जान प्रदेश में गढ़वाली पल्टन की एक पलाटून टुकड़ी दिशा भ्रम के कारण रास्ता भटक गई तथा घनघोर बीहड़ स्थल में फंस गई। अन्जान जगह और इस ये संकट, स्थिति बड़ी विकट थी।

कई दिनों तक भटकने के बाद जवानों का बुरा हाल था। भूख और प्यास की वजह से हालत पस्त होती जा रही थी। वे लोग शत्रु प्रदेश में होने के कारण दिन भर भूखे प्यासे झाड़ियों में छिपे रहते और रात को छुपते-छुपाते रेंगते हुये आगे बढ़कर मार्ग ढूंढते थे। ऐसे ही एक रात थके भटके सिपाही शत्रुओं से बचते-बचाते अपना मार्ग ढूंढने में लगे थे तभी उन्होने सामने की झाड़ियों में अपनी तरफ बढ़ती कुछ हलचल महसूस की। झाड़ियों कोइ चीरकर अपनी तरफ बढ़ते शत्रुओं के भय से हिम्मत, साहस और शक्ति आ गई । सभी ने अपनी बन्दूकें कस कर पकड़ लीं और ग्रुप कमान्डर के इशारे के आदेश से आक्रमण करने को तैयार सांस बांधे और बन्दूक साधे झाड़ियों की तरफ टकटकी लगाये खड़े हो गये। रात्रि के अन्धकार में शत्रु की सटीक स्थिति एवं संख्या का अंदाजा लगा पाना मुश्किल था लेकिन फिर भी सभी मजबूती से बन्दूकें पकड़े चौकन्ने खड़े थे। लेकिन आने वाल जब झाड़ियों से बाहर निकलकर उनके सामने निर्भय हो आ खड़ा हुआ तो सबकी सांस में सांस आई, बन्दूकों पर पकड़ ढीली पड़ गई और भूख भी लौट आई।

जिसको शत्रु समझकर वे आक्रमण की तैयारी कर खड़े हो चुके थे वो एक भीमकाय जंगली बकरा था जो सामने चुपचाप खड़ा उनको देख रहा था। वह बकरा बड़ा शानदार था, उसके बड़े सींग और लम्बी दाढ़ी उसकी आयु का परिचय दे रहे थे तथा वह एक सिद्धप्राणी देवदूत सा खड़ा सिपाहियों की गतिविधियां देख रहा था। अजनबी देश में भटके वे सिपाही कई दिनों से भूखे थे। उन्होने बकरे को घेर कर पकड़ कर खाने की बात आपस में तय की तथा उसे पकड़ने के लिये घेराबन्दी करने लगे। बकरा भी चुपचाप खड़ा उन्हे देखता रहा।

जब बकरे ने देखा कि सिपाही उसकी तरफ आ रहे हैं तो वह जैसे खड़ा था वैसे ही उल्टे पैर सिपाहियों पर नजर गढ़ाये जिधर से आया था उधर को उल्टा पीछे चलने लगा। धीरे धीरे पीछे हटते बकरे की तरफ सिपाही मन्त्रमुग्ध से होकर चाकू हाथ में थामें बढ़ते रहे। काफी दूर तक चलते चलते बकरा उनको एक बड़े खेत में ले आया था वहां आकर बकरा खड़ा हो गया। सिपाहियों ने  बकरे को घेर लिया लेकिन तभी बकरे ने अपने पीछे के पावों से मिट्‌टी को खोदना शुरू किया थोड़ी ही देर में मिट्‌टी से बड़े बड़े आलू निकल कर बाहर आने लगे। खेत से आलुओं को निकलता देखकर सिपाहियों समझ गये कि यह बकरा भी हमारी भूख और मन की व्यथा को समझ रहा था। उसने हमारी छटपटाती भूख को देखकर हमारे जीवन की रक्षा का उपाय सोचा और सोचने के बाद वह मूक प्राणी किस तरह हमें खेत तक ले गया। वह यह भी देख रहा था कि ये मारने के लिये हथियार उठाये हुये हैं। बकरे के मूक व्यवहार को देक सभी सिपाही गद्‌-गद्‌ हो उठे, सबने हथियार छोड़ बकरे को गले से लगाया।

 उसके बाद सिपाहियों ने बकरे के खोदे हुये आलुओं को इकट्ठा कर भूनकर खाया। पेट भर कर उनमें नई शक्ति का संचार हुआ तथा वे अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हुये। कुछ दूर चलकर उनको अपने साथी भी मिल गये। निर्धारित स्थान पर आक्रमण कर गढ़वाली पल्टन विजयी हुई। लौटते समय सैनिक वहां से जीत के माल, तोप, बन्दूक, बारूद के साथ उस भीमकाय बकरे को भी लैन्सडौन छावनी में ले आये।

गढ़वाल राईफल्स की लैन्सडौन छावनी में विजयी सैनिकों का सम्मान हुआ। उनके साथ ही उस बकरे का भी सम्मान किया गया क्योंकि युद्ध में उसने पलाटून के सभी जवानों की जीवन रक्षा की थी अत: उस बकरे को "जनरल" की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह बकरा भले ही "जनरल" पद की परिभाषा तथा गरिमा ना समझ पाया हो लेकिन वह परेड ग्राउन्ड में खड़े सैनिकों, आफिसरों के स्नेह को देख रहा था, सभी उस पर फूल बरसा रहे थे। विशाल बलिष्ठ शरीर, लम्बी दाढ़ी वाला वह "जनरल बकरा" फूलमालाओं से ढका एक सिद्ध संत सा दिख रहा था। सैनिकों ने उसका नाम प्यार व सम्मान से "बैजू" रख दिया था। उस जनरल बकरे को पूरे फौजी सम्मान प्राप्त थे, उसे फौजी बैरिक के एक अलग क्वाटर में अलग बटमैन सुविधायें दी गईं थी।

उसकी राशन व्यवस्था भी सरकारी सेवा से सुलभ थी उस पर किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं थी, वह पूरे लैन्सडौन शहर में कहीं भी घूम सकता था। आर० पी० सैनिक उसकी खोज खबर रखते थे। शाम को वो या तो खुद ही आ जाता या उसको ढूंढकर क्वाटर में ले जाया जाता था। बाजार की दुकानों के आगे से वो जब गुजरता था तो उसकी जो भी चीज खाने की इच्छा होती थी खा सकता था चना, गुड़, जलेबी, पकौड़ी, सब्जी कुछ भी। किसी चीज की कोई रोक टोक नहीं थी, उस खाये हुये सामान का बिल यदि दुकानदार चाहे तो फौज में भेजकर वसूल कर सकता था। अपने बुढ़ापे तक भी वह "जनरल बकरा" बाजार में रोज अपनी लंबी-लंबी दाढ़ी हिलाते हुये कुछ ना कुछ खाता तथा आता जाता रहता था। नये रंगरूट भी उसे देखकर सैल्यूट भी ठीक बूट बजाकर मारते दिखते थे, ऐसा क्यों ना हो वह जनरल पद से सम्मानित जो था।

लम्बी दाढ़ी अजीब सी गन्ध लेकर वह जनरल बकरा रोज दिन से शाम तक लैन्सडौन बाजार की गलियों में घूमता दिखाई देता था। फिर वृद्धवस्था के कारण एक दिन वो मर गय। उसकि मृत्यु पर फौज व बाजार में शोक मनाया गया। जनरल बकरा मर कर भी दुनिया को एक संदेश दे गया। "प्राणी कोई भी हो उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु आत्मा एक ही होती है, मनुष्य ही नहीं जानवर भी दिल रखते हैं.. प्यार करते हैं, परोपकार की भावना उनमें भी मानव से कम नहीं होती बल्कि उनसे अधिक होती है..."।
..... ऐसा था "जनरल बकरा"

Monday 8 September 2014

सुरकण्डा देवी-यहां कदम रखते ही मन पवित्र अनुभूतियों से भर जाता है-श्रद्धा से शीश झुक जाता है।




सुरकण्डा देवी शक्तिपीठ गढवाल का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। मान्यता है कि 52 शक्तिपीठों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण शक्तिपीठ है। वैदिक कथाओं के अनुसार देवी सती के सिर वाला भाग यहां पर गिरा था, इसलिए इस स्थान को सुरकुट पर्वत के नाम से भी जाना जाता है और यह शक्तिपीठ सुरकंडा के नाम से प्रसिद्ध है। यह शक्ति का स्थल है। सुरकण्डा देवी मन्दिर के पास में ही शिव, भैरव और हनुमान मन्दिर भी हैं।

केदारखंड में जिन 52 शाक्तिपीठों का जिक्र किया गया है दरअसल सुरकण्डा देवी उन्हीं मे से  एक है। इसे सुरेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है। आज जिस पर्वत शिखर पर यह मंदिर स्थित है उसे सुरकूट पर्वत भी कहा जाता है। मंदिर के पुजारी ज्ञानदेव लेखवार बताते हैं कि  श्जब राजा दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया तो उसमें अपने दामाद भगवान शंकर को छोड़ सभी देवाताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन फिर भी दक्ष पुत्री सती यज्ञ में शामिल होने पहुंच गई। भगवान शंकर को न बुलाए जाने का कारण पूछे जाने पर राजा दक्ष ने महादेव के लिए अपमान भरे शब्द कहे। सती शब्दों के इन तीक्ष्ण बाणों को सहन न कर सकी और धधकते हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी। रौद्र रूप धर भगवान शंकर ने वहां पहुंच शव को त्रिशूल पर लटका हिमालय की ओर रूख किया  उसी दौरान जहां जहां सती के अंग गिरे वे सिद्वपीठ कहलाए। इसी सुरकूट पर्वत पर मां का सिर गिरा था, जो आज सुरकुण्डा देवी मंदिर के रूप में  जाना जाता है। इसके अलावा इसी स्थान पर कभी देवराज इंद्र ने भी घोर तपस्या की थी।

यह शक्तिपीठ मसूरी और चम्बा के बीच स्थित है। धनोल्टी से छह किलोमीटर दूर कद्दूखाल नाम की एक जगह है जहां से सुरकण्डा देवी के लिये रास्ता जाता है। यहां से दो किलोमीटर पैदल चलना पडता है। कद्दूखाल जहां 2490 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं सुरकण्डा देवी की ऊंचाई 2750 मीटर है यानी दो किलोमीटर पैदल चलकर 260 मीटर चढना कठिन चढाई में आता है।

इसकी दूर- दूर तक मान्यता है। यहां कदम रखते ही मन पवित्र अनुभूतियों से भर जाता है, श्रद्धा से शीश झुक जाता है। सारे वातावरण में हवन का सुगंध ब्याप्त रहता है । मंदिर में देवी की आरती के समय अद्भुत दृश्य होता है। यहां मॉ की पूजा-अर्चना कर एक अद्भुत शान्ति की प्राप्त होती है।

वैसे तो मंदिर में देवी दर्शन के लिए लोगों का आना-जाना लगा रहता है  लेकिन गंगा दशहरे के अवसर पर देवी के दर्शनों का विशेष महत्व होता है। गंगा दशहरा के अवसर पर यहां विभिन्न जगहों से आए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। इस दौरान आस-पास के गांवों समेत दूर-दराज के श्रद्धालु भी ख्रासी संख्या में मौजूद रहते हैं । इसलिए तीन चार दिनों तक मंदिर में अधिक भीड़ रहती है। कतारों में लगे भक्त देर शाम तक माता के दर्शन करते हैं । श्रद्धालु पूरे भक्तिभाव से माता के दर्शन लाभ अर्जित करते हैं। इन दिनों में एक लाख से अधिक श्रद्धालु देवी के दर्शन करते हैं। श्रद्धालु मां का दर्शन कर पुण्य लाभ कमाते हैं और संपन्नता व खुशहाली की मन्नत मांगते हैं ।

इस अवसर पर कद्दूखाल में एक मेले का आयोजन किया जाता हैं । इस मेले में भी भारी भीड़ देखने को मिलती है। इस दौरान कई गांवों के लोग अपने ईष्टदेवों की डोली भी लेकर यहां आते हैं।

नवरात्रि में भी श्रद्धालु यहां पर आकर देवी की कृपा प्राप्त करते है। इन दिनों में यहां पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है। अखंड देवी पाठ रखे जाते हैं और वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ हवन इत्यादि की जाती है।
हाल ही में प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार कर नया मंदिर बनाया गया है,  पर खास बात यह है कि मंदिर के स्वरूप को पौराणिक ही रखा गया है। मंदिर में 42 खिड़कियां और 7 दरवाजे बनाए गए हैं। पहाड़ की लोक कला को ध्यान में रखते हुए दरवाजों पर नक्काशी का कार्य भी किया गया है। मंदिर की पौराणिकता को देखते हुए छत्त को पठाली स्लेट से बनाया गया है।

मंदिर से हिमालय का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। यहां से गढवाल हिमालय की चोटियां दिखती हैं। पीछे मुडकर देखें तो पहाड धीरे धीरे नीचे होते चले जाते हैं, दक्षिण दिशा में ऋषिकेश और देहरादून भी दिखता  है।


कहां ठहरें- 
अगर आप मसूरी में अपना होटल न छोड़ना चाहें तो एक दिन में आप अप डाउन कर सकते हैं। क्योंकि कद्दूखाल से मसूरी की दूरी महज 35 किमी है। अगर आप सुबह शाम होने वाली पूजा में शामिल होना चाहते हैं तो मंदिर प्रबंधन की  धर्मशालाओं में भी ठहर सकते हैं। मगर इनमें अधिक सुविधाओं की उम्मीद न करें। इन सब के अलावा कद्दूखाल से 8 किमी की दूरी पर धनोल्टी में आपको गढ़वाल मंडल विकास निगम की डोमेट्ररी से लेकर सुपर डीलक्स रूम तक मिल जाएंगे।

कैंसे पहुंचेः
 यह स्थान दिल्ली से लगभग 315 किमी. की दूरी पर है। आप दिल्ली से मसूरी वाया देहारदून होते हुए सुरकण्डा पहुंच सकते हैं। अगर आप अपने वाहन से जाने की सोच रहे हैं तो जरूरी नहीं कि मसूरी भी होते हुए जाएं क्योंकि देहरादून से आगे बढ़ने पर मसूरी से  2 किमी पहले ही एक रास्ता सुरकण्डा की ओर निकल जाता है।