Wednesday 26 November 2014

पूर्णागिरि मंदिर- मां भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है !



पूर्णागिरि मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत नगर में काली नदी के दांये किनारे पर स्थित है। चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे सामरिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण चम्पावत ज़िले के प्रवेशद्वार टनकपुर से 19 किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ मां भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। तीन ओर से वनाच्छादित पर्वत शिखरों एवं प्रकृति की मनोहारी छटा के बीच कल-कल करती सात धाराओं वाली शारदा नदी के तट पर बसा टनकपुर नगर मां पूर्णागिरि के दरबार में आने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है। इस शक्तिपीठ में पूजा के लिए वर्ष-भर यात्री आते-जाते रहते हैं किंतु चैत्र मास की नवरात्र में यहां मां के दर्शन का इसका विशेष महत्व बढ जाता है। मां पूर्णागिरि का शैल शिखर अनेक पौराणिक गाथाओं को अपने अतीत में समेटे हुए है। पहले यहां चैत्र मास के नवरात्रियों के दौरान ही कुछ समय के लिए मेला लगता था किंतु मां के प्रति श्रद्धालुओं की बढती आस्था के कारण अब यहां वर्ष-भर भक्तों का सैलाब उमडता है। मैदानी इलाकों में आने पर इसका प्रचलित नाम शारदा नदी है) इस नदी के दूसरी ओर बांऐ किनारे पर नेपाल देश का प्रसिद्ध ब्रह्मा विष्णु का मंदिर ब्रह्मदेव मंदिर कंचनपुर में स्थित है। प्रतिदिन सांयःकालीन आरती का आयोजन होता है।

पौराणिक गाथाओं एवं शिव पुराण रुद्र संहिता के अनुसार जब सती जी के आत्मदाह के पश्चात भगवान शंकर तांडव करते हुए यज्ञ कुंड से सती के शरीर को लेकर आकाश मार्ग में विचरण करने लगे। विष्णु भगवान ने तांडव नृत्य को देखकर सती के शरीर के अंग पृथक कर दिए जो आकाश मार्ग से विभिन्न स्थानों में गिरे। कथा के अनुसार जहां जहां देवी के अंग गिरे वही स्थान शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गए। मां सती का नाभि अंग अन्नपूर्णा शिखर पर गिरा जो पूर्णागिरि के नाम से विख्यात् हुआ तथा देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिका गिरि, कालिका गिरि, हमला गिरि व पूर्णागिरि में इस पावन स्थल पूर्णागिरि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। देवी भागवत और स्कंद पुराण तथा चूणामणिज्ञानाणव आदि ग्रंथों में शक्ति मां सरस्वती के 51,71 तथा 108 पीठों के दर्शन सहित इस प्राचीन सिद्धपीठ का भी वर्णन है जहां एक चकोर इस सिद्ध पीठ की तीन बार परिक्रमा कर राज सिंहासन पर बैठा।

पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्मकुंड के निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मदेव मंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रियों में देवी के दर्शन से व्यक्ति महान पुण्य का भागीदार बनता है। देवी सप्तसती में इस बात का उल्लेख है कि नवरात्रियों में वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति निष्ठापूर्वक सुनेगा वह व्यक्ति सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से संपन्न होगा।

पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक बार एक संतान विहीन सेठ को देवी ने स्वप्न में कहा कि मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। सेठ ने मां पूर्णागिरि के दर्शन किए और कहा कि यदि उसे पुत्र प्राप्त हुआ तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनवाएगा। मनौती पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के स्थान पर तांबे के मंदिर में सोने का पालिश लगाकर जब उसे देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर आने लगा तो टुन्यास नामक स्थान पर पहुंचकर वह उक्त तांबे का मंदिर आगे नहीं ले जा सका तथा इस मंदिर को इसी स्थान पर रखना पडा। आज भी यह तांबे का मंदिर या झूठे का मंदिर के नाम से जाना जाता है।

कहा जाता है कि एक बार एक साधु ने अनावश्यक रूप से मां पूर्णागिरि के उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश की तो मां ने रुष्ट होकर उसे शारदा नदी के उस पार फेंक दिया किंतु दयालु मां ने इस संत को सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात कर उसे आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति मेरे दर्शन करेगा वह उसके बाद तुम्हारे दर्शन भी करने आएगा। जिससे उसकी मनौती पूर्ण होगी। कुमाऊं के लोग आज भी सिद्धबाबा के नाम से मोटी रोटी बनाकर सिद्धबाबा को अर्पित करते हैं।

यहां यह भी मान्यता है कि मां के प्रति सच्ची श्रद्धा तथा आस्था लेकर आया उपासक अपनी मनोकामना पूर्ण करता है, इसलिए मंदिर परिसर में ही घास में गांठ बांधकर मनौतियां पूरी होने पर दूसरी बार देवी दर्शन लाभ का संकल्प लेकर गांठ खोलते हैं। यह परंपरा यहां वर्षो से चली आ रही है। यहां छोटे बच्चों का मुंडन कराना सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।

कहा जाता है कि इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है। इसलिए इसकी विशेष महत्ता है। यहां प्रसिद्ध वन्याविद तथा आखेट प्रेमी जिम कार्बेट ने सन् 1927 में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरि के प्रकाशपुंजों को स्वयं देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी व विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफ़ी ख्याति प्रदान की।

Tuesday 11 November 2014

ऐसा था मेरे बचपन का दून



मेरे बचपन का दून आज ‘पहाड़’ हो गयाहरा-भरा दून आज ‘बेजार’ हो गयामेरा गांव सा दून आज ‘शहर’ हो गया…





मेरे बचपन का दून (देहरादून कहीं खो सा गया है। विकास की अंधी दौड़ ने इसकी खूबसूरती पर चार-चांद लगाने के बजाए कई अनचाहे दाग लगा दिए हैं। लगता ही नहीं यह वही शहर है जहां शांति थी सुकून था खूबसूरत नजारे थे सड़कों पर दौड़ती तांगा-गाड़ी और आम-लीची के बागीचे थे। संकरी होने के बावजूद शहर की सड़कें खुली-खुली थीं।

दून के कुछ हिस्सों की कहानी मैं आपको बताता हूं। मेरे बचपन से जुड़ी कई महकती यादें हैं जो मुझे पुराने दून की याद दिलाती हैं। दून घाटी के नाम से प्रख्यात ये शहर तब मसूरी के कोल्हूखेत से देखने पर फूलों की टोकरी में रखा सुंदर सा गुलदस्ता नजर आता था। जगह आज भी उतनी ही है, लेकिन तब की टोकरी आज काली कढ़ाई बन गई है। पहले ऊंचाई से हरियाली के बीच मकान ढूंढने पड़ते थे, आज भवनों की बीच हरियाली ढूंढनी पड़ती है।

तब चार दिशाओं के चार कोनों पर शहर खत्म हो जाता था। सहारनपुर रोड से शाम छह बजे के बाद लालपुल से आगे जाने पर लोगों को डर लगता था। आज जहां पटेलनगर इंडस्ट्रियल एरिया में अमर उजाला का दफ्तर खड़ा है कुछ एक साल पहले तक इससे आगे लहलहाते खेतों की एक लंबी श्रंखला होती थी। तब यहां से आगे कारगी चौक को जाने वाली सड़क पर अंधेरा पड़ने के बाद कोई जाने की सोचता भी नहीं था। बाईपास रोड भी अस्तित्व में नहीं आई थी।

इधर चकराता रोड पर बिंदाल पुल समझो शहर का अंतिम छोर था। इससे आगे किशन नगर चौक पर कुछ एक दुकानें थीं। दून स्कूल, आईएमए, एफआरआई, ओएनजीसी जैसे संस्थानों के चलते लोगों का इस सड़क पर आना-जाना होता था। तब भी इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई देते थे। हां सुबह की सैर के लिए कैंट की तरफ जाने वाली सड़क तब भी लोगों की पसंदीदा जगह थी।

हरिद्वार रोड की बात करे तो धर्मपुर में कुछ गिनी-चुनी दुकानों को छोड़कर आगे बिरानी छा जाती थी। धर्मपुर का एक बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण क्षेत्र में आता है। लेकिन तब यह विशुद्ध रूप से गांव ही था। जिसके हर हिस्से में खेती होती थी। बासमती की महक लोगों को दूर से खिंच लाती थी। रिस्पना पुल तक जाते-जाते कुछ एक घर, इक्का-दुक्का दुकानें नजर आ जाती थी। इसके बाद शहर पूरी तरह खत्म। फिर ऋषिकेश-हरिद्वार की तरफ जाने वाले गाड़ियां सरपट दौड़ती थीं।

मसूरी की तरफ जाने पर गांधी पार्क से कुछ आगे गोल चौक तक ही चहल-पहल दिखाई देती है। इसके आगे सन्नाटा पसरा रहता था। तब ताजी हवा के लिए लोगों को आज की तरह राजपुर की तरफ नहीं जाना पड़ता था। शहर के हर कोने में सुकून की सांस थी।

मुझे याद हम लोग तिलक रोड से लगे आनंद चौक इलाके में रहते थे। मच्छी बाजार से भी एक सड़क आनंद चौक के लिए कटती थी। जहां आने-जाने के लिए तांगा ही एक मात्र साधन था। पिताजी का कोरोनेशन अस्पताल में पथरी का आपरेशन हुआ था। उन दिनों जब मां मुझे घर पर अकेला नहीं छोड़ सकती थी। मैंने भी तहसील चौक से कोरोनेशन अस्पताल तक तांगे की खूब सवारी की। आम-लीची के बागों के बीच पूरे रास्ते ऐसा लगता था जैसे हम किसी जंगल से गुजर रहे हैं।

आपका स्वागत है…
मैं जानता हूं दून से जुड़े हर शख्स की यादों में उसका प्यारा दून कुछ ऐसे ही बसता है। लंबा वक्त नहीं गुजरा। पिछले  वर्षों में राज्य बनने के बाद ही इस शहर की सूरत ज्यादा बदली है। विकास के नाम पर दून को जाने-अनजाने में ही बलि का बकरा बना दिया गया।
क्यों न इस कड़ी को आगे बढ़ाएं-
आगे आएं और बताएं, पहले ऐसा था मेरा दून…..

इससे पहले का दून रस्किन बांड की इन कहानियों में पढ़ने को मिलता है।
Our trees still grow in Dehra
School Days The Adventures of Rusty
A Town Called Dehra, Dust on the Mountain