Sunday 31 August 2014

धारी देवी -पहाड़ों और तीर्थयात्रियों की रक्षक देवी माना जाता है -यहां उनके धार की पूजा होती है





बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर श्रीनगर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर कलियासौड़ में अलकनन्दा नदी के किनारे सिद्धपीठ माँ धारी देवी का मंदिर स्थित है । माँ धारी देवी प्राचीन काल से उत्तराखण्ड की रक्षा करती है, सभी तीर्थ स्थानों की रक्षा करती है । माँ धारी देवी मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है । वर्ष 1807 से इसके यहां होने का साक्ष्य मौजूद है । पुजारियों और स्थानीय लोगों का मानना है कि मंदिर इससे भी पुराना है । 1807 से पहले के साक्ष्य गंगा में आई बाढ़ में नष्ट हो गए हैं । 1803 से 1814 तक गोरखा सेनापतियों द्वारा मंदिर को किए गए दान अभी भी मौजूद है । बताया जाता है कि ज्योतिलिंग की स्थापना  के लिए जोशीमठ जाते समय आदि शंकराचार्य ने श्रीनगर में रात्रि विश्राम किया था । इस दौरान अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने पर उन्होंने धारी माँ की आराधना की थी, जिससे वे ठीक हो गए थे । तभी उन्होंने धारी माँ की स्तुति की थी ।

इस मंदिर में पूजा अर्चना धारी गांव के पंडित कराते हैं । यहां के तीन पंडित भाई (परिवार) चार -चार महीने पूजा कराते हैं । पुजारी का कहना है कि मां की जो इच्छा हो उसे पूरा किया जाए । मां दो बार अपना जवाब सुना चुकी है कि उन्हें यहां से नहीं हटाया जाए । मां की शक्ति है कि 25 साल से यह  पाॅवर प्रोजेक्ट नहीं बन रहा है । मां हम लोगों की रक्षा कर रही है । धारी देवी मंदिर पौड़ी गढ़वाल, श्रीकोट से 15 किलोमीटर दूर कालिया सौड की सड़क है जो एक बार भूस्खलन के लिए जाना जाता है । यद्यपि अभी मानसून के दौरान, भूस्खलन होते रहते हैं पर ये बहुत हद तक सीमित एंव नियंत्रित रहते हैं । इसके अलावा अधिक महत्वपूर्ण एक किलोमीटर की नदी का रास्ता है जो इस क्षेत्र के लोगों की पूजित प्रमुख देवी धारी देवी के काली सिद्धपीठ तक ले जाता है । यहां के पुजारी बताते हैं कि द्वापर युग से ही काली की प्रतिमा यहां स्थित है । ऊपर के काली मठ एवं कालिस्य मठों में देवी काली की प्रतिमा क्रोध की मुद्रा में है पर धारी देवी मंदिर में वह कल्याणी परोपकारी शांत मुद्रा में है । उन्हें भगवान शिव द्वारा शांत किया गया जिन्होंने देवी-देवताओं से उनके हथियार का इस्तेमाल करने को कहा । यहां उनके धार की पूजा होती है जबकि उनके शरीर की पूजा काली मठ में होती है । पुजारी का मानना है कि धारी देवी, धार शब्द से ही निकला है । पुजारी मंदिर के बारे में अन्य कथा का पुरजोर खंडन करता है ।

कहा जाता है कि एक भारी वर्षा की काली रात में जब नदी में बाढ़ का उफान था, धारो गांवके लोगों ने एक स्त्री का रूदन सुना । उस जगह जाने पर उन्हें काली की एक मूर्ति मिली जो बाढ़ के पानी में तैर रही थी । एक दैवी की आवाज ने ग्रामीणों को इस मूर्ति को वही स्थापित  करने का आदेश दिया, यहंा वह मिली थी । ग्रामीणों ने यह भी किया और देवी को धारी देवी नाम दिया गया । पुजारी मानता है कि भगवती काली जो हजारों को शक्ति प्रदान करती है, वह लोगों से अपने बचाव के लिए सहायता नहीं मांग सकती थी । पर वह मानता है कि वर्ष 1980 की बाढ़ में प्राचीन मूर्ति खो गयी तथा 5-6 वर्षो बाद तैराकों द्वारा नदी से मूर्ति को खोज निकाला गया । इस अल्पावधि में एक अन्य प्रतिमा स्थापित  हुई, तथा अब मूल प्रतिमा को पुनस्र्थापित किया गया है । आज देवी की प्राचीन प्रतिमा के चारों ओर एक छोटा मंदिर चट्टान पर स्थित है । प्राचीन देवी की मूर्ति के इर्द-गिर्द चट्टान पर एक छोटा मंदिर स्थित है । देवी की आराधना भक्तों द्वारा अर्तित 50,000 घंटियों बजा कर की जाती है । माँ धारी देवी का मंदिर अलकनंदा नदी पर बन रही 330 मेगावाट जल विद्युत परियोजना की डूब क्षेत्र में आ रहा है । मंदिर समिति के अध्यक्ष एवं समिति के सदस्यों का कहना है कि मंदिर के 200 वर्ष से अधिक होने संबंधी लिखित प्रमाण हैं । ऐसे में अलकनंदा पर बने बांध से बनी झील ने मंदिर के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है । धारी देवी माँ  श्मशानी देवी हैं इसलिए मंदिर आगे से खुला होना चाहिए जिससे धारी गांव का पैतृक घाट मंदिर के सम्मुख रहे ।

हटाई माता ‘‘ धारी देवी ’’ की मूर्ति तो उत्तराखण्ड में हुआ ‘‘महाविनाश’’ -इसे चाहें तो अंधविश्वास कहें या महज एक संजोग उत्तराखण्ड में हुई तबाही के लिए जहां लोग प्रशासन की लापरवाही को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं वहीं उत्तराखण्ड के गढ़वाल वासी का मानना है कि माता धारा देवी के प्रकेाप से ये महाविनाश हुआ । मां काली का रूप माने जाने वाली धारा देवी की प्रतिमा को 16 जून 2013 की शाम को उनके प्राचीन मंदिर से हटाई गई थी । उत्तराखण्ड के श्रीनगर में हाइडिल-पाॅवर प्रोजेक्ट के लिए ऐसा किया गया था । प्रतिमा जैसे ही हटाई गई उसके कुछ घंटे के बाद ही केदारनाथ मे तबाही का मंजर आया और सैकड़ो लोग इस तबाही के मंजर में मारे गये  इस इलाके में माँ धारी देवी की बहुत मान्यता है लोगों की धारणा है कि माँ धारी देवी की प्रतिमा में उनका चेहरा समय के बाद बदला है । एक लड़की से एक महिला और फिर एक वृद्ध महिला का चेहरा  बना । पौराणिक धारणा है कि एक बार भयंकर बाढ़ में पूरा मंदिर बह गया था लेकिन माँ धारी देवी की प्रतिमा एक चट्टान से सटी धारो गांव में बची रह गई थी । गावंवालों को माँ धारी देवी की ईश्वरीय आवाज सुनाई दी थी कि उनकी प्रतिमा को वहीं स्थापित  किया जाए , यही कारण है कि माँ धारी देवी की प्रतिमा को उनके मंदिर से हटाए जाने का विरोध किया जा रहा था । यह मंदिर श्रीनगर से 10 किलोमीटर दूर पौड़ी गांव में है । सिर्फ केदारनाथ के मंदिर को छोड़कर । 16 जून 2013 को शाम 6 बजे धारी देवी की मूर्ति को हटाया गया और रात्रि आठ बजे अचानक आए सैलाब ने मौत का तांडव रचा और सबकुछ तबाह कर दिया जबकि दो घंटे पूर्व मौसम सामान्य था ।

श्रीनगर गढवाल क्षेत्र में एक बहुत ही प्राचीन सिद्ध पीठ है जिसे ‘‘ धारी देवी ’’ का सिद्धपीठ कहा जाता है । इसे दक्षिणी काली माता भी कहते हैं । मान्यता अनुसार उत्तराखंड में चारों  धामों की रक्षा करती है ये देवी । इस देवी को पहाड़ों और तीर्थयात्रियों की रक्षक देवी माना जाता है । महा विकराल इस काली देवी की मूर्ति स्थापना  और मंदिर निर्माण की भी रोचक कहानी है । मूर्ति जाग्रत और साक्षात है । समूचा हिमालय क्षेत्र मां दुर्गा और भगवान शंकर का मूल निवास स्थान माना जाता है । इस स्थान पर मानव के जब से अपनी गतिविधियां बढ़ाना शुरू की हैं तब से जहां प्राकृतिक आपदाएं बढ़ गईं हैं वहीं यह समूचा क्षेत्र अब ग्लेशियर की चपेट में भी आने लगा है । लेकिन नदी पर बांध बनाने के चक्कर में सरकार ने इस देवी के मंदिर को तोड़ दिया और मूर्ति को मूल स्थान से हटाकर अन्य जगह पर रख दिया । 

Tuesday 26 August 2014

जागर - उत्तराखंड में देवताओं के आह्वान का पवित्र अनुष्ठान





सभी जानते हैं कि उत्तराखंड प्रदेश को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है, ऐसा माना जाता है कि इस अंचल के कण-कण में देवी देवता निवास करते हैं। उत्तराखण्ड देवाधिदेव महादेव भगवान् शिव का घर (कैलाश पर्वत) भी है और ससुराल (कनखल, हरिद्वार) भी हमारे वेद-पुराणों में भी सभी देवी-देवताओं का निवास हिमालय के उत्तराखण्ड अंचल में ही माना गया है। उत्तराखण्ड में शिव मन्दिर प्रायः हर स्थान पर पाए जाते है इसीलिए यहाँ के बारे में कहा जाता है कि, "जितने कंकर, उतने शंकर"। सभी हिंदू देवी देवताओं की आराधना के साथ साथ यहाँ पर स्थानीय रूप से पूजे जाने वाले कई देवी-देवताओं का भी यहाँ की संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है

जागर शुद्ध संस्कृत शब्द है जो जाग के साथ घल् प्रत्यय लगाकर बना है उसका अर्थ है जागरण उत्तराखंडवासियों का ऐसा विश्वास है कि देवी-देवता अपने भक्तों का हर कष्ट का निवारण करने के लिये हमारे पास आते हैं देवताओं की की आत्मा के किसी पवित्र शरीर के माध्यम से कुछ समय के लिए अवतरित होने की इसी प्रक्रिया को कहा जाता है- "जागर"। जागर शायद जागरण का ही अपभ्रंश हो सकता है क्योंकि जागर का आयोजन सामान्यतया रात्रि में ही होता है। लेकिन जिस रूप में इसका आयोजन किया जाता है उसके अनुसार जागर से अभिप्राय एक ऎसे रात्रि जागरण या जगराते के आयोजन से है जहां एक अदृश्य आत्मा (देवी-देवताओं) को जागृत कर उसका आह्वान कर उसे किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित किया जाता है।

इस प्रकार गूढ़ अर्थ में जागरण से अभिप्राय केवल जागने से ना होकर देवता की आत्मा को जागृत करने तथा उसे किसी व्यक्ति में (जिसे डंगरिया कहते हैं) में अवतरित कराने से है। इस कार्य के लिये जागरिया जागर लगाता है तथा देवता के आह्ववान हेतु देवता की जीवनी और उसके द्वारा किये कार्यों का बखान अपने साथी गाजे बाजे वालों के साथ गाते हुये करता है। जगर में वाद्य यंत्रों के रूप में हमारे लोक वाद्य हुड़्का और कांसे की थाली का प्रमुख रुप से प्रयोग किया जाता है। इन गीतों को जागर कहने का तर्क यह है कि इनमें देवी शक्ति को जाग्रत करने का आह्वान होता है, इसलिये इनका प्रारंभ जागने-जगाने के उद्बोधन से होता है
अवधि के अनुसार जागर कई प्रकार की होती है:-

सामान्य जागर एक दिन (रात्रि में) की होती है

विशेष प्रयोजन हेतु चार दिन तक आयोजित की जाने वाली जागर के इस कार्यक्रम को चौरास कहते हैं। बैसी- बाईस दिन लगातार आयोजित की जागर के कार्यक्रम को बैसी कहते हैं। यह किसी बड़े परिवारसमूह के द्वारा सामूहिक रूप से आयोजित की जाती है
स्थान के अनुसार जागर घर के अंदर तथा घर के बाहर या मंदिरों में बने विशेष स्थल पर आयोजित की जाती है
आयोजित किए जाने उद्देश्य के अनुसार जागर दो प्रकार की होती है:

एक जागर जो जिसका आयोजन देवी देवताओ या अपने ईष्ट की आराधना के लिए होता है
दूसरी जागर किसी मृत आत्मा (जैसे के किसी पूर्वज जिसकी अकाल मृत्यु हुयी हो और अंतिम संस्कार विधिपुर्वक न हुआ हो) की शान्ति के लिए!

जागर के संचालन में मुख्य रुप से निम्न लोग शामिल होते है:-
१- जगरिया या धौंसिया
२- डंगरिया
३- स्योंकार-स्योंने या सोंकार
४- गाजेबाजे वाले - जो जगरिया के साथ गायन में तथा वाद्ययंत्रों के संगीत से सहयोग करते हैं।

इनके अतिरिक्त स्योंकार के घर के अन्य सदस्य, सम्बन्धी, मित्रगण व गांव पड़ोस के लोग भी जागर में दर्शक की तरह शामिल होते हैं तथा देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

जगरिया या धौंसिया-
जगरिया या धौंसिया उस व्यक्ति को कहा जाता है जो अदृश्य आत्मा को जागृत करता है, इसका कार्य देवता की जीवनी, उसके जीवन की प्रमुख घटनायें व उसके प्रमुख मानवीय गुणों को लोक वाद्य के साथ एक विशेष शैली में गाकर देवता को जागृत कर उसका अवतरण डंगरिया से शरीर में कराना होता है।यह देवता (जोकि डंगरिया के शरीर में अवतरित होते हैं) को प्रज्जलित धूनी के चारों ओर चलाता है और उससे जागर लगवाने वाले की मनोकामना पूर्ण करने का अनुरोध करता है। यह कार्य मुख्यतः हरिजन लोग करते हैं और यह समाज का सम्मानीय व्यक्ति होता है, इसके लिये जागर लगवाने वाला व्यक्ति नये वस्त्र और सफेद साफा लेकर आता है और यह उन्हें पहन कर यह कार्य करता है। जगरिया को भी खान-पान और छूत आदि का भी ध्यान रखना होता है।
डंगरिया, पश्वा या धामी-
डंगरिया वह व्यक्ति होता है, जिसके शरीर में देवता का अवतरण होता है, इसे डगर (रास्ता) बताने वाला माना जाता है, इसलिये इसे डंगरिया कहा जाता है। जब डंगरिया के शरीर में देवता का अवतरण हो जाता है है तो उसका पूरा शरीर कांपता है और वह सभी दुःखी लोगों की समस्याओं के समाधान बताता है, उसे उस समय देवता की तरह ही शक्ति संपन्न और सर्वफलदायी माना जाता है।
डंगरिया को गढ़वाल तथा कुछ अन्य स्थानों पर ’पस्वा’ या ’धामी’ भी कहा जाता है यह भी देखा गया है कि धामी बनने का यह रिवाज पीढी दर पीढी चलता है अर्थात धामी की उमर हो जाने पर वही देवता धामी के पुत्र पर या परिवार के किसी अन्य सदस्य पर अवतरित होने लगता है धामी या पस्वा लोगो को कई तरह के परहेज रखने होते हैं सामान्यत: धामी लोग हाथ में “कङा” पहनते हैं, देवता शरीर में अवतरण से पहले और देवता के शरीर को मुक्त कर देने के बाद धामी सामान्य मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगते हैं।
डंगरिया या धामी को समाज में मह्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है और सभी उसका आदर और सम्मान करते हैं। इस व्यक्ति की दिनचर्या हमारी तरह सामान्य नहीं होती, उसे रोज स्नान ध्यान कर पूजा करनी होती है, वह सभी जगह खा-पी नहीं सकता। यहां तक कि चाय पीने के लिये भी विशेष ध्यान उसे रखना होता है। उसे हमेशा शुद्ध ही रहना होता है अन्यथा देवता कुपित हो जाते हैं और उस व्यक्ति को दण्ड देते हैं ऎसी मान्यता है। जागर के वक्त भी डंगरिया गो-मूत्र, गंगाजल और गाय के दूध का सेवन कर, शुद्ध होकर ही धूणी में जाते हैं।

स्योंकार-स्योंनाई-

जिस घर में या घर के लोगों द्वारा जागर आयोजित की जाती है, उस घर के मुखिया को स्योंकार या सोन्कार और उसकी पत्नी को स्योंनाई कहा जाता है। यह अपनी समस्या देवता को बताते हैं और देवता के सामने चावल के दाने (जिसे दाणी भी कहते) रखते हैं, देवता चावल के दानों को हाथ में लेकर उनकी समस्या के बारे में जान लेते हैं और उसकी समस्या का कारण तथा समाधान बताते हैं।

जागर के लिये धूणी:-

जागर के लिये धूणी बनाना भी आवश्यक है, इसे बनाने के लिये लोग नहा-धोकर, पंडित जी की अगुवाई में शुद्धतापुर्वक एक शुद्ध स्थान का चयन करते हैं तथा वहां पर गौ-दान किया जाता है। फिर वहां पर गोलाकार भाग में थोड़ी सी खुदाई करके गड्ढा सा बना दिया जाता है जिससे वहां पर राख को एकत्र किया जा सके और वहां पर जलाने के लिए लकड़ियां रखी जाती हैं। लकड़ियों के चारों ओर गाय के गोबर और दीमक वाली मिट्टी ( यदि उपलब्ध न हो तो शुद्ध स्थान की लाल मिट्टी) से उसे लीपा जाता है। फ़िर धूणी में जागर लगाने से पहले स्योंकार द्वारा दीप जलाया जाता है, फिर शंखनाद कर धुणी को प्रज्जवलित किया जाता है। इस धूणी में तथा जागर लगने वाले स्थान पर किसी भी अशुद्ध व्यक्ति के जाने और जूता-चप्पल लेकर जाने का निषेध होता है।

जागर के संचालन का मुख्य कार्य जगरिया करता है और वह अपने व सहयोगियों के गायन-वादन से जागर 
को निम्न आठ चरणों (भागों) में पूर्ण कराता है:-
१- प्रथम चरण - सांझवाली गायन (संध्या वंदन)
२- दूसरा चरण- बिरत्वाई गायन (देवता की बिरुदावली गायन)
३- तीसरा चरण- औसाण (देवता के नृत्य करते समय का गायन व वादन)
४- चौथा चरण- हरिद्वार में गुरु की आरती करना
५- पांचवा चरण- खाक रमण
६- छठा चरण- दाणी का विचार करवाना
७- सातवाँ चरण आशीर्वाद दिलाना, संकट हरण का उपाय बताना, विघ्न-बाधाओं को मिटाना
८- आठवां चरण- देवता को अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत और हिमालय को प्रस्थान कराना

१- प्रथम चरण - सांझवाली गायन (संध्या वंदन)

जागर के प्रथम चरण में जगरिया हुड़्के या ढोल-दमाऊं के वादन के साथ सांझवाली का वर्णन करता है, इस गायन में जगरिया सभी देवी-देवताओं का नाम, उनके निवास स्थानों का नाम और संध्या के समय सम्पूर्ण प्रकृति एवं दैवी कार्यों के स्वतः प्राकृतिक रुप से संचालन का वर्णन करता है। सांझवाली गायन बड़ा लम्बा होता है, जिसे जगरिया धीरे-धीरे गाते हुये पूर्ण करता है। जब जागर का प्रथम चरण, सांझवाली पूर्ण होता है, इसे जगरिया द्वारा हुड़्के या ढोल-दमाऊं पर गाया जाता है। जगरिया वैसे तो कम पढ़ा लिखा या नितान्त अनपढ़ ही होता है, लेकिन अगर हम उसके द्वार गाई जाने वाली सांझवाली का विवेचन करें तो पता चलता है कि वह अन्तर्मन से कितना समृद्ध है। उसकी सांझवली का विस्त्तार तीनों लोकों तक है, जिसमें प्रकृति, ईशवर और हमारे स्थानीय देवताओं के विभिन्न स्वरुपों का विराट रुप में वर्णन है।

२- द्वितीय चरण- बिरत्वाई

इस चरण में जिस देवता की जागर लगाई जाती है या जिस देवता का आह्वान किया जाता है, उस देवता की उत्पत्ति, जीवनी और उसके द्वारा किये गये उन महत्वपूर्ण कार्यों का विवरण जगरिया अपने गायन में करता है। जिसे बिर्त्वाई कह्ते हैं अगर हम बिर्त्वाई शब्द के मूल में जायें तो इसका अर्थ वीरता प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें देवता की वीरता का बखान इस प्रकार किया जाता है कि उसे सामान्य स्तर के व्यक्ति से ऊपर उठाकर देवता बना दिया। इस प्रकार देवता को आह्वानित किया जाता है और जब बिरत्वाई अपने अंत पर पहुंचती है तो डंगरिया के शरीर में कम्पन होने लगता है, इसका अर्थ है कि उसके शरीर में देवता का अवतरण हो शुरु हो गया है, अब जगरिया बिरुदावली को बंद कर औसाण देने लगता है।
३- तृतीय चरण- औसान

इस समय तक डंगरिया के शरीर में देवता की आत्मा का प्रवेश हो चुका होता है तथा देवता को नाचने हेतु प्रेरित करने के लिए जगरिया औसाण देता है। औसान देते समय हुड़्के या अन्य वाद्य यंत्रो की गति बढ़ जाती है, औसान के सन्गीत से मन्त्रमुग्ध होकर देवता अपने पूर्णरुप एवं शक्ति के साथ धूणी के चारों ओर नाचने लगता है। औसाण का हर शब्द देवता में जोश पैदा करता है, इस समय डंगरिया ऎसे ऎसे कार्य कर देता है, जो वह अपने एक साधारण मनुस्य के वास्तविक रूप में कभी भी नही कर सकता। इसी से यह महसूस होता है कि डंगरिया के शरीर में कोई दिव्या शक्ति या देवात्मा प्रवेश कर जाती है।

४- चौथा चरण- गुरु की आरती 

इस चरण में देवता द्वारा गुरु की आरती की जाती है, ऎसा माना जाता है कि हमारे सभी लोकदेवता पवित्र आत्मायें हैं। गुरु गोरखनाथ इनके गुरु हैं और इन सभी देवताओं ने कभी न कभी हरिद्वार जाकर कनखल में गुरु गोरखनाथ जी से दीक्षा ली है। तभी इनको गुरुमुखी देवता कहा जाता है, इस प्रसंग का वर्णन जगरिया अपने गायन द्वारा देवता के समक्ष करता है। इस समय नृत्य करते समय देवता के हाथ में थाली दे दी जाती है और थाली में चावल के दाने, राख, फूल और जली हुई घी की बाती रख दी जाती है, देवता नृत्य करते हुये थाली पकड़्कर अपने गुरुजी की आरती करते हैं।

५- पांचवा चरण- खाक या भिभूति (भभूत) रमाना 

जागर के इस चरण में खाक रमाई जाती है, अपने गुरु की आरती के उपरान्त देवता द्वारा धूणी से राख निकाली जाती है। उसके बाद थाली में रखी हुई राख को देवता सबसे पहले अपने माथे पर लगाते हैं, उसके बाद जगरिया को फिर वाद्य यंत्रों पर राख लगाते हैं। इसके बाद वहां पर बैठे लोग क्रम से देवता के पास जाते हैं और देवता उनके माथे पर राख (भिभूत) लगाकर उनको आशीर्वाद देते हैं।

६- छठा चरण- दाणि का विचार
सभी को भिभूति लगाने के बाद जागर के छठे चरण में देवता स्योंकार की दाणि का विचार करते हैं। दाणी का विचार से मतलब है, जिस घर में देवता का अवतरण किया गया है, उस घर की परेशानी का कारण क्या है? इसी बात पर देवता विचार करते हैं, वह हाथ में चावल के दाने(दाणी) लेकर विचार करते हैं और परेशानी का कारण और उसका समाधान भी बताते हैं।

७- सातवां चरण- आशीर्वाद देना 
स्योंकार-स्योंनाई की दाणी के विचार के बाद जागर के सातवें चरण में देवता स्योंकार-स्योंनाई को आश्वस्त करते हैं कि उन्होने उनके सभी कष्टों को अभी से हर लिया है। उनकी जागर की सफ़ल हुयी है तथा प्रसन्न होकर देवता द्वारा उनके सुखी पारिवारिक जीवन के लिये आशीर्वाद दिया जाता है। वहां पर बैठे सभी लोगों के लिये भी देवता मंगलकामना करते हुये उनको अशीर्वाद देते हैं।

८- आठवां चरण- देवता का अपने निवास के लिये प्रस्थान करना
यह चरण जागर का अंतिम चरण होता है, क्योंकि जिस कार्य के लिये जागर लगाई गई थी वह कार्य पूरा हो जाता है। देवताओं को सूक्ष्मरुपधारी माना गया है और ऎसा माना जाता है कि सभी देवता हिमालय में निवास करते हैं। अतः जगरिया अब अंतिम औसाण (अवसान) देता है और देवता अंतिम बार नाचते हैं और नाचते हुये खुशी खुशी अपने धाम की ओर वापस चले जाते हैं। जगरिया से वह इस बात का वादा करते हैं कि जब भी स्योंकार-स्योंनाई पर संकट होगा, उसके निवारण हेतु वह जरुर आयेंगे।देवता के अपने निवास को प्रस्थान के बाद देवता की आत्मा डंगरिया के शरीर को मुक्त कर देती है। इसके बाद डंगरिया के शरीर में कम्पन बंद हो जाता है और उनका शरीर निढ़ाल सा हो जाता है। थोडी देर लेटे रहने के बाद उन्हें फिर से गंगाजल, गो-मूत्र दिया जाता है, उसके बाद वह सामान्य रुप में आ जाते हैं। यह बड़े आश्चर्य का विषय है कि जागर के समाप्त होने के उपरांत वह व्यक्ति जिसके शरीर में देवता अवतरित होते हैं (डंगरिया), अपने सामान्य रूप में आ जाता है तथा एक सामान्य मनुष्य की तरह ही व्यवहार करता है।

जागर एक पवित्र अनुष्ठान है, जिसमे यह माना जाता है कि देवताओं की आत्मा मनुष्य के शरीर में कुछ अवधि के लिए आकर आयोजनकर्ता के परिवार को आशीर्वाद प्रदान करती है। इसके आयोजन में साफ सफाई, सुचिता और पतित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। किसी भी प्रकार की त्रुटि होने या सुचिता का ध्यान न रखे जाने पर देवता के कोप का भागी होना पड़ सकता है।

एक धार्मिक अनुष्ठान के साथ साथ जागर एक समृद्ध संगीत विधा भी है, इसी कारण उत्तराखंड के सभी लोक गायकों द्वारा जागर का गायन भी किया गया है। जिनकी Music CD बाजार में उपलब्ध है और आप इनको खरीदकर जागर के संगीत का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह संगीत मनोरंजन के लिए न होकर भक्ति भावना के साथ गाया और सुना जाता है। सुनने वालों को भी इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि इससे लोगों के धार्मिक विश्वास कि ठेस नही पहुंचनी चाहिए। क्योंक जागर एक पवित्र अनुष्ठान है इसलिए इसके गायन में भी उसी प्रकार की पवित्रता और सुचिता रखी जानी चाहिए जैसे उसके आयोजन के समय घरों में रखी जाती है।

आधुनिक पीढी के पढ़े- लिखे लोग अब जागर जैसी परम्पराओं पर कम ही विश्वास करते हैं और इसको अंधविश्वास मानते हैं। लेकिन उत्तराखंड में जागर लगाते हुये जिस प्रकार देवता का आह्वान किया जाता है, इस प्रकार के अनुष्ठान विश्व भर में किसी न किसी समय प्रचलित रहे है। व्यक्ति को माध्यम बना कर दैवीय शक्ति के आह्वान के उदाहरण मिश्र, चीन, जापान, अफ्रीका, ब्राजील आदि कई देशों में भी मिलते हैं। वैसे भी अंधविश्वास और श्रद्धा में बहुत थोडा सा ही अन्तर होता है, जिसे उसको जानने वाला ही महसूस आकर सकता है।

कुमाउंनी संस्कृति के विविध रंग हैं जिनमें से एक है यहां की ‘जागर’। उत्तराखंड में ग्वेल, गंगानाथ, हरू, सैम, भोलानाथ, कलविष्ट आदि लोक देवता हैं और जब पूजा के रूप में इन देवताओं की गाथाओं का गान किया जाता है उसे जागर कहते हैं। जागर का अर्थ है ‘जगाने वाला’ और जिस व्यक्ति द्वारा इन देवताओं की शक्तियों को जगाया जाता है उसे ‘जगरिया’ कहते हैं। इसी जगरिये के द्वारा ईश्वरीय बोल बोले जाते हैं। जागर उस व्यक्ति के घर पर करते हैं जो किसी देवी-देवता के लिये जागर करवा रहा हो।
जागर में सबसे ज्यादा जरूरी होता है जगरिया। जगरिया को ही हुड़का और ढोलक आदि वाद्य यंत्रों की सहायता से देवताओं का आह्वान करना होता है। जगरिया देवताओं का आह्वान किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में करता है। जगरिये को गुरू गोरखनाथ का प्रतिनिधि माना जाता है। जगरिये अपनी सहायता के लिये दो-तीन लोगों को और रखते हैं। जो कांसे की थाली को लकड़ियों की सहायता से बजाता है। इसे ‘भग्यार’ कहा जाता है।

जागर में देवताओं का आह्वान करके उन्हें जिनके शरीर में बुलाया जाता है उन्हें ‘डंगरिया’ कहते हैं। ढंगरिये स्त्री और पुरूष दोनों हो सकते हैं। देवता के आह्वान के बाद उन्हें उनके स्थान पर बैठने को कहा जाता है और फिर उनकी आरती उतारी जाती है। जिस स्थान पर जागर होनी होती है उसे भी झाड़-पोछ के साफ किया जाता है। जगरियों और भग्यारों को भी भी डंगरिये के निकट ही बैठाया जाता है।

जागर का आरंभ पंच नाम देवों की आरती द्वारा किया जाता है। शाम के समय जागर में महाभारत का कोई भी आख्यान प्रस्तुत किया जाता है और उसके बाद जिन देवी-देवताओं का आह्वान करना होता है उनकी गाथायें जगरियों द्वारा गायी जाती हैं। जगरिये के गायन से डंगरिये का शरीर धीरे-धीरे झूमने लगता हैं। जागर भी अपने स्वरों को बढ़ाने लगता है और इसी क्षण डंगरिये के शरीर में देवी-देवता आ जाते हैं। जगरिये द्वारा फिर से इन देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। अब डंगरिये नाचने लगते हैं और नाचते-नाचते अपने आसन में बैठ जाते हैं। डंगरिया जगरिये को भी प्रणाम करता है। डंगरिये के समीप चाल के दाने रख दिये जाते हैं जिन्हें हाथों में लेकर डंगरिये भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान के विषय में सभी बातें बताने लगते हैं।
डंगरिये से सवाल पूछने का काम उस घर के व्यक्ति करते हैं जिस घर में जागर लगायी जाती है। बाहरी व्यक्ति भी अपने सवाल इन डंगरियों से पूछते हैं। डंगरिये द्वारा सभी सवालों के जवाब दिये जाते हैं और यदि घर में किसी तरह का कष्ट है तो उसके निवारण का तरीका भी डंगरिये द्वारा ही बताया जाता है। जागर के अंत में जगरिया इन डंगरियों को कैलाश पर्वत की तरफ प्रस्थान करने को कहता है। और डंगरिया धीरे-धीरे नाचना बंद कर देता है।

जागर का आयोजन ज्यादातर चैत्र, आसाढ़, मार्गशीर्ष महीनों में किया जाता है। जागर एक, तीन और पांच रात्रि तक चलती है। सामुहिक रूप से करने पर जागर 22 दिन तक चलती है जिसे ‘बैसी’ कहा जाता है।

वैसे तो आधुनिक युग के अनुसार इन सबको अंधविश्वास ही कहा जायेगा। पर ग्रामीण इलाकों में यह परम्परा आज भी जीवित है और लोगों का मानना है कि जागर लगाने से बहुत से लोगों के कष्ट दूर हुए हैं। उन लोगों के इस अटूट विश्वास को देखते हुए इन परम्पराओं पर विश्वास करने का मन तो होता ही है।

Wednesday 20 August 2014

देवी गिरिजा माता ! देवी गिरिजा जो गिरिराज हिमालय की पुत्री तथा संसार के पालनहार भगवान शंकर की अर्द्धागिनी हैं


रामनगर से १० कि०मी० की दूरी पर ढिकाला मार्ग पर गर्जिया नामक स्थान पर देवी गिरिजा माता के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी गिरिजा जो गिरिराज हिमालय की पुत्री तथा संसार के पालनहार भगवान शंकर की अर्द्धागिनी हैं, कोसी (कौशिकी) नदी के मध्य एक टीले पर यह मंदिर स्थित है। वर्ष १९४० तक इस मन्दिर के विषय में कम ही लोगों को ज्ञात था, वर्तमान में गिरिजा माता की कृपा से अनुकम्पित भक्तों की संख्या लाखों में पहुंच गई है। इस मन्दिर का व्यवस्थित तरीके से निर्माण १९७० में किया गया। जिसमें मन्दिर के वर्तमान पुजारी पं० पूर्णचंद्र पाण्डे का महत्वपूर्ण प्रयास रहा है। इस मंदिर के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिये इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि को भी जानना आवश्यक है।

पुरातत्ववेत्ताओं का कथन है कि कूर्मांचल की सबसे प्राचीन बस्ती ढिकुली के पास थी, जहां पर वर्तमान रामनगर बसा हुआ है। कोसी के किनारे बसी इसी नगरी का नाम तब वैराट पत्तन या वैराटनगर था। कत्यूरी राजाओं के आने के पूर्व यहां पहले कुरु राजवंश के राजा राज्य करते थे, जो प्राचीन इन्द्रप्रस्थ (आधुनिक दिल्ली) के साम्राज्य की छत्रछाया में रहते थे। ढिकुली, गर्जिया क्षेत्र का लगभग ३००० वर्षों का अपना इतिहास रहा है, प्रख्यात कत्यूरी राजवंश, चंद राजवंश, गोरखा वंश और अंग्रेजी शासकों ने यहां की पवित्र भूमि का सुख भोगा है। गर्जिया नामक शक्तिस्थल सन १९४० से पहले उपेक्षित अवस्था में था, किन्तु सन १९४० से पहले की भी अनेक दन्तश्रुतियां इस स्थान का इतिहास बताती हैं। वर्ष १९४० से पूर्व इस मन्दिर की स्थिति आज की जैसी नहीं थी, कालान्तर में इस देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था। तत्कालीन जनमानस कीदधारणा थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था। मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देख भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- “थि रौ, बैणा थि रौ। (ठहरो, बहन ठहरो), यहां पर मेरे साथ निवास करो, तभी से गर्जिया में देवी उपटा में निवास कर रही है।

लोक मान्यता है कि वर्ष १९४० से पूर्व यह क्षेत्र भयंकर जंगलों से भरा पड़ा था, सर्वप्रथम जंगलात विभाग के तत्कालीन कर्मचारियों तथा स्थानीय छुट-पुट निवासियों द्वारा टीले पर मूर्तियों को देखा और उन्हें माता जगजननी की इस स्थान पर उपस्थिति का एहसास हुआ। एकान्त सुनसान जंगली क्षेत्र, टीले के नीचे बहते कोसी की प्रबल धारा, घास-फूस की सहायता से ऊपर टीले तक चढ़ना, जंगली जानवरों की भयंकर गर्जना के बावजूद भी भक्तजन इस स्थान पर मां के दर्शनों के लिये आने लगे। जंगलात के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी यहां पर आये, कहा जाता है कि टीले के पास मां दुर्गा का वाहन शेर भयंकर गर्जना किया करता था। कई बार शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुये भी लोगों द्वारा देखा गया।

भगवान शिव की अर्धांगिनि मां पार्वती का एक नाम गिरिजा भी है, गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उन्हें इस नाम से भी बुलाया जाता है। इस मन्दिर में मां गिरिजा देवी के सतोगुणी रुप में विद्यमान है। जो सच्ची श्रद्धा से ही प्रसन्न हो जाती हैं, यहां पर जटा नारियल, लाल वस्त्र, सिन्दूर, धूप, दीप आदि चढ़ा कर वन्दना की जाती है। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु घण्टी या छत्र चढ़ाते हैं।  नव विवाहित स्त्रियां यहां पर आकर अटल सुहाग की कामना करती हैं। निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिये माता में चरणों में झोली फैलाते हैं।

वर्तमान में इस मंदिर में गर्जिया माता की ४.५ फिट ऊंची मूर्ति स्थापित है, इसके साथ ही सरस्वती, गणेश जी तथा बटुक भैरव की संगमरमर की मूर्तियां मुख्य मूर्ति के साथ स्थापित हैं।
 इसी परिसर में एक लक्ष्मी नारायण मंदिर भी स्थापित है, इस मंदिर में स्थापित मूर्ति यहीं पर हुई खुदाई के दौरान मिली थी।

कार्तिक पूर्णिमा को गंगा स्नान के पावन पर्व पर माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पतित पावनी कौशिकी (कोसी) नदी में स्नानार्थ भक्तों की भारी संख्या में भीड़ उमड़ती है। इसके अतिरिक्त गंगा दशहरा, नव दुर्गा, शिवरात्रि, उत्तरायणी, बसंत पंचमी में भी काफी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं।

पूजा के विधान के अन्तर्गत माता गिरिजा की पूजा करने के उपरान्त बाबा भैरव ( जो माता के मूल में संस्थित है) को चावल और मास (उड़द) की दाल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करना आवश्यक माना जाता है, कहा जाता है कि भैरव की पूजा के बाद ही मां गिरिजा देवी की पूजा का सम्पूर्ण फ्ल प्राप्त होता है।

रामनगर तक रेल और बस सेवा उपलब्ध है, उससे आगे के लिये टैक्सी आराम से मिल जाती है। रामनगर में रहने और खाने के लिये कई स्तरीय होटल उपलब्ध है। आप यहां से जिम कार्बेट पार्क भी जा सकते हैं।

Saturday 16 August 2014

मध्यमहेश्वर मंदिर- इस मंदिर में भक्त भगवान शिव के पेट की पूजा करते हैं



हिंदू भगवान शिव को समर्पित मध्यमहेश्वर मंदिर चोपटा में मंसुना के गांव में स्थित है। यह मंदिर समुद्र तल से 3497 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पंच केदारों में केदारनाथ, तुंगनाथ रुद्रनाथ मध्यमहेश्वर और कल्पेश्वर चोटियों के क्रम में शामिल हैं। इस प्रकार, मंदिर पंच केदार तीर्थ यात्रा में चौथे स्थान पर आता है।
इस मंदिर में भक्त भगवान शिव के पेट की पूजा करते हैं। एक आम धारणा के अनुसार, यह मंदिर हिंदू महाकाव्य महाभारत के पौराणिक पात्र पांडवों के द्वारा बनाया गया था। यह माना जाता है कि पांडवों जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में उनके चचेरे भाई कौरवों की हत्या के दोषी थे, भगवान शिव से माफी की तलाश में गए थे।
हालांकि गुस्से में भगवान शिव ने खुद को नंदी बैल के रूम में तब्दील किया और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में छिपा दिया। जब पांडवों ने गुप्तकाशी में बैल को देखा, तब उन्होंने उसे रोकने की जबरन कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बाद में भगवान शिव के शरीर के अंग पांच अलग - अलग स्थानों पर दुबारा प्रकट हुए। मध्यमहेश्वर मंदिर का निर्माण ऐसी जगह में किया गया है जहाँ माना जाता है की भगवन शिव के पेट की खोज की गयी थी।
मार्कंडेय गंगा मध्यमहेश्वर के जल विभाजक के पूर्वी ढ़लान पर मंदिर स्थित है जो कि स्थापत्य के दृष्टिकोण से पंच केदारों में सर्वाधिक आकर्षक है। मंदिर शिखर स्वर्ण कलश से अलंकृत है। मंदिर के पृष्ठभाग में कालीमठ रांसी की भाँति हर-गौरी की आकर्षक मूर्तियाँ विराजमान हैं साथ ही छोटे मंदिर में पार्वती जी की मूर्ति विराजित है। मंदिर के मध्य भाग में नाभि क्षेत्र के सदृश्य एक लिंग है, जिसके संबंध में केदारखंड पुराण में शिव पार्वती जी को समझाते हुए कहते हैं कि मध्यमहेश्वर लिंग त्रिलोक में गुप्त रखने योग्य है, जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य सदैव स्वर्ग में निवास करना प्राप्त करता है।

मध्यमहेश्वर से किमी के मखमली घास पुष्प से अलंकृत ढालों को पार कर बूढ़ा मध्यमहेश्वर पहुँचा जाता है। यहाँ पर क्षेत्रपाल देवता का मंदिर भी है जिसमें धातु निर्मित मूर्ति विराजित है। इसी से आगे ताम्रपात्र में प्राचीन काल के सिक्के भी रखे हैं। मध्यमहेश्वर पहुँचने के लिए गुप्तकाशी (१४७९ मीटर से किमी जीप मार्ग तयकर कालीमठ (१४६३ मीटर) पहुँचना होता है जहाँ काली माँ का गोलाकार मंदिर है। कालीमठ से मध्यमहेश्वर दूरी २३ किमी है।

कुमाऊं की पहाड़ियों में बसा मुक्तेश्वर उत्तराखंड का एक खूबसूरत हिल स्टेशन है मुक्तेश्वर! उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में स्थित है यहाँ से नंदा देवी त्रिशूल आदि हिमालय पर्वतों की चोटियाँ दिखती हैं यहाँ शिवजी का मन्दिर है इसमें जाने के लिये सीढियाँ हैं चूंकि मुक्तेश्वर एक छोटा- सा हिल स्टेशन है इसलिए यहां रहने और खाने के ढेर सारे ऑप्शन तो नहीं मिलेंगे पर रहने - खाने की कोई परेशानी पियासीनहींहोती है मुक्तेश्वर के आस- पास देखने के लिए ढेर सारी जगह हैं यहां से अल्मोड़ा बिन्सर और नैनीताल पास ही हैं!भगवान शिव का ये मंदिर मुक्तेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है एक छोटी पहाड़ी पर बने इस मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 100 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं यहां भगवान शिव के साथ ब्रह्मा विष्णु पार्वती हनुमान और नंदी जी पियासी विराजमान हैं मंदिर के बाहर लंगूरों का जमावड़ा लगा रहता है !

वैसे तो यहां साल में कभी भी जाया जा सकता है परंतु यहां जाने का उचित समय मार्च से जून और अक्टूबर से नवंबर तक है अगर गर्मियों में यहां जाएं तो हल्के ऊनी कपड़े और सर्दियों में जाएं तो भारी ऊनी कपड़े साथ ले जाएं मुक्तेश्वर प्राकृतिक वैभव में समृद्ध शानदार विचारों के साथ हिमालय की लुभावनी दृश्य आज्ञाओं और नंदा देवी भारत के दूसरे सर्वोच्च शिखर असर कुमाऊं वाणी पर्यावरण कृषि मौसम संस्कृति और स्थानीय भाषा में और समुदायों की सक्रिय भागीदारी के साथ शिक्षा पर हवा के कार्यक्रमों के लिए करना है


मुक्तेश्वर निरीक्षण बंगले मुक्तेश्वर में लोक निर्माण विभाग निरीक्षण बंगला एक वास्तुकला आश्चर्य है यह मुक्तेश्वर मंदिर के पास स्थित है और शहर में एक मील का पत्थर है बंगला हरे भरे परिवेश और सुंदर विचारों जो इसे एक हिल स्टेशन में देखना चाहिए बनाता है वास्तव में मुक्तेश्वर में रहने के लिए अगर आप दिन के एक जोड़े के लिए लंगड़ा कर रहे हैं यह सही जगह है अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता और सुंदर वास्तुकला के साथ धन्य है बंगला एक अनूठा आकर्षण है हिमालय के दृश्य हिमालय के शानदार दृश्य एक महान पर्यटक आकर्षण के रूप में यह हिमालय के एक जादुई दृश्य देता है