Tuesday 12 August 2014

राजजात या नन्दाजात देवी नन्दा की अपने मैत (मायके) से एक सजीं संवरी दुल्हन के रुप में ससुराल जाने की यात्रा है।



नंदादेवी राजजात नंदादेवी राजजात उत्तराखंड की एक ऐसी ऐतिहासिक धरोहर है, जो भूमि की सांस्कृतिक विरासत की महक चारों ओर बिखेर देती है। जात का अर्थ होता है देवयात्रा, अतः नंदा राजजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नंदादेवी की यात्रा। यह यात्रा इष्ट देव भूमि में मानव और देवताओं के संबंधो की अनूठी दास्तान है। यह यात्रा पहाड़ के कठोर जीवन का आइना है तो पहाड़ी में ध्याणी (विवाहित बेटी-बहन) के संघर्षों की कहानी भी है।


राजजात या नन्दाजात देवी नन्दा की अपने मैत (मायके) से एक सजीं संवरी दुल्हन के रुप में ससुराल जाने की यात्रा है। ससुराल को स्थानीय भाषा में सौरास कहते हैं। इस अवसर पर नन्दादेवी को सजाकर डोली में बिठाकर एवं वस्र,आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज आदि उपहार देकर पारम्परिक की विदाई की तरह विदा किया जाता है।
इस यात्रा में लगभग 280 किलोमीटर की दूरी, नौटी से होमकुण्ड तक,पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।यात्रा की कठिनता और दुरुहता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाणगांव से आगे रिणकीधार से यात्रियों को नंगे पांव चलकर लगभग 17000 फीट की ऊँचाई पार करनी पड़ती है।रिणकीधार से आगे यात्रा में काफी प्रतिबन्ध भी है जैसे स्रियाँ, बच्चे, गाजे-बाजे, इत्यादि निसिद्ध है।

सम्भवत :- यह विश्व की सबसे लम्बी, दुर्गम ओर कठिन धर्मयात्रा है।इसे केवल समर्पित एवं निष्ठावान व्यक्ति ही कर सकते हैं।हजारों श्रद्धालु आज भी इस यात्रा को पूरा करते हैं |
लोक इतिहास के अनुसार नंदा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुंमाऊ के कत्युरी राजवंश की इष्टदेवी थी। इष्टदेवी होने के कारण नंदादेवी को राजराजेश्वरी कहकर संबोधित किया जाता है। नंदादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परंतु कहीं-कहीं नंदादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नंदा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तरांचल में समान रूप से पूजे जाने के कारण नंदादेवी को समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा जाता है। रूपकुंड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्धि विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नंदा जागरी (नंदादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयां करते हैं।
 राजजात की शुरूआत आठवीं सदी के आसपास हुई बताई जाती है। यह वह काल था जब आदिगुरु शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना की थी। लोक इतिहास के अनुसार नंदा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुंमाऊ के कत्युरी राजवंश की इष्टदेवी थी। इष्टदेवी होने के कारण नंदादेवी को राजराजेश्वरी कहकर संबोधित किया जाता है। नंदादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परंतु कहीं-कहीं नंदादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नंदा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तरांचल में समान रूप से पूजे जाने के कारण नंदादेवी को समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा जाता है। रूपकुंड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्धि विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नंदा जागरी (नंदादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयां करते हैं।

नंदादेवी से जुड़ी जात (यात्रा) दो प्रकार की हैं। वार्षिक जात और राजजात। वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितंबर माह में होती है जो कुरूड़ के नंदा मंदिर से शुरू होकर वेदनी कुंड तक जाती है और फिर लौट आती है, लेकिन राजजात 12 वर्ष या उससे अधिक समयांतराल में होती है। मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के नौटीगांव से शुरू होती है और कुरूड़ के मंदिर से भी दशोली और बधाड़ की डोलियां राजजात के लिए निकलती हैं। नौटी से होमकुंड तक की लगभग 250 किलोमीटर की दूरी की यह यात्रा पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों, पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है। अलग-अलग रास्तों से ये डोलियां यात्रा में मिलती है। इसके अलावा गांव-गांव से डोलियां और छतौलियां भी इस यात्रा में शामिल होती है।

 कुमाऊं (कुमांयू) से भी अल्मोड़ा, कटारमल और नैनीताल से डोलियां नंदकेशरी में आकर राजजात में शामिल होती है। नौटी से शुरू हुई इस यात्रा का दूसरा पड़ाव इड़ा-बधाणीं है। फिर यात्रा लौटकर नौटी आती है। इसके बाद कासुंवा, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपड़ों, लोहाजंग, वाण, बेदनी, पातर नचैणियां से विश्व-विख्यात रूपकुंड, शिला-समुद्र, होमकुंड से चनण्याॅघट (चंदिन्याघाट), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है। यह दूरी करीब 280 किमी. है। इस राजजात में चैसिंग्या खाडू (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है जो कि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है। उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, शंृगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जो कि होमकुंड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चैसिंग्या खाडू आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।

 वर्ष 2000 में इस राजजात को व्यापक प्रचार मिला और देश-विदेश के हजारों लोग इसमें शामिल हुए थे। राजजात उत्तराखंड की समग्र संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इसी लिये 26 जनवरी 2005 को उत्तरांचल राज्य की झांकी राजजात पर निकाली गई थी। पिछले कुछ वर्षों से पर्यटन विभाग द्वारा रूपकुंड महोत्सव का आयोजन भी किया जा रहा है। स्थानीय लोगों ने इस यात्रा के सफल संचालन हेतु श्री नंदादेवी राजजात समिति का गठन भी किया है। इस सीमिति के तत्वावधान में नंदादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है।

परंपरा के अनुसार वसंत पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरंभ होता है। इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुवरों के अलावा अन्य संबंधित पक्षों जैसे बधाण के 14 सयाने, चान्दपुर के 12 थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केंद्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है।  

मान्यताओं के अनुसार राजजात तब होती है जब देवी का दोष (प्रकोप) लगने के लक्षण दिखाई देते हैं। ध्याणी (विवाहित बेटी-बहन) भूमिया देवी ऊफराई की पूजा करती है इसे मौड़वी कहा जाता है। ध्याणीयां यात्रा निकालती है, जिसे डोल जातरा कहा जाता है। कासुंआ के कुंवर (राज वंशज) नौटी गांव जाकर राजजात की मनौती करते हैं। कुंवर रिंगाल की छतोली (छतरी) और चैसिंग्या खाडू (चार सींगों वाला भेड़) लेकर आते हैं। चैसिंगा खाडू का जन्म लेना राजजात की एक खास बात है। नौटियाल और कुंवर लोग नंदा के उपहार को चैसिंग खाडू की पीठ पर होमकुंड तक ले जाते हैं। वहां से खाडू अकेला ही आगे बढ़ जाता है। खाडू के जन्म के साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनायें शुरू हो जाती है। जिस गौशाला में यह जन्म लेता है उसी दिन से वहां शेर आना प्रारंभ कर देता है और जब तक खाडू का मालिक उसे राजजात को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक शेर लगातार आता ही रहता है।

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