Tuesday 29 July 2014

वीरांगना तीलू रौतेली-अपूर्व शौर्य ,संकल्प और साहस की धनी



वीर भोग्य वसुंधरा के भारतीय इतिहास के प्राचीन और अर्वाचीन पन्नो को पलटें तो स्वर्णाक्षरों में अंकित वीर- वीरांगनाओं की अनगिनत कहानियां खुद ब खुद अपनी चमक बिखेर उठती है |भारत भूमि का कोई भी भू भाग ऐसा नहीं है जिसने वीर-वीरांगनाओ की फसल न उगाई हो |लेकिन बात यदि देवभूमि उत्तराखंड के सन्दर्भ में की जाय तो बात इसलिए भी मायने रखती है कि इस कठिन परिवेश में पहाड़ो का हौंसला रखने वाले न जाने कितने वीरों ने अपनी मातृभूमि के लिए जीवन उत्सर्ग कर दिया लेकिन इतिहास में उन्हें समुचित स्थान प्राप्त नहीं हो पाया और शायद स्थान प्राप्ति का उनका कोई उद्देश्य था भी नहीं| उन्ही वीर वीरांगनाओ में उत्तराखंड के चौन्दकोट गढ़ी के गुराड गाँव में गोर्ला रावतो के वंश में सत्रहवीं सदी में उत्पन्न तीलू रौतेली का नाम प्रमुखता से लिया जाता है |अपूर्व शौर्य ,संकल्प और साहस की धनी इस वीरांगना को गढ़वाल के इतिहास में झांसी की रानी कहकर याद किया जाता है | १५ से २२ वर्ष की आयु के मध्य सात वर्षो तक लगातार युद्ध लड़ने वाली तीलू संभवत: विश्व की एकमात्र वीरांगना है | तीलू रौतेली थोकदार भूप सिंह गोर्ला की पुत्री थी |१५ वर्ष की आयु में ही तीलू की मंगनी ईडा गाँव के भुप्पा नेगी के पुत्र के साथ हो गयी थी किन्तु नियति के क्रूर हाथों तीलू के पिता ,मंगेतर और दो भाईयों भगतु और पत्वा के प्राण कत्युरी राजा धामशाही और खैरागढ़ के मानशाही के मध्य हुए युद्ध के पश्चात कत्यूरियों के विरुद्ध युद्धोत्तर विद्रोह में समय पूर्व ही युद्ध भूमि में न्यौछावर हो गए थे | तीलू के लिए यह समय अत्यंत दुखदायी और कठिन परीक्षा का था | युवावस्था की दहलीज पर खड़ी तीलू कांडा में प्रतिवर्ष होने वाले मेले में, जहाँ पर उसके पिता और भाइयों का वध हुआ था, अपनी सहेलियों के साथ जाना चाहती थी लेकिन उसकी माँ ने क्रोधित होकर उससे उसके पिता और भाइयों के तर्पण हेतु धामशाही का खून लाने को कहा | उम्र के उस दौर में जब ह्रदय की सुकोमल संकल्पनाएँ अपनी ऊँचाइयों पर उड़ान भर रही होती है, तब तीलू हाथों में तलवार लिए शत्रुओं का मान मर्दन करने के लिए उठ खड़ी हुई | ठीक उसी तरह जिस तरह झाँसी की रानी अपनी सहेली झलकारी बाई के साथ अंग्रेजो से लोहा लिया था,शस्त्रों से लैस सैनिको तथा बिंदुली नाम की काले रंग की घोड़ी और सहेलियों बेल्लू और देवली को साथ लेकर उसने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी |सबसे पहले उसने खैरागढ़ को कत्यूरियों से मुक्त कराया |उसके बाद उमटागढ़ी पर धावा बोला,फिर वह अपने सैन्य दल के साथ सल्ट महादेव पहुंची |वहां से भी शत्रुओ का विनाश कर भिलंण भौण की ओर प्रस्थान किया लेकिन दुर्भाग्य से तीलू की दोनों प्रिय सहेलियों को इस युद्ध में मृत्यु का आलिंगन करना पड़ा |चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित करने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस लौट आई |कलिंका खाल में उसका शत्रुओ के साथ भीषण संग्राम हुआ |सराईखेत के युद्ध में उसने कई कत्यूरियों को मौत के घाट उतारकर अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया,यहीं पर उसकी बिंदुली घोड़ी शत्रु दल का शिकार भी बनी | इसके उपरान्त तल्ला कांडा शिविर के समीप पूर्वी नयार नदी के तट पर स्नान कर रही थी तो एक शत्रु सैनिक रामू रजवार ने धोखे से तीलू पर तलवार से वार कर दिया | नयार नदी तीलू के रक्त में रंग उठी थी और इसके साथ ही उस वीर बाला का अंत हो चुका था | |…बीरोंखाल में उसकी आदमकद मूर्ति आज भी उस वीर बाला की याद दिलाती है | तीलू कि याद में रण भूत नचाया जाता है . जबतीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रण भूत /पश्वा जैसे शिब्बूपोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु -पत्तू सखियाँ , नेगी सरदार आदि के पश्वाओंको भी नचाया जाता है . सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं |
जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रण भूत /पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु -पत्तू सखियाँ , नेगी सरदार आदि के पश्वाओं को भी नचाया जाता है . सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं”

ओ तू साक्षी रैली पंच पाल देव
कालिका की देवी लंगडिया भैरों
ताडासर देव , अमर तीलु, सिंगनी शार्दूला धका धै धै |
जब तक भूमि , सूरज आसमान
तीलु रौतेली की तब तक याद रैली
धका धे धे तीलु रौतेली धका धै धै तीलु रौतेली धका धै धै |

एक किंवदंति के अनुसार १९६२ में भारत-चीन युद्ध के समय ७२ घंटे तक लगातार कई मोर्चो से एक साथ अकेले ही चीनियों से लोहा लेने वाले और मरणोपरांत महावीर चक्र प्राप्त पौड़ी गढ़वाल के गोर्ला राजपूत रायफल मैन जसवंत सिंह की अरुणाचल प्रदेश के नूर नांग पर्वत श्रेणियों में देवदूत स्वरूपा शीला नाम की जिस कन्या ने साये की तरह उसकी सहायता कर गोला बारूद और भोजन आदि की व्यवस्था कर उसे अकेले होने का अहसास तक नहीं होने दिया, वो और कोई नहीं उनकी पूर्वज वीर बाला तीलू रौतेली की आत्मा ही थी |.. किंवदंति कितनी सही है या गलत, लेकिन इतनी कम उम्र में उसके द्वारा प्रदर्शित अप्रतिम शौर्य , साहस और बलिदान को इतिहास में सदा ही याद रखा जायेगा |

Wednesday 23 July 2014

वीर रानी का वीर पुत्र ग्वाल देवता


          गोरिया दूदाधारी छै, कृष्ण अबतारी छै ।मामू को अगवानी छै, पंचनाम द्याप्तोंक भांणिज छै,


भगवान् ग्वेलज्यू की प्रसिद्द मन्दिर चम्पावत, चितई (अल्मोड़ा),तथा घोडाखाल (नैनीताल) हैं.
जनश्रुतियों के अनुसार चम्पावत मैं कत्यूरीवंशी राजा झालुराई का राज था.इनकी सात रानियाँ थी. राज्य मैं चहुंओर खुशहाली थी,सभी प्रजाजन खुश थे दुखी थे - तो केवल राजा झालुराई.
राजा की सात रानियाँ परन्तु सात रानियाँ के होते हुए भी राजा नि:संतान थे.उन्हें हर वक्त यही बात कचोटती रहती थी कि मेरे बाद मेरा वंश कैसे आगे बढेगा?राजा इसी चिंता मैं डूबे रहते. कुछ दिन बाद राजा ने अपने राजज्योतिषी से अपनी व्यथा कही.राज ज्योतिषी ने सुझाव दिया कि महाराज! आप भैरव को प्रसन्न करें, आपको अवश्य ही सन्तानसुख प्राप्त होगा.

राजा ने भैरव पूजा का आयोजन किया और भगवान भैरव को प्रसन्न करने का प्रयास किया.
एक दिन स्वप्न मैं भैरव ने इन्हे दर्शन दिए और कहा - तुम्हारे भाग्य मैं संतान सुख नही है -
मैं तुझ पर कृपा कर के स्वयं तेरे घर मैं जन्म लूँगा, परन्तु इसके लिए तुझे आठवीं शादी करनी होगी, क्यौं की तुम्हारी अन्य रानियाँ मुझे गर्भा मैं धारण करने योग्य नही हैं. राजा यह सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने भगवान भैरव का आभार मानकर अपनी आठवीं रानी प्राप्त करने का प्रयास किया.एक दिन राजा झालुराई शिकार करते हुए जंगल मैं बहुत दूर निकल गए.उन्हें बड़े जोरों की प्यास लगी. अपने सैनिकों को पानी लाने का निर्देश देते हुए वो प्याससे बोझिल हो एक वृक्ष की छाँव मैं बैठ गए. बहुत देर तक जब सैनिक पानी ले कर नहीआए तो राजा स्वयं उठकर पानी की खोज मैं गए. दूर एक तालाब देखकर राजा उसी और चले.

वहाँ पहुंचकर राजा ने अपने सैनिकों को बेहोश पाया.राजा ने ज्योंही पानी को छुआ उन्हें एक नारी स्वर सुनाई दिया - यह तालाब मेरा है -तुम बिना मेरी अनुमति के इसका जल नही पी सकते. तुम्हारे सैनिकों ने यही गलती की थीइसी कारण इनकी यह दशा हुई. टैब राजा ने देखा - अत्यन्त सुंदरी एक नारी उनके सामने खड़ी है.राजा कुछ देर उसे एकटक देखते रह गए तब राजा ने उस नारी को अपना परिचय देते हुए कहा -मैं गढी चम्पावत का राजा झालुराई हूँ और यह मेरे सैनिक हैं. प्यास के कारण मैंने ही इन्हे पानीलाने के लिए भेजा था. हे सुंदरी !मैं आपका परिचय जानना चाहता हूँ,टैब उस नारी ने कहा की मैं पंचदेव देवताओं की बाहें कलिंगा हूँ.अगर आप राजा हैं - तो बलशाली भी होंगे -जरा उन दो लड़ते हुए भैंसों को छुडाओ टैब मैं मानूंगी की आप गढी चम्पावत के राजा हैं.राजा उन दोनों भैसों के युद्ध को देखते हुए समझ नही पाये की इन्हे कैसे छुड़ाया जाय.राजा हार मान गए.तब उस सुंदरी ने उन दोनों भैसों के सींग पकड़कर उन्हें छुडा दिया.राजाआश्चर्यचकित थे उस नारी के इस करतब पर - तभी वहाँ पंचदेव पधारे और राजा नेउनसे कलिंगा का विवाह प्रस्ताव किया. पंच्देवों ने मिलकर कलिंगा का विवाह राजा के साथकर दिया और राजा को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया.रानी कलिंगा अत्यन्त रूपमती एवं धर्मपरायण थी. राजा उसे अपनी राजधानी धूमाकोट मैं रानी बनाकर ले आए.

जब सातों रानियों ने देखा की अब तो राजा अपनी आठवीं रानी से ही ज्यादा प्रेम करने लग गए हैं,तो सौतिया डाह एवं ईर्ष्या से जलने लगीं.कुछ समय बाद यह सुअवसर भी आया जब रानी कलिंगा गर्भवती हुई. राजा की खुशी का कोई पारावार न था.वह एक-एक दिन गिनते हुए बालक के जन्म की प्रतीक्षा करने लगे.उत्साह और उमंग की एक लहर सी दौड़ने लगी. परन्तु वे इस बात से अनजान थे,की सातों सौतिया रानियाँ किस षड्यंत्र का ताना बाना बुन रही हैं. सातों सौतनों ने कलिंगा के गर्भ को समाप्त करने की योजना बना ली थी और कलिंगा के साथ झूठी प्रेम भावना प्रदर्शित करने लगीं. कलिंगा के मन मैं उन्होंने गर्भ के विषय मैं तरह - तरह की डरावनी बातें भर दी और यह भी कह दिया की हमने एक बहुत बड़े ज्योतिषी से तुम्हारे गर्भ के बारे मैं पूछा - उसके कथनानुसार रानी को अपने नवजात शिशु को देखना उसके तथा बच्चे के हित मैं नही होगा.
जब रानी कलिंगा का प्रसव काल आया तो उन सातोम सौतों ने उसकी आंखों में पट्टी बांध दी और बालक को किसी भी तरह मारने का षडयंत्र सोचने लगी। जहां रानी कलिंगा का प्रसव हुआ, उसके नीचे वाले कक्ष में बड़ी-बड़ी गायें रहती थीं। सौतों ने बालक के पैदा होते ही उसे गायों के कक्ष में डाल दिया, ताकि गायों के पैरों के नीचे आकर बालक दब-कुचल्कर मर जाये। परन्तु बालक तो अवतारी था, सौतेली मांओं के इस कृत्य का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह गायों का दूध पीकर प्रसन्न मुद्रा में किलकारियां मारने लगा। रानी कलिंगा की आंखों की पट्टियां खोली गईं और सौतों ने उनसे कहा कि “प्रसव के रुप में तुमने इस सिलबट्टे को जन्म दिया है”,उस सिलबट्टे को सातों सौतों ने रक्त से सानकर पहले से ही तैयार कर रखा था।उसके बाद सातों सौतों ने उस बालक को कंटीले बिच्छू घास में डाल दिया, परन्तु यहां भी बालक को उन्होंने कुछ समय बाद हंसता-मुस्कुराता पाया। तदुपरांत एक और उपाय खोजा गया कि इस बालक को नमक के ढेर में डालकर दबा दिया जाय और यही प्रयत्न किया गया, परन्तु उस असाधारण बालक के लिये वह नमक का ढेर शक्कर में बदल दिया और वह बालक रानियों के इस प्रयास को भी निरर्थक कर गया।अंत में जब सातों रानियों ने देखा कि बालक हमारे इतने प्रयासों के बावजूद जिंदा है तो उन्होंने एक लोहे का बक्सा मंगाया और उस संदूक में उस अवतारी बालक को लिटाकर, संदूक को बंदकर उसे काली नदी में बहा दिया, ताकि बालक निश्चित रुप से मर जाये।

यहां भी उस बालक ने अपने चमत्कार से उस संदूक को डूबने नहीं दिया और सात दिन, सात रात बहते-बहते वह संदूक आठवें दिन गोरीहाट में पहुंचा गौरीहाट पर उस दिन भाना नाम के मछुवारे के जाल में वह संदूक फंस गया। भाना ने सोचा कि आज बहुत बड़ी मछली जाल में फंस गई है, उसने जोर लगाकर जाल को खींचा तो उसमें एक लोहे के संदूक देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया। संदूक को खोलकर जब उसने हाथ-पांव हिलाते बालक को देखा तो उसने अपनी पत्नी को आवाज देकर बुलाया। मछुआरा निःसंतान था, अतएव पुत्र को पाकर वह दम्पत्ति निहाल हो गया और भगवान के चमत्कार और प्रसाद के आगे नतमस्तक हो गया।
निःसंतान मछुवारे को संतान क्या मिली मानि उसकी दुनिया ही बदल गयी। बालक के लालन-पालन में ही उसका दिन बीत जाता। दोनों पति-पत्नी बस उस बालक की मनोहारी बाल लीला में खोये रहते, वह बालक भी अद्भूत मेधावी था।

एक दिन उस बालक ने पने असली मां-बाप को सपने में देखा। मां कलिंगा को रोते-बिलखते यह कहते देखा कि- तू ही मेरा बालक है- तू ही मेरा पुत्र है। धीरे-धीरे उसने सपने में अपने जन्म की एक-एक घटनायें देखीं, वह सोच-विचार में डूब गया कि आखिर मैं किसका पुत्र हूं?

उसने सपने की बात की सच्चाई का पता लगाने का निश्चय कर लिया। एक दिन उस बालक ने अपने पालक पिता से कहा कि मुझे एक घोड़ा चाहिये, निर्धन मछुआरा कहां से घोड़ा ला पाता।उसने एक बढ़ई से कहकर अपने पुत्र का मन रखने के लिये काठ का एक घोड़ा बनवा दिया। बालक चमत्कारी तो था ही, उसने उस काठ के घोड़े में प्राण डाल दिये और फिर वह उस घोड़े में बैठ कर दूर-दूर तक घूमने निकल पड़ता।
घूमते-घूमते एक दिन वह बालक राजा झालूराई की राजधानी धूमाकोट में पहुंचा और घोड़े को एक नौले (जलाशय) के पास बांधकर सुस्ताने लगा। वह जलाशय रानियों का स्नानागार भी था। 

सातों रानियां आपस में बात कर रहीं थीं और रानी कलिंगा के साथ किये अपने कुकृत्यों का बखान कर रहीं थी। बालक को मारने में किसने कितना सहयोग दिया और कलिंगा को सिलबट्टा दिखाने तक का पूरा हाल एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर सुनाया। बालक उनकी बात सुनकर सोचने लगा कि वास्तव में उस सपने की एक-एक बात सच है, वह अपने काठ के घोड़े को लेकर नौले तक गया और रानियों से कहने लगा कि पीछे हटिये-पीछे हटिये, मेरे घोड़े को पानी पीना है। सातों रानियां उसकी वेवकूफी भरी बातों पर हसने लगी और बोली- कैसा बुद्धू है रे तू! कहीं काठ का घोड़ा भी पानी पी सकता है? बालक ने तुरन्त जबाव दिया कि क्या कोई स्त्री सिलबट्टे को जन्म दे सकती है? सभी रानियों के मुंह खुले के खुले रह गये, वे अपने बर्तन छोड़कर राजमहल की ओर भागी और राजा से उस बालक की अभ्रदता की झूठी शिकायतें करने लगी।

राजा ने उस बालक को पकड़वा कर उससे पूछा “यह क्या पागलपन है,तुम एक काठ के घोड़े को कैसे पानी पिला सकते हो?” बालक ने कहा “महाराज जिस राजा के राज्य में स्त्री सिलबट्टा पैदा कर सकती है तो यह काठ का घोड़ा भी पानी पी सकता है” तब बालक ने अपने जन्म की घटनाओं का पूरा वर्णन राजा के सामने किया और कहा कि ” न केवल मेरी मां कलिंगा के साथ गोर अन्याय हुआ है महाराज! बल्कि आप भी ठगे गये हैं” तब राजा ने सातों रानियों को बंदीगृह में डाल देने की आग्या दी। सातों रानियां रानी कलिंगा से अपने किये के लिये क्षमा मांगने लगी और आत्म्ग्लानि से लज्जित होकर रोने-गिड़गिडा़ने लगी। तब उस बालक ने अपने पिता को समझाकर उन्हें माफ कर देने का अनुरोध किया। राजा ने उन्हें दासियों की भांति जीवन यापन करने के लिये छोड़ दिया। यही बालक बड़ा होकर ग्वेल, गोलू, बाला गोरिया तथा गौर भैरव नाम से प्रसिद्ध हुआ।

ग्वेल नाम इसलिये पड़ा कि इन्होंने अपने राज्य में जनता की एक रक्षक के रुप में रक्षा की और हर विपत्ति में ये जनता की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से रक्षा करते थे।गौरी हाट में ये मछुवारे को संदूक में मिले थे, इसलिये बाला गोरिया कहलाये। भैरव रुप में इन्हें शक्तियां प्राप्त थीं और इनका रंग अत्यन्त सफेद होने के कारण इन्हें गौर भैरव भी कहा जाता है।

Tuesday 22 July 2014

हम सब हो गए हैं चलती-फिरती दुकानें

जो संसार में आया है उसे एक न एक दिन जरूर जाना है। इस सत्य को न कोई अस्वीकार कर सकता है, न झुठला सकता है। हम जब आए थे तब भी नंग-धडं़ग थे और जाएंगे तब भी साथ कुछ नहीं होगा, वही नंग-धडं़ग। अन्तर होगा सिर्फ हमारे आकार में। अन्यथा जन्म से मृत्यु तक की यात्रा में कुछ भी खोया-पाया अपने लिए नहीं होता। जो पाया होता है वह यही छोड़ जाना पड़ता है और जो खोया है वह भी यहीं का होता है, अपना न कुछ रहा है, न रहने वाला है।

इसके बावजूद हमारी नियति यही है कि हम इस प्रकार से जीवन को हाँकते हैं कि जैसे सब कुछ साथ ले जाने के लिए ही जमा कर रहे हों। सत्य को झुठलाना और जिन्दगी भर भ्रमित रहते हुए जीना कोई सीखे तो आदमी से। हमेशा वह सत्य से दूर भागता है और असत्य, अनाचार, अधर्म का आचरण करता रहता है।

उस ज्ञान, बुद्धि और विवेक और विकास का क्या अर्थ है जिसमें हम उन सारे कर्मों को करते रहें जो नित्य नहीं हैं, शाश्वत नहीं हैं और सत्य भी नहीं। जीवन आनंद और मस्ती से जीने के लिए है और अपनी आजीविका चलाने भर तक के जुगाड़ के उपरान्त जो कुछ है वह अपना नहीं बल्कि उस समाज और क्षेत्र का है जहाँ की मिट्टी ने हमें पाला-पोसा और बड़ा किया है। उन सभी पंचतत्वों को इसी बात की प्रतीक्षा रहती है कि जिनसे यह पुतला बना हुआ है वह पंचतत्वों का मान रखे और अनासक्त जीवनयापन करता हुआ सृष्टि के लिए अपनी उपादेयता सिद्ध करे और अन्ततः यादगार मिथकों और संस्मरणों के साथ खुशी-खुशी विदा हो ले, अगली यात्रा के लिए।

हर इंसान अपने आप में ईश्वर की वह श्रेष्ठतम कृति है जिसमें वह सब कुछ माल-मसाला भरा हुआ है जो समष्टि और व्यष्टि के काम आ सकता है और इसका निष्काम भाव से उपयोग करे तो हर इंसान लौटते समय ईश्वर के सामीप्य और परम आनंद को प्राप्त करने की स्थिति पा सकता है।

हम सभी में मेधा-प्रज्ञा, हुनर, कल्पनाशीलता, मानवीय संवेदनाएं, आदर्श, सिद्धान्त और बेहतर जीवनपद्धति के अनुगमन, लोक कल्याण, सामाजिक सरोकारों के प्रति वफादारीपूर्वक चिंतन आदि सब कुछ तो परिपूर्ण मात्रा में भरा हुआ है फिर वह कौनसा तत्व है जिसकी वजह से हम न कुछ कर पा रहे हैं, न कुछ दिखा पा रहे हैं।

एक-दूसरे से छीनाझपटी और हड़पाऊ कल्चर से लेकर हम उन सारे कामों में लगे हुए हैं जो इंसानियत के दायरों से कोसों दूर है। मानवजाति की सभी समस्याओं की जड़ हमारी धंधेबाजी मानसिकता है। ईश्वर ने जो दिया है उसी में हम सभी संतोष कर लें तो दुनिया की कोई सी समस्या कभी रहे ही नहीं, यह धरा ही स्वर्ग बन जाए। लेकिन ऎसा न पहले हुआ है, न होगा।

कारण स्पष्ट है कि इंसान में संतोष की बजाय स्वार्थ घुस आया है, सेवा की बजाय हमारी सारी मानसिकता धंधेबाजी हो गई है। और एक बार जब हम अपने आपको, अपनी सोच और क्रियाओं को धंधे से जोड़ लिया करते हैं तब हम इंसान नहीं होकर कारोबारी का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। जब एक बार हम अपने आपको धंधे का सहचर बना लेते हैं तब हम वे सारे काम करने लग जाते हैं जिनका संबंध मुनाफे से होता है।

हम अपने घर-परिवार और कुटुम्ब से लेकर क्षेत्र और देश से जुड़ी हर गतिविधि में मुनाफा तलाशते हुए भागते-फिरते हैं और वे ही काम करते हैं जिनमें मुनाफा कमाने की उम्मीद हो, मुनाफा न हो तो हम अपने माँ-बाप को भी खाना न दें। कितने माँ-बाप ऎसे हैं जो अपने खाने-पीने और घर में रहने के लिए अपने उन बच्चों को माहवार पैसे देते हैं जिन बच्चोें को उन्होंने पैदा किया, बड़ा किया और योग्य बनाया। हम पत्नी भी वहां से लाने की कोशिश करते हैं जहाँ अधिक से अधिक दहेज मिले। असल में हम पत्नी से ब्याह नहीं करते, संसाधनों और पैसों से परिणय सूत्र में बंधते हैं।

हमें इस बात की भी कोई परवाह नहीं होती कि हमारे भाई-बंधु, माता-बहनें और हमारे आस-पास रहने वाले लोग किन हालातों में गुजर-बसर कर रहे हैं, उनकी क्या समस्याएं हैं, किन अभावों में वे जी रहे हैं और उन्हें क्या आवश्यकता है। धंधों ने हमारे मन को मलीन कर दिया है, मस्तिष्क को विकृत कर दिया है और हमारे संस्कारों का हमेशा-हमेशा के लिए भस्मीभूत ही करके रख दिया है जहाँ उनके पुनर्जीवन की अब कोई संभावना शेष रही ही नहीं।

कुछ दशक पहले तक हम समाज के लिए जीते थे, समाज सेवा करते हुए हमें आत्मतोष व असीम आनंद की अनुभूति होती थी लेकिन आज हम धंधेबाज हो गए हैं, समाज सेवा से हमारा कोई वास्ता नहीं रहा। इस धंधेबाजी सफलता के बावजूद आज हम खुश नहीं हैं, श्वानों की तरह दौड़ लगा रहे हैं, खूब कमा रहे है, खूब जमा कर रहे हैं फिर भी न संतोष मिल रहा है, न आनंद। और तो और हमें नींद लाने तक के लिए गोलियों का सहारा लेना पड़ रहा है।

इस भागदौड़ का क्या अर्थ है जिसमें उद्विग्नता, अशांति और असंतोष का सागर हमेशा हिलोरें लेता रहकर मन को अशांत करता रहे, तन को बीमारियों का डायग्नोस्टिक सेंटर बना डाले और मस्तिष्क में खुराफातों के ज्वालामुखी लावा उगलते रहें।

अपनी सारी बीमारियों की जड़ यही है कि हम सभी लोग धंधेबाज हो गए हैं। मकान भी बनाएंगे, तो पहले दुकानों की नींव रखेंगे, किसी से बात भी करेंगे तो अपने स्वार्थ से, कोई सा काम भी करेंगे तो पहले यह पूछ ही लेंगे कि क्या मिलेगा। हम कुछ भी करते हैं तब पहले इसी की टोह लेते हैं कि इससे हासिल क्या होगा। हमें सामाजिक सरोकारों की कोई परवाह नहीं है हम पैसा चाहते हैं या पब्लिसिटी या दोनों ही।

इन दिनों हमारा हर कर्म और व्यवहार धंधेबाजी के कोहरे में लिपटा हुआ है। यों कहें कि समाज और मातृभूमि के लिए जीने वाला आदमी अब खुद एक धंधा हो गया है तो कोई अनुचित नहीं होगा। हम सारे के सारे चलती-फिरती दुकानों में तब्दील हो गए हैं जहाँ हमें हमेशा उनकी तलाश बनी रहती है जो हमें मुनाफा दे सकें, दलाली दे सकें और बिना मेहनत के वो सब कुछ दे सकें जो हमें वैभवशाली का दर्जा तो दे ही दें, भोग-विलास और प्रतिष्ठा भी मिल जाए ताकि हम अपने अधिनायकवादी स्वरूप को औरों पर थोंपकर अपने आपके बहुत कुछ होने का दंभ भर सकें।

हम इस धंधेबाजी मानसिकता को थोड़ी देर के लिए किसी अटारी पर रख कर सोचें तो अपने आप हमें अहसास हो जाएगा कि हमारे जीवन का क्या मकसद है और जो कुछ कर रहे हैं वह कितना जायज है। हम सभी लोगों को अपनी मौत याद रखनी चाहिए और इस सत्य का हमेशा स्मरण बना रहना चाहिए कि साथ कुछ भी नहीं जाने वाला सिवाय पुण्य के। जो हमेशा साथ रहता है उसकी हम उपेक्षा कर देते हैं, जो अनित्य है उससे बंधे रखते हैं, यही संसार की विचित्र गति है। सेवा या धंधा …. दो में से एक को चुन लें। चुनना हमें ही है।

डॉ. दीपक आचार्य

Monday 21 July 2014

400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर - ऐसी हकीकत जिससे कम लोग ही वाकिफ होंगे




केदारनाथ मंदिर की एक और ऐसी हकीकत जिससे कम लोग ही वाकिफ होंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था, लेकिन फिर भी उसे कुछ नहीं हुआ। इसीलिए जियोलॉजिस्ट और वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं हैं कि ताजा जलप्रलय में केदारनाथ मंदिर बच गया। 400 साल तक बर्फ के नीचे दबा था केदारनाथ मंदिर, चार सौ साल तक ग्लेशियर से ढंका था केदारनाथ मंदिर। चार सौ साल तक ग्लेशियर के भयानक बोझ को सह चुका है केदारनाथ मंदिर। जी हां, ये कहना है देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का। शायद यही वजह है कि केदारनाथ मंदिर को जल प्रलय के थपेड़ों से कोई नुकसान नहीं हुआ।

केदारनाथ मंदिर के पत्थरों पर पीली रेखाएं हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये निशान दरअसल ग्लेशियर के रगड़ से बने हैं। ग्लेशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं और जब वो खिसकते हैं तो उनके साथ न सिर्फ बर्फ का वजन होता है बल्कि साथ में वो जितनी चीजें लिए चलते हैं वो भी रगड़ खाती हुई चलती हैं। अब सोचिए जब करीब 400 साल तक मंदिर ग्लेशियर से दबा रहा होगा तो इस दौरान ग्लेशियर की कितनी रगड़ इन पत्थरों ने झेली होगी। वैज्ञानिकों के मुताबिक मंदिर के अंदर की दीवारों पर भी इसके साफ निशान हैं। बाहर की ओर पत्थरों पर ये रगड़ दिखती है तो अंदर की तरफ पत्थर ज्यादा समतल हैं जैसे उन्हें पॉलिश किया गया हो।

दरअसल 1300 से लेकर 1900 ईसवीं के दौर को लिटिल आईस एज यानि छोटा हिमयुग कहा जाता है। इसकी वजह है इस दौरान धरती के एक बड़े हिस्से का एक बार फिर बर्फ से ढंक जाना। माना जाता है कि इसी दौरान केदारनाथ मंदिर और ये पूरा इलाका बर्फ से दब गया और केदारनाथ धाम का ये इलाका भी ग्लेशियर बन गया। केदारनाथ मंदिर की उम्र को लेकर कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलते। इस बेहद मजबूत मंदिर को बनाया किसने इसे लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ कहते हैं कि 1076 से लेकर 1099 विक्रमसंवत तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने ये मंदिर बनवाया था। तो कुछ कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में ये मंदिर आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। बताया जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने मौजूदा केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे एक मंदिर बनवाया था। लेकिन वो वक्त के थपेड़े सह न सका। वैसे गढ़वाल विकास निगम के मुताबिक मंदिर आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानि छोटे हिमयुग का दौर जो कि 1300 ईसवी से शुरू हुआ उससे पहले ही मंदिर बन चुका था।

वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके की लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग भी की, लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग एक तकनीक है जिसके जरिए पत्थरों और ग्लेशियर के जरिए उस जगह की उम्र का अंदाजा लगता है। ये दरअसल उस जगह के शैवाल और कवक को मिलाकर उनके जरिए समय का अनुमान लगाने की तकनीक है। लाइकोनोमेट्रिक डेटिंग के मुताबिक छोटे हिमयुग के दौरान केदारनाथ धाम इलाके में ग्लेशियर का निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ। और इस घाटी में ग्लेशियर का बनना 1748 ईसवीं तक जारी रहा। अगर 400 साल तक ये मंदिर ग्लेशियर के बोझ को सह चुका है और सैलाब के थपेड़ों को झेलकर बच चुका है तो जाहिर है इसे बनाने की तकनीक भी बेहद खास रही होगी। जाहिर है शायद इसे बनाते वक्त इन बातों का ध्यान रखा गया होगा कि ये कहां है क्या ये बर्फ, ग्लेशियर और सैलाब के थपेड़ों को सह सकता है।

दरअसल केदारनाथ का ये पूरा इलाका चोराबरी ग्लेशियर का हिस्सा है। ये पूरा इलाका केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब 22 हजार फीट ऊंचा केदारनाथ। दूसरी तरफ है 21,600 फीट ऊंचा खर्चकुंड। तीसरी तरफ है 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णद्वरी। वैसे इसमें से कई नदियों को काल्पनिक माना जाता है। लेकिन यहां इस इलाके में मंदाकिनी का राज है यानि सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी। जब इस मंदिर की नींव रखी गई होगी तब भी शिव भाव का ध्यान रखा गया होगा। शिव जहां रक्षक हैं वहीं शिव विनाशक भी हैं। इसीलिए शिव की आराधना के इस स्थल को खास तौर पर बनाया गया। ताकि वो रक्षा भी कर सके और विनाश भी झेल सके। 85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई हैं। मंदिर को 6 फीट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है।

ये हैरतअंगेज है कि इतने साल पहले इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर, यूं तराश कर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। जानकारों का मानना है कि केदारनाथ मंदिर को बनाने में, बड़े पत्थरों को एक दूसरे में फिट करने में इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा। ये तकनीक ही नदी के बीचों बीच खड़े मंदिरों को भी सदियों तक अपनी जगह पर रखने में कामयाब रही है।

लेकिन ताजा जल प्रलय के बाद अब वैज्ञानिकों को इस बात का खतरा सता रहा है कि लगातार पिघलते ग्लेशियर की वजह से। ऊपर पहाड़ों में मौजूद सरोवर लगातार बढ़ते जा रहे हैं और जैसा कि केदारनाथ में हुआ। गांधी सरोवर ज्यादा पानी से फट कर नीचे सैलाब की शक्ल में आया। वैसा आगे भी हो सकता है और अगर मंदिर पहाड़ों से गिरे इस चट्टानों के लीधे ज़द में आ गया तो उसे बड़ा नुकसान हो सकता है। साथ ही ये खतरा केदारनाथ घाटी पर हमेशा के लिए मंडराता रहेगा।

Thursday 17 July 2014

आज भी जीवित हैं जसवंत सिंह रावत






युद्ध स्मारक गाता है शहीद जसवंत सिंह रावत की शौर्यगाथा :-
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उत्तराखंड देवभूमि के साथ साथ वीरभूमि भी है)

जसवंतगढ़ (अरुणाचल प्रदेश) गुवाहाटी से तवांग जाने के रास्ते में लगभग 12,000 फीट की ऊंचाई पर बना जसवंत युद्ध स्मारक भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध में शहीद हुए महावीर चक्र विजेता सूबेदार जसवंत सिंह रावत के शौर्य बलिदान की गाथा बयां करता है। रास्ते में जगह-जगह वीर सैनिकों के नाम से चोटियों के नाम हैं। जसवंत गढ़ 11000 फुट की ऊंचाई पर है। तेजपुर से जसवंत गढ़ 280 किलोमीटर पर स्थित है तथा बोमडिला से तवांग 180 किलोमीटर दूर है।

उनकी शहादत की कहानी आज भी यहां पहुंचने वालों के रोंगटे खड़े करती है और उनसे जुड़ी किंवदंतियां हर राहगीर को रुकने और उन्हें नमन करने को मजबूर करती हैं।1962 के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी सच्चाइयां बहुत कम लोगों को पता हैं। उन्होंने अकेले 72 घंटे चीनी सैनिकों का मुकाबला किया और विभिन्न चौकियों से दुश्मनों पर लगातार हमले करते रहे। जसवंत सिंह से जुड़ा यह वाकया 17 नवम्बर 1962 का है, जब चीनी सेना तवांग से आगे निकलते हुए नूरानांग पहुंच गई। इसी दिन नूरानांग में भारतीय सेना की चौथी गढ़वाल राइफल्स और चीनी सैनिकों के बीच लड़ाई शुरू हुई और तब तक परमवीर चक्र विजेता जोगिंदर सिंह, लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और राइफलमैन गोपाल सिंह गोसाईं सहित सैकड़ों सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।
गढ़वाल राइफल के चतुर्थ बटालियन में तैनात जसवंत सिंह रावत ने अकेले नूरानांग का मोर्चा संभाला और लगातार तीन दिनों तक वह विभिन्न बंकरों में जाकर गोलीबारी करते रहे और उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी।

सूबेदार कुलदीप सिंह बताते हैं कि जसंवत सिंह की ओर से विभिन्न बंकरों से जब गोलीबारी की जाती तब चीनी सैनिकों को लगता कि यहां भारी संख्या में भारतीय सैनिक मौजूद हैं। इसके बाद चीनी सैनिकों ने अपनी रणनीति बदलते हुए उस सेक्टर को चारों ओर से घेर लिया। तीन दिन बाद जसवंत सिंह चीनी सैनिकों से घिर गए।
जब चीनी सैनिकों ने देखा कि एक अकेले सैनिक ने तीन दिनों तक उनकी नाक में दम कर रखा था तो इस खीझ में चीनियों ने जसवंत सिंह को बंधक बना लिया और जब कुछ मिला तो टेलीफोन तार के सहारे उन्हें फांसी पर लटका दिया। फिर उनका सिर काटकर अपने साथ ले गए। जसवंत सिंह ने इस लड़ाई के दौरान कम से कम 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा था।
जसवंत सिंह की इस शहादत को संजोए रखने के लिए 19 गढ़वाल राइफल ने यह युद्ध स्मारक बनवाया। स्मारक के एक छोर पर एक जसवंत मंदिर भी बनाया गया है। जसवंत की शहादत के गवाह बने टेलीफोन के तार और वह पेड़ जिस पर उन्हें फांसी से
लटकाया गया था, आज भी मौजूद है। जसवंत गढ़ में जसवंत का बंकर, बिस्तर भी स्मारक के रूप में स्थित है। जसवंत के अलावा उन अन्य वीर सैनिकों की स्मृति भी जीवंत रखी गई है, जो जसवंत के साथ यहां शहीद हुए थे।

आज भी जीवित हैं जसवंत सिंह रावत :-

जसवंत सिंह लोहे की चादरों से बने जिन कमरों में रहा करते थे, उसे स्मारक का मुख्य केंद्र बनाया गया। इस कमरे में आज भी रात के वक्त उनके कपड़े को प्रेस करके और जूतों को पॉलिश करके रखा जाता है।
जसवंत सिंह की शहादत से जुड़ी कुछ किंवदंतियां भी हैं। इसी में एक है कि जब रात को उनके कपड़ों और जूतों को रखा जाता था और लोग जब सुबह उसे देखते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि किसी व्यक्ति ने उन पोशाकों और जूतों का इस्तेमाल किया है।
कुलदीप सिंह बताते हैं कि इस पोस्ट पर तैनात किसी सैनिक को जब झपकी आती है तो कोई उन्हें यह कहकर थप्पड़ मारता है कि जगे रहो, सीमाओं की सुरक्षा तुम्हारे हाथ में है।
इतना ही नहीं, एक किंवदंती यह भी है कि उस राह से गुजरने वाला कोई राहगीर उनकी शहादत स्थली पर बगैर नमन किए आगे बढ़ता है तो उसे कोई कोई नुकसान जरूर होता है। हर ड्राइवर अपनी यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए जसवंतगढ़ में जरूर रुकता है।

यह जसवंत सिंह की वीरता ही थी कि भारत सरकार ने उनकी शहादत के बाद भी सेवानिवृत्ति की उम्र तक उन्हें उसी प्रकार से पदोन्नति दी, जैसा उन्हें जीवित होने पर दी जाती थी। भारतीय सेना में अपने आप में यह मिसाल है कि शहीद होने के बाद भी उन्हें समयवार पदोन्नति दी जाती रही। मतलब वह सिपाही के रूप में सेना से जुड़े और सूबेदार के पद पर रहते हुए शहीद हुए लेकिन सेवानिवृत्त लगभग 40 साल बाद हुए।

बहरहाल, जसवंत सिंह के इस युद्ध स्मारक की देखरेख 10वें सिख रेजीमेंट के हाथों में है। यहां आने वाले हर व्यक्ति के लिए यह रेजीमेंट खाना चाय और लंगर की व्यवस्था करता है। यह जसवंत सिंह की शहादत है जिसे ध्यान में रखकर चाय की पहली प्याली, नाश्ते का हर पहला प्लेट और भोजन की सारी व्यवस्था का पहला भोग जसवंत सिंह को ही लगाया जाता है।

शैला और नूरा की शहादत भी कम नहीं :-

नूरानांग के इस युद्ध के दौरान शैला और नूरा नाम की दो लड़कियों की शहादत को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। जसवंत सिंह जब युद्ध में अकेले डटे थे तो इन्हीं दोनों ने शस्त्र और असलहे उन्हें उपलब्ध कराए। जो भारतीय सैनिक शहीद होते उनके हथियारों को वह लाती और जसवंत सिंह को समर्पित करती और उन्हीं हथियारों से जसवंत सिंह ने लगातार 72 घंटे चीनी सैनिकों को अपने पास भी फटकने नहीं दिया और अंतत: वह भारत माता की गोद में लिपट गए और इतिहास में अपने नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया। शहीद होते समय जसवंत की उम्र मात्र 22 वर्ष थी।