Saturday 14 February 2015

कैसे हुआ राजशाही का अंत व गढ़वाल का दमन !30 नवम्बर 1815 को गढ़वाल दो हिस्सों में बट गया

उत्तराखण्ड भारत वर्ष का उत्तरी क्षेत्र और हिमालय का तराई वाला भाग है। जो कि पांच भागों में विभाजित है। प्रथम भाग नेपाल, दूसरा कुमांऊ तीसरा केदारखण्ड चौथा जालन्धर तथा पंजाब का पर्वतीय भाग और पांचवा कश्मीर, इन पांचों भागों में से केदार खण्ड गढ़वाल के नाम से जाना जाता है तथा गढ़वाल शब्द का अर्थ है गढ़वाल गढ़ शब्द उन पहाड़ी किलों का सूचक है जो चट्टानों पर पोप जाते हैं। यह किले पहले छोटें-छोटें ठाकुरी राजाओं, सरदारों और थोकदारों के हुआ करते थे। गढ़वाल में कुल 52 गढ़ थे। 



गढ़वाल के पंवार वैसी राजाओं का इतिहास सन 888 ई० में महाराजा कनकपाल से आरम्भ हुआ। तब से सन 1947 तक यहां पर 59 राजाओं ने शासन किया। सन 1500 ईसवी से पहले का इतिहास क्रम वहां कहीं नहीं मिला है। अध्याये इस काल तक यहां अनेकों राजाओं ने राज किया। लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में यह समय अंधकार युग में ही माना जायेगा। पंवार वंशी राजाओं के बारे में अब तक सत्रह वंशावलियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अवलोकन से पता चलता है कि कनकपाल से आगे राजाओं के नामों और शासन काल के राजाओं के नामों और शासनकाल के बारे में एक स्पता नहीं है। अजय पाल सन 1500 से 1547 के बाद के राजाओं के नामों और शासन काल के बारे में एक स्पता है वहीं सन 1510 र्इ. में महाराजा अजयपाल ने गढ़वाल के सभी ठाकुरी राजाओं सरदारों के गठों को विजय प्राप्त कर एक राज्य स्थापित किया और उसका नाम गढ़वाल रखा। राजगद्दी पर बैठते ही उन्हें एक प्रबल शत्रु से युद्ध करना पड़ा। क्योंकि चम्पावत के राजा गढ़वाल के सीमान्त प्रदेश वाद्याण पर चढ़ आया था महाराजा अजय पाल सेना लेकर उससे युद्ध करने आए। परन्तु उसे मुंह की खानी पड़ी राजा भाग कर एक पर्वत पर चढ़ कर एकाग्र हो कर एक पाव पर खड़ा रहा और भगवान भोलेनाथ का स्मरण करने लगा कहते हैं कि राजा को इस प्रकार अटल-अचल खड़ा देख कर भगवान भूतनाथ राजा पर प्रसन्न हुए और गुरु गोरख नाथ के रूप में राजा को दर्शन दिये। उन्होंने राजा को कहा कि मेरे कन्धे पर बैठ जा और राजा कन्धों पर बैठा गया। गोरख नाथ ने अपने शरीर को इतना बढ़ाया कि राजा की दृष्टि उधर हिमालय तक और इधर शिवालिक श्रेणी तक पहुंची। राजा धबराया और निचे उतार देने का अनुरोध किया।

गोरख नाथ ने अपने शरीर को छोटा कर राजा को उतार दिया और यह कहकर अदृश्य हो गये कि जहां तक तेरी दृष्टि पड़ी है वहां तक तेरा राज्य हो जायेगा। जा तू शत्रु से पुन: लड़ाई कर तथा राजा ने उत्साहित होकर रही सेना को इक्ठा कर शत्रु से ऐसा संग्राम किया कि शत्रु़ के पांव उखड़ गये राजा ने शत्रु का पिछा किया और चम्पावत का कुछ भाग भी हस्त-गत कर दिया। महाराजा अजय पाल ने सन 1512 में राजधानी चान्दपुर के किले से उठाकर देवलगढ़ में बसाई पर वहां से कुछ दिन बाद पुन: सन 1517 ई में अपनी राजधानी अलकनन्दा के वाम पर श्रीनगर में बसाई उसका नाम श्रीयंत्र होने से श्रीनगर रखा जो अब तक विद्यमान है। एक किवंदती के अनुसार राजा एक दिन केवल गढ़ से शिकार खेलने उस उजड़ भूमि में आया। जहां पर अब श्रीनगर है। वहां राजा अजयपाल ने एक आखेटी कुत्ते ने एक शासक को मार डाला राजा को आश्र्चय हुआ। रात को मॉ भगवती ने राजा को स्वप्न में कहा यह परम सिद्ध स्थान पर अपनी राजधानी स्थापित कर और नित्य मेरे यन्त्र की पूजा अर्चना करते रहता, वहां अलकनन्दा के मध्य में एक शिला (पत्थर पर) श्री यन्त्र है उसी के प्रभाव से खरगोश ने कुत्ते को भापा है। तेरी सब बाते सिद्ध होगी।

इस को देखने ने राजा ने सन 1517 ई में श्रीनगर में राजधानी बसाई थी। राजा अजयपाल ने सीमाएं सिधारीत की परमेंन पट्रिटयों को ठीक किया। 37 वर्षो तक शासन करके 59 वर्ष की आयु में वे पंचतत्व में विलीन हो गये। महाराजा अजयपाल की मृत्यु के बाद उनका पुत्र कल्याण शाह गद्दी पर बैठा। वह भी केवल 10 वर्ष राज करके 40 वर्ष की अवस्था में संसार से चल बसा। इसके पश्चात 15 राजाओं ने राज किया । सन् 1717 से 1803 ई तक महाराजा प्रधुम्नशाह का शासन रहा परन्तु 1803 ई फरवरी माह में गोरखा सेना अमर सिंह थापा व हस्तिदल (चौतरियां जो नेपाल के राजा का चाचा था ) की अध्यक्षता में गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। कुंमाऊ पर उनका पहले ही शासन था। राजा प्रद्युम्नशाह को परास्त कर गोरखाओं का शासन स्थापित किया। गोरखाओं ने मात्र 13 वर्ष 1815 तक गढ़वाल पर राज्य किया। इसके अत्याचारों से समस्त गढ़वाल वासी व जनता दु:खी थी। लोग अपने घरों को छोड़ गुफाओं में छुपा करते थे। गोरखा राजा से मुक्ति पाने के लिए महराजा प्रद्युम्नशाह के उत्तराधिकारी महाराज सुदर्शन शाह ने अग्रेंजों से सहायता मांगी।

अंग्रेजों ने गढ़वाल की सहायता की और गोरखा राज से मुक्ति दिलाई।इसके बदले में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने महाराजा सुदर्शन शाह से अत्यधिक धनराशि की मांग की। असमर्थता के कारण राजा मांगी गई धनराशि नहीं दे सका। अत: 30 नवम्बर 1815 को गढ़वाल दो हिस्सों में बट गया। गंगा के पार राजा के अधिन टिहरी बन गया। और गंगा के इस पार का हिस्सा अंग्रेजों के अधिन ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से कहा जाने लगा।

अंग्रेजों के अधिन आने पर उन्होंने गढ़वाल या गढ़वाल न पुकारकर उच्चारण की सुविधा से इसे गढ़वाल नाम से पुकारा तभी से टिहरी तथा ब्रिटिश गढ़वाल इसी नाम से पुकारे जा रहे हैं। समय ने कारण ही देश स्वतन्त्र हुआ। राजवाड़ें समाप्त हुए। अब ब्रिटिश गढ़वाल पौड़ी गढ़वाल के नाम से जाने जाने लगा।