Monday 30 March 2015

प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर !उत्तराखंड में एक ऐसा अनोखा मंदिर है जहां से चोरी करने पर मनोकामना पूरी होती है।



प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर 

उत्तराखंड में एक ऐसा अनोखा मंदिर है जहां से चोरी करने पर मनोकामना पूरी होती है। रुड़की के चुड़ियाला गांव स्थित प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर में नवरात्रों के मौके पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ रही है।
क्षेत्रवासियों के अलावा दूर दराज से श्रद्धालु आकर मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर माता के दर्शन कर मन्नतें मांग रहे हैं। मंदिर के पुजारी पंडित अनिरुद्ध शर्मा के अनुसार यह प्राचीन मंदिर सिद्धपीठ के रूप में मान्यता रखता है।

पुत्र प्राप्ति को लोकड़ा चढ़ाने की है प्रथा

पुत्र प्रप्ति की इच्छा रखने वाले दंपति मंदिर में आकर माता के चरणों से लोकड़ा (लकड़ी का गुड्डा) चोरी करके अपने साथ ले जाते हैं और पुत्र रत्न प्राप्ति के बाद अषाढ़ माह में अपने पुत्र के साथ ढोल नगड़ों सहित मां के दरबार मे पहुंचते हैं।

जहां भंडारे के साथ ही दम्पति ले जाए हुए लोकड़े के साथ ही एक अन्य लोकड़ा भी अपने पुत्र के हाथों से चढ़ाने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। गांव की प्रत्येक बेटियां भी विवाह के पश्चात पुत्र प्राप्ति के बाद लोकड़ा चढ़वाना नहीं भूलती है।

यहां के बारे में कहा जाता है कि माता सती के पिता राजा दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किए जाने से क्षुब्ध माता सती ने यज्ञ में कूदकर यज्ञ को विध्वंस कर दिया था।
भगवान शिव जिस समय माता सती के मृत शरीर को उठाकर ले जा रहे थे, उसी समय माता सती का चूड़ा इस घनघोर जंगल में गिर गया था। इस मान्यता के साथ यहां माता की पिंडी स्थापित होने के साथ ही भव्य मंदिर का निर्माण किया गया।

यह प्राचीन सिद्ध पीठ मंदिर कालांतर से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। यहां माता के दर्शन करने के लिए श्रद्धालु दूर दराज से आते हैं। इन दिनों मंदिर में भव्य मेले का आयोजन भी होता है।

एक बार लंढौरा रियासत के राजा जंगल में शिकार करने आए हुए थे।जंगल में घूमते-घूमते उन्हें माता की पिंडी के दर्शन हुए। राजा के यहां कोई पुत्र नहीं था। राजा ने उसी समय माता से पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी। पुत्र प्राप्ति के बाद राजा ने सन् 1805 में मंदिर का भव्य निर्माण कराया। देवी के दर्शनों के लिए उपस्थित हुई रानी ने माता शक्ति कुंड की सीढ़ियां बनवाई।

शेर भी रोजाना टेकने आते थे पिंडी पर मत्था
जहां आज भव्य मंदिर बना हुआ है। यहां घनघोर जंगल हुआ करता था। जहां शेरों की दहाड़ सुनाई पड़ती थी। पुराने जानकार बताते हैं कि माता की पिंडी पर रोजाना शेर भी मत्था टेकने के लिए आते थे।

बाबा बण्खंडी का भी है धाम
माता चुड़ामणि के अटूट भक्त रहे बाबा बण्खंडी का भी मंदिर परिसर में समाधि स्थल है। बताया जाता है कि बाबा बण्खंडी महान भक्त एंव संत हुए हैं। इन्होंने सन् 1909 में माता की भक्ति में लीन होते हुए समाधि ले ली थी।

Thursday 19 March 2015

"अंडर द स्काई" उत्तराखंड में बनी फिल्म अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई !!पहली बार उत्तराखंड की किसी फिल्म को इतना बड़ा मुकाम मिल रहा है।



उत्तराखंड में बनी और यहीं के कलाकारों की फिल्म ‘अंडर द स्काई’ अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई है। इस बात से प्रदेश के लोगों में खुशी की लहर है।

यह प्रदेश की पहली ऐसी फिल्म है, जिसे दुनिया के मंच पर छाने का मौका मिला है। फिल्म की खास बात ये है कि इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाले दो बच्चे हल्द्वानी के हैं। फिल्म जून में देशभर में रिलीज होगी।

मूलरूप से पिथौरागढ़ के रहने वाले एहसान बख्श फिल्म के निर्देशक हैं। बुधवार को दून पहुंचे एहसान ने बताया कि वह अपने राज्य को देश ही नहीं विदेश में भी पहचान दिलाना चाहते हैं।

उन्होंने न सिर्फ पिथौरागढ़ में 90 मिनट की फिल्म की शूटिंग की, बल्कि इस फिल्म को अब तक अमेरिका, इटली, फ्रांस, जर्मनी सहित 15 देशों के फिल्म फेस्टिवल में दिखा चुके हैं। यह फिल्म जिलीन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई है। जो प्राग (चेक रिपब्लिक) में 29 मई से पांच जून तक चलेगा। इसमें फिल्म भी प्रदर्शित की जाएगी।

बताया कि पहली बार उत्तराखंड की किसी फिल्म को इतना बड़ा मुकाम मिल रहा है। प्रदेश के स्कूलों से संपर्क किया जा रहा है। जहां बच्चों को यह फिल्म दिखाई जाएगी। फिल्म की शूटिंग हल्द्वानी, मसूरी और रामनगर में हुई है। निर्देशक एहसान बख्श कई धारावाहिकों की स्क्रीन प्ले स्टोरी लिख चुके हैं।

फिल्म ‘अंडर द स्काई’ में हल्द्वानी के स्वप्निल विजय और प्रतिभा मुख्य भूमिका में हैं। स्वप्निल विजय का गोपी और प्रतिभा पंत ने विमला का किरदार निभाया है। फिल्म में एक तरलाखेत गांव है।

विमला अंध विश्वासी है, जबकि गोपी वैज्ञानिक विचारधारा का है। गांव में एक जल कुंड है, जिसका नाम खरगोश का जल कुंड है। मान्यता है कि पुराने समय में खरगोश ने राक्षस से जल कुंड को बचाया था, तब राक्षस वहां महल बनाना चाहता था,

इसलिए उसका नाम खरगोश जल कुंड पड़ गया। राक्षस के रूप में प्रधान उस जगह पर अब रिसोर्ट बनाना चाहता है। बच्चे खरगोश की तरह उस जमीन को बचाने के लिए संघर्ष करते हैं।
दून के कैलाश का अहम किरदार

दून के कलाकार कैलाश कंडवाल का इसमें अहम किरदार है। वह प्रधान बने हैं। जो बच्चों के लिए राक्षस समान हैं। फिल्म में अभिनेता हेमंत पांडे के भाई राजेश ने शिक्षक का किरदार निभा रहे हैं। इसके साथ ही केदार पलड़िया ने गांव के ठेकेदार और डीएन भट्ट ने चौकीदार की भूमिका निभाई है।

Friday 13 March 2015

घराट’ इस शब्द को सुनकर पहाड़ी आंचल का नजारा आंखों में तैरने लगता है।










घराट’ इस शब्द को सुनकर पहाड़ी आंचल का नजारा आंखों में तैरने लगता है। सावन की बरसात और नदी किनारे कुछ दूरियां पर कई छप्परनुमा झोपड़ी। जहां से एक अलग ही किस्म की ध्वनि की गूंज सुनाई देती है। जिसमें गाड़ की तेज गर्जना होती है तो पिसते गेहूं की महक ओढ़े केसरी संगीत। दिल में इस कदर घुल जाता है जैस कि पानी में मिश्री। पनाल से गिरने वाले पानी का भेन से संघर्ष तो दो भारी पत्थरों के बीच की गुत्थमगुत्था। तो आनाज के दानों की आटा बनने जिद। भेन से संघर्ष कर पानी किसी चक्रवर्ती सम्राट जैसा निकलता है मानों घराट को चलाकर कर उसने विजय पताका फहरा दी हो। लेकिन कुछ ही दूरी पर उसे जलक्रिड़ा करते बच्चों के नन्हें हाथों से हार का सामना करना पडता है। पत्थरों की टेड़ी-मेड़ी दीवार और उसमें ठूंसी जंगली घास विजयी सम्राट को रूकने को मजबूर कर देती है। धराशायी जलावेग जब तालाब बन जाता है तो जलक्रीड़ा करते बच्चों की उत्सुकता देखी जा सकती है।जो नहाने की बात करते सुनाई देते हैं। कोई दो बार नहाने की बात कहता है को छः बार। नहाने का ये उत्सव घराटों की कुछ दूरी पर कुछ समय पहले खूब देखने को मिलता था। लेकिन आज न गाड़ है और न घराट। पहाडों़ में घराट का अस्तित्व 17वीं सदी के पूर्वद्ध में बताया जाता है। तब से लेकर 19वीं सदी के अन्तिम दशक तक घराट ने न जाने कितने लोगों का पेट पाला लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब घराटों की जगह बिजली से चलने वाली चक्कियों ने ले ली। भाग दौड़ भरी जिंदगी ने घराट को छोड़ दिया है। प्रकृति और मानव के बीच सेतु का काम करने वाले घराट का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। जिससे तकरीबन 200 साल से चले आ रहे एक रिश्त का बजूद मिट गया। जब पहाड़ में घराट ही नहीं रहे तो फिर न अब भग्वाल दिखाई देते हैं और न घट्वालों की हंसी ठिठोली सुनाई देती है। सावन की रातें अब पहाड़ में उदास होकर गुजर जाती है। बरसात होती है, पर गाडों में पानी का शोर नहीं होता। अब पहाड में वो रौनक नहीं रही जो कभी हुआ करती थी। पहाडों में हालात इतने दयनीय है कि कई गांवों ने अपने जवान बेटों को सालों से नहीं देखा। नन्हें पगों की आहट के लिए मानों गांव तरस गये हैं। लेकिन गंावों का रूंदन से किसी का दिल नहीं पसीज पाया। आज पहाड का हर आदमी अपनी सहूलियतों को देखते हुए पलयान कर रहा है। जिसकी वजह से गांवों के गांव खाली हो रहे हैं। जिसका असर उन घराटों पर भी सीधे रूप से पड़ा जो कभी पहाड़ की आर्थिकी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। विकास की जिद और पलायन की मार ने पहाड के हालतों को बेरूखा कर दिया है। कभी पहाडों में घराट और उसके आसपास की हरियाली का नजारा मन को सुकून देता था लेकिन अब ये किसी सूल से कम नहीं । दर्द इस बात का कि जिस ‘घराट’ ने 19 वीं सदी के अन्तिम दशक तक लोगों को पालने में अहम भूमिका निभाई वो ‘घराट’ आज ढूंडे नहीं मिलता और उसका आटा तो अब अतीत की कहानी हो गया। उत्तराखंड बनने के बाद हालत ने जिस तरह करवट बदली उससे जल,जंगल और जमीन से आम आदमी का रिश्ता छूटता गया। जब इन तीन ज से लोगों का लगाव खत्म होने लगा तो खुद-ब-खुद घराट भी हाशिये पर चलता गया। नौबत यहां तक आन पडी है कि आज की नौजवान पीड़ियों को घराट के बारे में पता तक नहीं है। इंटरनेट की गैलरियों में झांकने के बाद भी घराट के बारे में बहुत ज्यादा कुछ जानकारी नहीं है। लिहाजा आज घराट महज लोक कथाओं और किवदंतियों में सिमट कर रह गये हैं। प्रदेश में घराट को बचाने के लिए सरकार द्वारा योजनाएं बनाये जाने की बाते तो सुनी गई। लेकिन इतने साल गुजर जाने के बाद भी अब ये बातें अफवाह लगने लगती है। अगर सच में सरकार इस ओर कोई ठोस पहल करती है तो शायद पहाड में एक बार फिर से जरूर रौनक लौट आयेगी। सावन की सूनी रातों में घराट के चलने की आवाजे सुनाई देगी। यहां तक कि एक बार फिर से घराट के नजदीक नहाने का उत्सव लौट आयेगा। लेकिन इसके लिए सबसे पहले जंगलों को बचाना होगा। ताकि घराट को चलाने के लिए गाडों में प्रचुर मात्रा मंे पानी उपलब्ध हो सके। इस पारस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए सभी लोगों को आगे आने की एक अदद जरूरत महशूस की जा रही है।
प्रस्तुति- प्रदीप थलवाल

Saturday 7 March 2015

मृणाल पांडे :वो पत्रकार हैं, लेखक हैं, कहानीकार हैं, संपादक हैं, निबंधकार हैं, Happy Women's Day




वो पत्रकार हैं,  लेखक हैं, कहानीकार हैं, संपादक हैं, निबंधकार हैं, पिछले 47 सालों से वे पत्रकारिता कर रही हैं। जब वो लिखती हैं, तो लगता है जैसे शब्दों को उनके मायने मिल गए हैं। जब 21 साल की थीं, तो हिन्दी साप्ताहिक 'धर्मयुग' में उनकी पहली कहानी छपी थी। तब से शुरू हुआ वो सफर, आज भी अनवरत जारी है।

अपनी लगन और प्रतिभा के बाल पर आज वो सफलता की उस ऊंचाई पर हैं, जहां पहुंचने की हसरत हर एक शख्स के दिल में होती है। मृणाल पांडे एक पत्रकार, लेखक और भारतीय टेलीविजन की जानी-मानी हस्ती हैं। फिलहाल वे प्रसार भारती की अध्यक्ष हैं। इससे पहले वे भारत में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबारों में से एक हिन्दी दैनिक 'हिन्दुस्तान' की संपादक रह चुकी हैं। साथ ही, लोकसभा चैनल के साप्ताहिक साक्षात्कार कार्यक्रम 'बातों-बातों में' का संचालन भी वो करती रही हैं। 

हिन्दी की मशहूर उपन्यासकार शिवानी की बेटी मृणाल पांडे का जन्म टीकमगढ़, मध्यप्रदेश में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में पूरी की। उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया। और फिर अंग्रेजी एवं संस्कृत साहित्य, प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व, शास्त्रीय संगीत तथा ललित कला की शिक्षा कारकारन (वॉशिंगटन डीसी) से पूरी की। वो कुछ वर्षों तक 'सेल्फ इम्प्लायड वूमेन कमीशन' की सदस्य रही है। अप्रैल 2008 में उन्हें पीटीआई (PTI) बोर्ड की सदस्य बनाया गया। आजादी के बाद हुए भारतीय परिवेश को मृणाल पांडे ने अपनी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों में रेखांकित किया है। 

साल 1984-87 के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की लोकप्रिय पत्रिका 'वामा' का संपादन भी मृणाल पांडे ने किया। दूरदर्शन और स्टार न्यूज के लिए भी मृणाल पांडे ने काम किया। हमारे समय में देवी की देवी (2000), बेटी की बेटी (1993), जो कि राम हाथ ठहराया (1993), विषय नारी (1991), अपना खुद का गवाह (2001) आदि उनकी कई चर्चित किताबें हैं। इसके अलावा मृणाल पांडे की 'यानी कि एक बात थी', 'बचुली चौकीदारिन की कढ़ी', 'एक स्त्री का विदा गीत' और 'चार दिन की जवानी तेरी' आदि कई प्रसिद्ध कहानियां रही हैं। 'अपनी गवाही', 'हमका दियो परदेस', 'रास्तों पर भटकते हुए' जैसे उनके उपन्यासों ने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया है। 'जहां औरतें गढ़ी जाती हैं' उनका चर्चित आलेख रहा है।

 पिछले 47 सालों में मृणाल पांडे ने बहुत कुछ हासिल किया। सफलता के बहुत से मुकाम पाए। कई उपलब्धियां भी दर्ज हुईं। कभी कोई समझौता नहीं किया, भले ही इस वजह से नौकरी ही क्यों न छोड़नी पड़ी हो। कोई गलत काम नहीं किया और न ही किसी को करने दिया। आजादी मिली तो बहुत सारे प्रयोग किए। कामयाबी भी मिली। अभी उस कामयाबी का हिसाब करने का वक्त उनकी जिंदगी में नहीं आया है, क्योंकि अभी तो बहुत सा सफर बाकी है।