Tuesday 28 October 2014

सिद्धबली मन्दिर -आज भी यहाँ वचनबद्ध होकर बजरंग बली जी साक्षात उपस्थित रहते हैं



पवन तनय संकट हरण मंगलमूर्ति रूप I
राम लखन सीता सहित ह्रदय बसहु सुर भूप II 



गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार कस्बे से कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग पर लगभग ३ कि०मी० आगे खोह नदी के किनारे बांयी तरफ़ एक लगभग ४० मीटर ऊंचे टीले पर स्थित है गढ़वाल प्रसिद्ध देवस्थल सिद्धबली मन्दिर । यह एक पौराणिक मन्दिर है । कहा जाता है कि यहां तप साधना करने के बाद एक सिद्ध बाबा को हनुमान की सिद्धि प्राप्त हुई थी । सिद्ध बाबा ने यहां बजरंगबली की एक विशाल पाषाणी प्रतिमा का निर्माण किया। जिससे इसका नाम सिद्धबली हो गया (सिद्धबाबा द्वारा स्थापित बजरंगबली । 


इस स्थान का जीर्णोद्वार एक अंग्रेज अधिकारी के सहयोग से हुआ। कहते हैं कि इस स्थान के समीप एक अंग्रेज अधिकारी (जो खमा सुपरिटेंडेंट हुआ करता था।) ने एक बंगला बनवाया जो आज भी इस स्थान पर मौजूद है। जब घोड़े पर चढ़कर इस बंगले पर रहने के लिए आया तो घोड़ा आगे नहीं बढ़ा तब उसने घोड़े पर चाबुक मारा तो घोड़े के अधिकारी को जमीन पर पटक दिया। तो वह बेहोश हो गया। उस अधिकारी को बेहोशी में सिद्धबाबा ने दर्शन देकर कहा कि इस स्थान पर मेरे द्वारा पूजे जाने वाली पिण्डियाँ जो खुले स्थान पर हैं। उनके लिए स्थान बनाओ तभी तुम इस बंगले में रह सकते हो, तभी उस अधिकारी द्वारा जन सहयोग से इस स्थान का जीर्णोद्धार किया गया। जो आज धीरे–धीरे भक्तों एवं श्रद्धालुओं के सहयोग से भव्य रूप धारण कर चुका है।

यह मन्दिर न केवल हिन्दू-सिक्ख धर्मावलंबियों का है अपितु मुसलमान भी यहां मनौतियां मांगने आते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु लोग दक्षिणा तो देते हैं ही यहां भण्डारा भी आयोजित करते हैं । इस स्थान पर कई अन्य ऋषि मुनियों का आगमन भी हुआ है। इन संतो में सीताराम बाबा, ब्रह्मलीन बाल ब्रह्मचारी नारायण बाबा एवं फलाहारी बाबा प्रमुख हैं। यहां साधक को शांति अनुभव होती है।

यह मन्दिर का अदभुत चमत्कार ही है कि खोह नदी में कई बार बाढ़ आई किन्तु मन्दिर ध्वस्त होने से बचा है। यद्यपि नीचे की जमीन खिसक गई है किन्तु मन्दिर आसमान में ही लटका हुआ है। यहां प्रतिवर्ष श्रद्धालुओं के द्वारा मेले का आयोजन होता है। जिसमें सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं।

श्री सिद्धबली धाम की महत्ता एवं पौराणिकता के विषय में कई जनश्रुतियां एवं किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कहा जाता है। स्कन्द पुराण में वर्णित जो कौमुद तीर्थ है उसके स्पष्ट लक्षण एवं दिशायें इस स्थान को कौमुद तीर्थ होने का गौरव देते हैं स्कन्द पुराण के अध्याय 119 (श्लोक 6) में कौमुद तीर्थ के चिन्ह के बारे में बताया गया है कि

तस्य चिन्हं प्रवक्ष्यामि यथा तज्ज्ञायते परम्।
कुमुदस्य तथा गन्धो लक्ष्यते मध्यरात्रके।।

अर्थात महारात्रि में कुमुद (बबूल) के पुष्प की गन्थ लक्षित होती है। प्रमाण के लिए आज भी इस स्थान के चारों ओर बबूल के वृक्ष विद्यमान है। कुमुद तीर्थ के विषय में कहा गया है कि पूर्वकाल में इस तीर्थ में कौमुद (कार्तिक) की पूर्णिमा को चन्द्रमा ने भगवान शंकर को तपकर प्रसन्न किया था। इसलिए इस स्थान का नाम कौमुद पड़ा। शायद कोटद्वार कस्बे को तीर्थ कौमुद द्वार होने के कारण ही कोटद्वार नाम पड़ा। क्योंकि प्रचलन के रूप में स्थानीय लोग इस कौमुद द्वार को संक्षिप्त रूप में कौद्वार कहने लगे जिसे अंग्रेजों के शासन काल मे अंग्रेजों के सही उच्चारण न कर पाने के कारण उनके द्वारा कौड्वार कहा जाने लगा। जिससे उन्होंने सरकारी अभिलेखों में कोड्वार ही दर्ज किया और इस तरह इसका अपभंरश रूप कोटद्वार नाम प्रसिद्ध हुआ। परन्तु वर्तमान में इस स्थान को सिद्धबाबा के नाम से ही पूजा जाता है। कहते हैं कि सिद्धबाबा ने इस स्थान पर कई वर्ष तक तप किया। श्री सिद्धबाबा को लोक मान्यता के अनुसार साक्षात गोरखनाथ माना जाता है जो कि कलियुग में शिव के अवतार माने जाते हैं। गुरु गोरखनाथ भी बजरंगबली की तरह एक यति है। जो अजर और अमर हैं।

इस स्थान को गुरु गोरखनाथ के सिद्धि प्राप्त होने के कारण सिद्ध स्थान माना गया है एवं गोरखनाथ जी को इसीलिए सिद्धबाबा भी कहा गया है। नाथ सम्प्रदाय एवं गोरख पुराण के अनुसार नाथ सम्प्रदाय के गुरु एवं गोरखनाथ जी के गुरु मछेन्द्र नाथ जी पवन पुत्र बजरंगबली के आज्ञानुसार त्रिया राज्य में (जिसे चीन के समीप माना जाता है जिसकी शासक रानी मैनाकनी थी के साथ ग्रहस्थ आश्रम का सुख भोग रहे थे। परन्तु उनके परम तेजस्वी शिष्य गोरखनाथ जी को जब यह ज्ञात होता है तो उन्हें बड़ा दुख एवं क्षोभ हुआ तो वह प्रण करते हैं कि उन्हें किसी भी प्रकार उस राज्य से मुक्त किया जाय। जब वे अपने गुरु को मुक्त करने हेतु त्रिया राज्य की ओर प्रस्थान करते हैं तो पवन पुत्र बजरंग बली अपना रूप बदलकर इस स्थान पर उनका मार्ग रोकते हैं। तब दोनों यतियों के मध्य भयंकर युद्ध होता है। पवन पुत्र को बड़ा आश्चर्य होता है  कि वे एक साधारण साधु को परास्त नहीं कर पा रहे है। उन्हे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यह दिव्य पुरुष भी मेरी तरह ही कोई यति है। तब हनुमान जी अपने वास्तविक रूप में आते हैं और गुरु गोरखनाथ जी से कहते हैं कि मैं तुम्हारे तप बल से अति प्रसन्न हूँ । जिस कारण तुम कोई भी वरदान मांग सकते हो  तब श्री गुरु गोरखनाथ जी कहते हैं कि तुम्हें मेरे इस स्थान में प्रहरी की तरह रहना होगा एवं मेरे भक्तों का कल्याण करना होगा। विश्वास है कि आज भी यहाँ वचनबद्ध होकर बजरंग बली जी साक्षात उपस्थित रहते हैं तबसे ही इस स्थान पर बजरंग बली की पूजा की विशेष महत्ता है और इन्हीं दो यतियों (श्री बजरंग बली जी एवं गुरु गोरखनाथ जी  जो सिद्धबली बाबा के नाम से पुकारते हैं । यहाँ पर श्री गुरु गोरखनाथ जी ने अपना स्थायी स्थान बनाकर अपने शिष्य पवन नाथ को नियुक्त किया।

इस स्थान पर सिखों के गुरु संत गुरुनानक जी ने भी कुछ दिन विश्राम किया। ऐसा कहा जाता है कि इस स्थान को सभी धर्मावलम्बी समान रूप से पूजते एवं मानते हैं।



Thursday 23 October 2014

Happy Diwali !! मैं बैठा दूर परदेश में घर में आज दिवाली है


“May the passion and splendor that are a part of this auspicious holy festival, fill your entire life with happiness, prosperity and a much brighter future. Warm wishes to you and your family on this Festival of Lights.” 



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मैं बैठा दूर परदेश में घर में आज दिवाली है मेरा आँगन सूना है माँ की आँखों में लाली है वो बार बार मुझे बुलाती है फिर अपने दिल को समझाती है मेरी भाग्य की चिंता पर अपने मातृत्व को मनाती है

मैं कितना खुदगर्ज़ हुआ पैसो की खातिर दूर हुआ मेरा मन तो करता है पर न जाने क्यूँ मजबूर हुआआज फटाको की आवाजों में मेरी ख़ामोशी झिल्लाती  है कैसे बोलूं माँ तुझको तेरी याद मुझे बहुत आती है

इतना रोया मैं, आज कि मेरी आँखें अब खाली है तुझ से दूर मेरे जीवन की ये पहली एक दिवाली है

                        माँ मेरा आँगन सूना है तेरी की आँखों में लाली है 


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दीपावली का अर्थ  



दीपावली का अर्थ  है दीपों की पंक्ति। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले त्योहारों में दीपावली का आध्यात्मिक व सामाजिक दोनों दृष्टि से सबसे ज्यादा महत्व है।

इस त्योहार का मूल मंत्र ही माना जाता है- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'... इसका मतलब है अंधकार से प्रकाश की ओर। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। इस मौके पर खुशी से झूम रहे अयोध्यावासियों ने अपने राजा के स्वागत में घी के दीये जलाए।

इससे कार्तिक मास की सघन अमावस्या की रात जगमगा उठी। और यह पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। दीपावली के मायने भले ही धर्म और परंपरा के अनुसार तरह-तरह के हों लेकिन लोक संस्कृति में इसका मतलब दीया और बाती से ही ज्यादा है।

दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग मान्यता है। एक मान्यता है कि भगवान राम रावण वध करने के बाद दिवाली के दिन ही अयोध्या लौटे थे। इसी खुशी में लोगों ने दीये जलाए और खुशियां मनाई। दूसरी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध इसी दिन किया था। जनता में खुशी की लहर दौड़ गई और लोगों ने घी के दीये जला उत्सव मनाया।

वहीं पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु ने नरसिंह रूप धारण कर हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है

हालांकि मिथिलांचल में धनतेरस के दिन से ही दीये जलाए जाने की परंपरा है। दिवाली के एक दिन पूर्व छोटी दिवाली को लोग यम दिवाली भी कहा करते हैं। इस दिन यम पूजा हेतु घर के बाहर दीये जलाए जाते हैं

इसे विडंबना ही कहेंगे कि कि दुनिया को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में अहम भूमिका अदा करने वाले कुम्हारों की खुद की हालत अंधेरे में है। महंगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है लेकिन उनके उत्पाद की कीमत आज भी लोग 

मिट्टी के भाव में ही आंकते हैं। मिट्टी की व्यवस्था कर खरीदना, पूरी मेहनत व लगन से उसे बनाने के बाद भी बाजार में उसकी सही कीमत नहीं मिल पाती।

जबकि अब मिट्टी भी महंगे और पकाने के लिए जलावन भी महंगा। श्रम की तो कीमत भी नहीं जोड़ी जाती। हर तरफ महंगाई है लेकिन दीये के भाव में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। बाजार में भी प्रभाव पड़ा है। लोगों का झुकाव बिजली की रोशनी की ओर अधिक हुआ है जिससे दीये की बिक्री कम पड़ने लगी है। लेकिन पारंपरिक रूप से आज भी और हमेशा मिट्टी के बने दीये का महत्व ही अधिक है।

Sunday 19 October 2014

उत्तराखंड की संस्कृति के जीवंत चितरे शैलेश मटियानी -पहाड़ में जन्मे मटियानी को पहाड़ सा दर्द पूरे जीवन मिला






उनका जन्म बाड़ेछीना गांव (जिला अलमोड़ा, उत्तराखंड (भारत)) में हुआ था। उनका मूल नाम रमेशचंद्र सिंह मटियानी था। बारह वर्ष (१९४३) की अवस्था में उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उस समय वे पांचवीं कक्षा के छात्र थे। इसके बाद वे अपने चाचाओं के संरक्षण में रहे किंतु उनकी पढ़ाई रुक गई। उन्हें बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का काम करना पड़ा। पांच साल बाद 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरु किया। विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। वे १९५१ में अल्मोड़ा से दिल्ली आ गए। यहाँ वे 'अमर कहानी' के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहां रहने लगे। तबतक 'अमर कहानी' और 'रंगमहल' से उनकी कहानी प्रकाशित हो चुकी थी। इसके बाद वे इलाहाबाद गए। उन्होंने मुज़फ़्फ़र नगर में भी काम किया। दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वे बंबई चले गए। फिर पांच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। १९५६ में श्रीकृष्ण पुरी हाउस में काम मिला जहाँ वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे और अपना लेखन जारी रखा। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ गए और कई वर्षों तक वहीं रहे। 1992 में छोटे पुत्र की मृत्यु के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। जीवन के अंतिम वर्षों में वे हल्द्वानी आ गए। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के शहादरा अस्पताल में हुई

भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय लोगों तथा उत्तराखंड की संस्कृति के जीवंत चितरे शैलेश मटियानी का मंगलवार को जन्मदिन था। पहाड़ में जन्मे मटियानी को पहाड़ सा दर्द पूरे जीवन मिला। जब उनकी कहानियां धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित होने लगी थी तो वह मुंबई के एक होटल में वेटर का काम करते थे। बाद में वह अपने लेखन से शिखर तक पहुंचे, लेकिन अपनी उपेक्षा का दंश उन्होंने जीवन भर झेला। बेटे की हत्या ने तो उन्हें पागल ही कर दिया। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी साहित्य के इस अमर कलमकार की मौत पागलखाने में हुई। उनका जन्म 14 अक्तूबर 1931 को अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना गांव में हुआ था। मटियानी का निधन 24 अप्रैल 2001 को दिल्ली में हुआ।


गरीबी ने नहीं पढ़ने दिया

गरीबी की वजह से शैलेश की पढ़ाई नहीं हो पाई। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं दी थी। जीवनयापन के लिए बचपन में ही भागकर मुंबई जाना पड़ा। उसके बाद से वह भागते ही रहे। कभी दिल्ली तो कभी इलाहाबाद और कभी मुंबई। राजेंद्र यादव कहते हैं कि शैलेश के सामने बहुत ही विकट स्थितियां थीं। आर्थिक और मानसिक रूप से भी। मुंबई में उन्हें बहुत विकट जीवन जीना पड़ा। बहुत समय तक फुटपाथों पर रहना पड़ा। जहां मुफ्त खाना मिलता था उन जगहों पर लाइनों में लगना पड़ा। शैलेश ने खुद एक जगह लिखा है कि जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो बड़ा अच्छा लगता था। सोचता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाने को खाना। शैलेश ऐसे लेखक हैं जिनके पास शिक्षा की नहीं, बल्कि अनुभव की पूंजी थी।

हिंदी का लेखक और होटल का वेटर

शैलेश की कहानियां जब धर्मयुग में प्रकाशित हो रही थीं तो उस समय वह मुंबई के एक छोटे से ढाबे में प्लेटें धोने और चाय लाने का काम करते थे। कितनी बड़ी विडंबना है कि धर्मयुग जैसे सर्वश्रेष्ठ अखबार में जिनकी कहानियां छपनी शुरू हो गईं हों वह एक छोटे से सड़क के किनारे बने ढाबे में चाय-पानी देने और प्लेट साफ  करने का काम कर रहा हो।

अंग्रेजी नहीं जानने वाले विचारक

शैलेश अंग्रेजी नहीं जानते थे लेकिन अपने ढंग से विचारक थे। देश की समझ, राष्ट्र की समस्या, भाषा की समस्या पर लिखते रहे। लेकिन वह हिंदुत्व के घेरे से बाहर नहीं निकल पाए। राजेंद्र यादव कहते हैं कि एक तरह से एक रूढ़िवादी विचारक के रूप में उन्होंने अपने को प्रोजेक्ट किया। वे एक अद्भुत और विलक्षण कहानीकार हैं लेकिन बहुत दयनीय विचारक थे।

रेणु से पहले किया आंचलिकता का प्रयोग

साहित्य की विधा में नई कहानी के सूत्रधार रहे राजेंद्र यादव कहते हैं कि शैलेश मटियानी फणेश्वर नाथ रेणु से पहले लेखक हैं, जिन्होंने सफलता पूर्वक आंचलिक भाषा और आंचलिक संस्कृति का प्रयोग किया। रेणु का जब पता भी नहीं था तब शैलेश का श्बोरीवली से बोरीबंदर तक उपन्यास आ चुका था। पहाड़ के जीवन पर उनकी अद्भुत कहानियां आ चुकी थीं, जो वहां की जीवन, संस्कृति और भाषा को निरूपित करती थी।

बेटे की हत्या का असर

कहा जाता है कि बेटे की हत्या होने के बाद शैलेश में एक खास तरह का परिवर्तन आ गया। राजेंद्र यादव कहते हैं कि इससे उनमें एक पराजय का भाव प्रारब्ध और नियति के सामने समर्पण का भाव और धर्म और ईश्वर से एक तरह से निकालने के लिए प्रार्थना का भाव पैदा कर दिया।

जिससे प्यार किया उसने समझा बेगाना

कहा जाता है कि शैलेश को उनके गांव के ब्राह्मणों ने भगा दिया था। इसके पीछे वजह यह बताई जाती है कि उन्हें एक ब्राह्मण की लड़की से प्रेम हो गया था। इसी वजह से उन्हें अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा। प्रेम की वजह से उनकी जान को खतरा हो गया था। बताया जाता है कि जिस लड़की से उन्होंने प्रेम किया था बाद में वही उनके खिलाफ हो गई थी। गर्भवती होने के बाद उसने शैलेश पर आरोप लगाया कि शैलेश बहकाकर और भगाकर उसे मैदान में बेचना चाहता है।

कहानियों में गरीबों की दुनिया

शैलेश कहानी की दुनिया मार्जिनलाइज़्ड की दुनिया है। गरीबों की दुनिया है। वह खुद जाति व्यवस्था से पीड़ित रहे। पहाड़ से भगा दिए गए। लेकिन विचार की दुनिया में उसी का समर्थन करते रहे। कहा जाता है कि वह पहाड़ से इसलिए भगाए गए क्योंकि वह प्रॉपर ढंग से क्षत्रिय भी नहीं थे। इनके परिवार में कसाई का काम किय जाता था। यही उन्हें तकलीफ देता था।

भोगा हुआ लिखा

डा. जगत सिंह बिष्ट लिखते हैं कि शैलेश मटियानी का साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है। शैलेश के साहित्य के वृत्त के में विविध क्षेत्रों वर्गों और संप्रदायों से संबद्ध जीवन संदर्भों का चित्रण हुआ है। शैलेश के कहानी में चित्रित निम्न वर्ग कुमाऊं के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध है। उनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित पीड़ित शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग और संप्रदाय से है, अपने प्रकृत रूप में दिखाई देता है। इसकी वजह शैलेश की अत्यंत संवेदनशील अंतर्दृष्टि को माना जा सकता है, जिसने उन्हें अपनी भोगी एवं देखी चीजों को यथार्थ के रूप में पकड़ पाने की अद्भुत क्षमता दी।

लेकिन प्रगतिशील खेमे को नहीं भाए

पलाश विश्वास लिखते हैं कि प्रगतिशील खेमे ने शैलेश को कभी नहीं अपनाया। जब शैलेश बेटे की मृत्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह हिंदुत्व में समाहित हो गये, तब शैलेश के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिंदी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर दिया। शैलेश की लेखकीय प्रतिष्ठा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका जो मिल गया था।




Thursday 16 October 2014

अधिष्ठात्री देवी कोटगाडी-कहा जाता है कि प्रतिदिन ब्रह्म मूर्हूत की पावन बेला पर माता कोटगाडी कुंड में स्नान करने आती हैं


 माता कोटगाडी देवी मंदिर का अपना दिव्य महात्म्य – यह देवी पाताल भुवनेश्वर की न्यायकारी शक्ति के रूप में पूजित - तुरंत फैसला देती हैं देवी- अन्याय का शिकार, दुत्कारे, न्याय की उम्मीद समाप्त  होने, अंधकार ही अंधकार नजर आने- ऐसे निराश प्राणी यहां आते हैं- फरियादों के असंख्य पत्र न्याय की गुहार के लिये ; न्याय की परम पराकाष्ठा प्रदान करने के पश्चात ही कोटगाडी न्याय की देवी के नाम से विख्‍यात – पिथौरागढ जनपद के थल क्षेत्र में है-

उत्तराखण्ड की पावन धरती में भगवान शिव-शंकर सहित तैंतीस कोटि देवताओं के दर्शन होते हैं। आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने स्वयं को इसी भूमि में ही पधारकर धन्य मानते हुये कहा कि इस ब्रह्माण्ड में उत्तराखण्ड के तीर्थों जैसी अलौकिकता व दिव्यता कहीं नहीं है। इस क्षेत्र में शक्तिपीठों की भरमार है। सभी पावन दिव्य स्थलों में से तत्कालिक फल की सिद्व देने वाली माता कोटगाडी देवी मंदिर का अपना दिव्य महात्म्य है। कहा जाता है कि यहां पर सच्चे मन से निष्ठापूर्वक की गयी आराधना व पूजा का फल तुरंत प्राप्त होता है तथा अभीष्ट कार्य की सिद्व होती है। तुरंत फैसला देती हैं देवी- -यह देवी पाताल भुवनेश्वर की न्यायकारी शक्ति के रूप में पूजित है।

किंवदन्तियों के अनुसार जब उत्तराखण्ड के सभी देवता विधि के विधान के अनुसार स्वयं को न्याय देने व फल प्रदान करने में अक्षम व असमर्थता की परिधि में मानते हैं उनकी शक्ति शिवतत्व में विलीन हो जाते हैं, तब अनन्त निर्मल भाव से परम ब्रह्माण्ड में स्तुति होती है कोकिला माता अर्थात कोटगाडी की। संसार में भटका मानव जब चौतरफा निराशाओं से घिर जाती है। हर ओर से अन्याय का शिकार हो जाता है। न्याय की उम्मीद समाप्त हो जाती है और उस प्राणी को दुत्कार ही दुत्कार, अंधकार ही अंधकार नजर आने लगता है। तो संकल्प पूर्वक कोटगाडी की देवी का जिस स्थान से भी सच्चे मन से स्मरण किया जाता है वहीं पर से निराशा के बादल हटने शुरू हो जाते हैं। मान्यता है कि संकल्प पूर्ण होने के बाद देवी माता कोटगाडी के दर्शन की महत्ता अनिवार्य है। किसी के प्रति व्यर्थ में ही अनिष्टकारी भावनाओं से मांगी गयी मनौती हमेशा उल्टी साबित होती है। इस मंदिर में फरियादों के असंख्य पत्र न्याय की गुहार के लिये लगे रहते हैं। दूर-दराज से श्रद्वालुजन डाक द्वारा भी मंदिर के नाम पर पत्र भेजकर मनौती मांगते हैं तथा मनौती पूर्ण होने पर भी माता को पत्र लिखते हैं तथा समय व मैय्या के आदेश पर माता के दर्शन के लिये पधारते हैं।

बताया जाता है कि माता के प्रभाव से आजादी के पूर्व अंग्रेज शासन काल में एक जज ने यहां आकर मां से क्षमा याचना की। कहते हैं कि क्षेत्र के एक निर्दोष व्यक्ति को जब कहीं से न्याय प्राप्त नहीं हुआ तब उसने समाज में स्वयं को निर्दोष साबित करन के लिये सच्चे मन से माता कोटगाडी के चरणों में विनय याचना रूची एक पत्र दाखिल किया। चमत्कार स्वरूप कुछ समय के बाद जज ने यहां पहुंचकर उसे निर्दोष बताया। इस प्रकार के सैकडों चमत्कारिक करिश्में श्रद्वालुओं एवं भक्तजनों के बीच सुनाई देते हैं। मंदिर के समीप ही अनेक पावन व सुरम्य स्थल मौजूद हैं। इस पौराणिक मंदिर में शक्ति कैसे और कब अवतरित हुई, अभी तक इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं हो पायी है। कोट का तात्पर्य कालांतर का माना जाता है। न्याय की परम पराकाष्ठा प्रदान करने के पश्चात ही शायद कोटगाडी को न्याय की देवी के नाम से जाना जाता है।

दंत कथाओं के अनुसार जब भगवान श्री कृष्ण ने बालपन के समय में कालिया नाग का मर्दन किया और तब उसे परास्त कर जलाशय छोडने को कहा तो कालिया नाग व उसकी पत्नियों ने भगवान श्री कृष्ण से क्षमा याचना कर प्रार्थना की कि हे प्रभु हमें ऐसा सुगम स्थान बतायें जहां हम पूर्णतः सुरक्षित रह सकें। तब भगवान श्री कृष्ण ने इसी कष्ट निवारणी माता की शरण में कालिया नाग को भेजकर अभयदान प्रदान किया था। कालिया नाग का प्राचीन मंदिर कोटगाडी से थोडी दूर पर पर्वत की चोटी पर स्थित है। बताया जाता है कि इस मंदिर की चोटी से कभी भी गरूड आर-पार नहीं जा सकते। ऐसी परम कृपा है कोटगाडी माता की कालिया नाग पर ।

इस मंदिर की शक्ति पर किसी शस्त्र के वार का गहरा निशान स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। किंवन्दियों के
अनुसार किसी ग्वाले की सुंदर गाय अक्सर इस शक्ति लिंग पर आकर अपना दूध स्वयं दुहाकर चली जाती थी। ग्वाले का परिवार बेहद अचम्भे में रहता था कि आखिर इसका दूध कहां जाता है। इस प्रकार एक दिन ग्वाले की पत्नी ने चुपचाप गाय का पीछा किया। जब उसने यह दृश्य देखा तो धारदार शस्त्र से उस शक्ति पर वार कर डाला। कहा जाता है कि इस वार से तीन धाराएं खून की बह निकली जो क्रमशः पाताल, स्वर्ग व पृथ्वी पर पहुंची। पृथ्वी पर खून की धारा प्रतीक स्वरूप यहां पर व्याप्त हैं। वार वाले स्थान पर आज भी कितना ही दूध क्यों न चढा दिया जाये, चढाया गया दूध शक्ति के आधे भाग में शोषित हो जाता है। कालिया नाग मंदिर के दर्शन स्त्रियों के लिये अनिष्ठकारी माना जाता है। जिसे श्राप का प्रभाव कहा जाता है। मंदिर के पास ही माता गंगा का एक पावन जलकुण्ड है। कहा जाता है कि प्रतिदिन ब्रह्म मूर्हूत की पावन बेला पर माता कोटगाडी इस कुंड में स्नान करने आती हैं। यहां पर सच्चे श्रद्वालुओं को अक्सर इस समय माता के वाहन शेर के दर्शन होते हैं। इस प्रकार की सैकडों कथायें इस शक्तिमय देवी के बारे में प्रचलित हैं। जो माता कोटगाडी के विशेष महात्म्य को दर्शाती हैं।

Monday 6 October 2014

भैरों गढ़ी -अधो गढ़वाल अधो असवाल कहावत को चरित्रार्थ करने वाली गढ़ी


भैरों गढ़ी ऐतिहासिक दृष्टि से एक सरसरी नजर-

अधो गढ़वाल अधो असवाल कहावत को चरित्रार्थ करने वाली यह गढ़ी ५२ गढ़ियों के इतिहास में मात्र एक ऐसी गढ़ी के रूप में प्रसिद्ध रही है जिस पर गोरखा सैनिक कभी भी विजय हासिल नहीं कर पाए. सन १७९७ में जब गोरखा सैनिक सेनापति अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गढ़वाल आक्रमण करते स्याल बूंगा किला (नजीबाबाद) को विजित करते हुए आगे बढे तब उन्हें भंधो असवाल जोकि तत्कालीन समय में महाबगढ़ का गढ़पति था और मानदयो असवाल (भैरों गढ़ी) के गढ़पति से करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. गोरखा सेना ने ३ माह तक लंगूर गढ (भैरों गढ़ी) की घेरा बंदी सवा लाख सैनिकों के साथ करके रखी लेकिन गढ़ी पर विजय करना तो दूर वे इस से आगे नहीं बढ़ पाए. राशन ख़त्म होने के कारण गोरखा सैनिकों को वापस लौटना पड़ा. ८४ गॉवों के जागीरदार अस्वालों की विजय का डंका पूरे बाबन गढ़ियों में गूंजने लगा. आखिर घर का भेदी लंका ढावे वाली कहावत चरित्रार्थ हुई और सन १८०२ में आये बिनाश्कारी भूकंप की जद में आये सम्पूर्ण गढ़वाल का दो तिहाही क्षेत्र जलमग्न हो गया जिसने ५२ गढ़ियों का सारा अधिपत्य ही समाप्त कर दिया. इस भूकंप ने इस अजर अमर गढ को भी मिटा दिया जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि हस्ती दल चौरसिया और सेनापति अमर सिंह थापा ने गढ़वाल पर सहारनपुर के रास्ते देहरादून और नजीबाबाद के रास्ते श्रीनगर पर दो तरफ़ा आक्रमण कर दिया. बुरी तरह तबाह हुए उत्तराखंड पर आखिर गोरखा अधिपत्य हुआ और ५२ गढ़ियों का इतिहास समाप्त हुआ

भैरव गढ़ी:

 यह लगभग 6,100 फीट ऊंचा एक नुकीले आकार की पहाड़ी पर गुम खाल केतुखाल द्वारी खाल के निकट स्थित है, जिसके पीछे पूर्वी नायर नदी है। उसकी एक ऐतिहासिक विशेषता है कि वर्ष 1814 में यहां अंग्रेजों एवं गोरखा सैनिकों के बीच एक घमासान युद्ध हुआ था।
भैरव गढ़ी की कथा..
एक गांव का आदमी रोज़ अपने जानवरों को जंगल में चराने ले जाता था..उसकी एक गाय जो दूध देती थी एक समय के बाद उसने घर पर दूध देना बंद कर दिया... आदमी ने सोचा कि कोई न कोई इसका दूध रास्ते में निकल देता है.... एक दिन वह गाय का पीछा करते करते जंगल में गया उसने देखा कि उसकी गाय एक पेड़ के नीचे अपना दूध छोड़ रही है...उसने उस पेड़ को काटने का मन बनाया, जिनसे ही उसने कुल्हाडी से उस पेड़ पर वार किया उसके अन्दर से खून आने लगा... फ़िर एक आवाज़ आई कि में भैरों हूँ.... फ़िर उस आदमी ने वहाँ पर भैरों का मन्दिर बनाया.... गोर्खावों के युद्ध में भैरों ने गाओं वालों के मदद कि... उसने उपर से ही पत्थर बरसाए.. आज भी कहते हैं कि अगर कोई आदमी उस एरिया में किसी मुसीबत में तो वह उन्सकी मदद करते हैं . अगर किसी को रस्ते में रात हो गई तो वह आवाज़ लगाकर उसको रास्ता बताता है...., यहाँ तक कि किसी के जानवर खेतो में घुस जाते थे तो वह गाँव वालों को आवाज़ देकर बुलाता था...

गढ़वाल आठवीं सदी तक ५२ गढ़ियों में बंटा था ! इन ५२ गढ़ियों में एक गढ़ी भैरों गढ़ी भी है ! वैसे पूरा उत्तरा खंड देव भूमि से जाना जाता है ! गंगोत्री, यमनोत्री, गौरी कुण्ड, केदार नाथ, बद्री नाथ, नर-नारायण पर्वत, नील कंठ, जोशीमठ, हरिद्वार, रूद्र प्रयाग, देव प्रयाग, कर्ण प्रयाग, श्री नगर, गुप्त कासी, ऋषिकेश, सहस्त्र धारा, नैनीताल, रानी खेत, कर्वाश्रम और भी बहुत सारे सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थान हैं जिन्हें कुदरत ने खूबसूरती से तरासकर उत्तराखंड की सुन्दरता में चार चाँद लगा दिए हैं ! देश विदेश से असंख्य पर्यटक बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं, यहाँ कदम कदम पर मंदिरों में शीश झुकाते हैं, गंगा - यमुना, मंदाकिनी, अलक नंदा, भागीरथी, राम गंगा में डुबकी लगाते हैं ! प्रवतों से गिरते झरने, श्वेत आवरण से लिपटी ऊंची ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं, हरे भरे खेत, रंग विरंगे फूलों से महकती फूलों की घाटी में खो कर दिल यहीं छोड़ जाते हैं ! कुछ सैलानी तो ऐसे भी होते हैं जो बार बार इस देव भूमि में आते हैं, कुछ वापिस चले जाते हैं कुछ यहीं के हो कर रह जाते हैं !

इन खूब सूरत पहाड़ियों के ऊपर एक पहाड़ पर एक बहुत प्राचीन मंदिर है "लंगूर भैरों " मंदिर" ! गढ़वाल का एक मात्र रेलवे स्टेशन कोटद्वार से गढ़वाल मोटर ऑनर्स यूनियन की बस द्वारा दुगड्डा, फतेहपुरी, गुमखाल होते हुए केतुखाल में बस से उतरना पड़ता है ! यहाँ से पहाडी पर चढने के लिए मंदिर कमिटी ने सीमेंट रोडी बदरपुर से एक घुमावदार आराम दायक रास्ता शीधे मंदिर के आँगन तक बना रखा है केतुखाल में चार छ: दुकाने हैं, यहाँ से चढ़ाई चढ़नी शुरू की, बड़े आराम से हम अगले पड़ाव तक पहुंचे ! वहां पर हनुमान जी का और काली माँ का मंदिर है ! यहाँ दर्शन करने के बाद हम पहुंचे भैरों बाबा के मंदिर में ! यहाँ से चारों तरफ दूर दूर तक का नजारा देखने लायक था ! पहाड़ों के ऊपर बसे गाँव, नदी, पर्वत श्रेणियां, पहाड़ों से पीछे लम्बे चौड़े मैदान, जंगल और दौड़ती हुई रेल और सडकों पर दौड़ती हुई बहुत सारी, मोटर, ट्रक, कारें ! मंदिर में पूजा की, पुजारी जी जो बचपन से ही मंदिर से बंधे हैं से मंदिर के बारे जान कारी ली ! यहाँ सब कुछ है, कुदरत की सुन्दरता, सड़क, आराम दायक रास्ते, गाँवों से दूर ऊंचाई पर सजा सजाया मंदिर, लेकिन पानी की समस्या है ! अब स्थानीय लोगों के सहयोग से मंदिर कमिटी के प्रयास से प्रदेश सरकार ने नय्यार नदी से पानी लाने के लिए पाइप लाइन बिछा दी गयी हैं ! लगता है अब जल्दी ही इस पूरे इलाके के साथ साथ सामने लैंसी डाउन की भी पानी की समस्या सुलझ जाएगी !

मंदिर का इतिहास

डाक्टर विष्णुदत्त कुकरेती जी ने अपनी पुस्तक "हिमालयीय संस्कृति की रीढ़ लंगूरी भैरों" में विवरण इस प्रकार दिया है,
डा० कुसुमलता पांडे ने अपने शोध प्रबंध गढ़वाल में लिखा है की 'रात प्रदेश के सात भाई सौरंयाल और नौ भाई कोठियाल नमक खरीदने बनिए की दुकान पर गए ! रात्री में भैरव सौरयाल की कंडी में बैठ गए ! प्रात: उन लोगो ने प्रस्थान किया ! लंगूर गढ़ी में इन्होंने ज्यों ही भोजन बनाकर बांटना प्रारम्भ किया, सात भाइयों का हिस्सा किया तो आठवां हिस्सा अपने आप हो गया ! इस बीच नमक की कंडी फट गयी, भैरव नाथ का लिंग वहां प्रकट हुआ ! इस लिंग के आठ हिस्से हुए जो अष्ट भैरव कहलाए, ये आठों हिस्सों में गिर गए, और उन स्थानों पर इनके मंदिर बन गए ! सबसे पहले मंदिर में हमीं गए थे, हमारे बाद धीरे धीरे लोगों का समूह आता गया ! पुजारी जी कह रहे थे की ख़ास ख़ास पर्वों पर यहाँ अच्छी खासी भीड़ होती है ! श्रद्धालु आते हैं मिन्नतें माँगते हैं और प्रश्नवित होकर अपने घरों को लौटते हैं !


Friday 3 October 2014

उत्तराखण्ड की एक विरासत है कुमाऊंनी रामलीला !आपको और आपके परिवार को विजयादशमी की हादिंक शुभकामनाएं !

On this auspicious occasion,We  wish the color, bliss and beauty Of this festival

                                  Be with you throught the year! Happy  Vijayadashami !

भगवान राम की कथा पर आधारित रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भारत में युगों से चली आयी है। लोक नाट्य के रुप में प्रचलित इस रामलीला  का देश के विविध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों से मंचन किया जातहै।

 उत्तराखण्ड खासकर कुमायूं अंचल में रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। वस्तुतः पूर्व में यहां की रामलीला विशुद्व मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे। पूर्व में तब आज के समान सुविधाएं न के बराबर थीं स्थानीय बुजुर्ग लोगों के अनुसार उस समय की रामलीला मशाल, लालटेन व पैट्रोमैक्स की रोशनी में मंचित की जाती थी। 

कुमायूं में रामलीला नाटक के मंचन की शुरुआत अठारहवीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। बताया जाता है कि कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व० देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमशः 1880-1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं० उदय शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में नवीनता लाने का प्रयास किया। हांलाकि पं० उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला यहां की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में भिन्न थी लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर अवश्य पड़ी। 

कुमायूं की रामलीला में बोले जाने वाले सम्वादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखायी देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। सम्वादों में आकर्षण व प्रभावोत्पादकता लाने के लिये कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। कुमायूं की रामलीला में सम्वादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमायूंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रुपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती  गूंज में पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादो में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों  के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक तरजीह दी जाती है। रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खडे़ होकर हाव- भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं।

 नाटक मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उदघोषणा भी की जाती है। रामलीला प्रारम्भ होने के पूर्व सामूहिक स्वर में रामवन्दना “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन“  का गायन किया जाता है। नाटक मंचन में दृश्य परिवर्तन के दौरान जो समय खाली रहता है उसमें विदूशक (जोकर) अपने हास्य गीतों व अभिनय से रामलीला के दर्शकों का मनोरंजन भी करता है। कुमायूं की रामलीला की एक अन्य खास विशेषता यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। आधुनिक बदलाव में अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन, नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है। 

कुमायूं अंचल में रामलीला मंचन की तैयारियां एक दो माह पूर्व (अधिकांशतः जन्माष्टमी के दिन) से होनी शुरु हो जाती हैं। तालीम मास्टर द्वारा सम्वाद, अभिनय, गायन व नृत्य का अभ्यास कराया जाता है। लकड़ी के खम्भों व तख्तों से रामलीला का मंच तैयार किया जाता है। कुछ स्थानों पर तो अब रामलीला के स्थायी मंच भी बन गये हैं। शारदीय नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन प्रारम्भ हो जाता है, जो दशहरे अथवा उसके एक दो दिन बाद तक चलता है। इस दौरान राम जन्म से लेकर रामजी के राजतिलक तक उनकी विविध लीलाओं का मंचन किया जाता है। कुमायूं अंचल की रामलीला में सीता स्वयंवर,परशुराम-लक्ष्मण संवाद, दशरथ-कैकयी संवाद, सुमन्त का राम से आग्रह, सीताहरण, लक्ष्मण शक्ति, अंगद-रावण संवाद, मन्दोदरी-रावण संवाद व राम-रावण युद्ध  के प्रसंग मुख्य आर्कषण होते हैं। इस सम्पूर्ण रामलीला नाटक में तकरीबन साठ से अधिक पात्रों द्वारा अभिनय किया जाता है।

 कुमायूं की रामलीला में राम, रावण, हनुमान व दशरथ के अलावा अन्य पात्रों में परशुराम, सुमन्त, सूपर्णखा, जटायु, निशादराज, अंगद, शबरी, मन्थरा व मेघनाथ के अभिनय देखने लायक होते हैं। यहां की रामलीला में प्रयुक्त परदे, वस्त्र, श्रृंगार सामग्री व आभषूण प्रायः मथुरा शैली के होते हैं। नगरीय क्षेत्रों की रामलीला को आकर्षक बनाने में नवीनतम तकनीक, साजसज्जा, रोशनी,व ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग होने लगा है।

कुमायूं अंचल में रामलीला का मंचन अधिकांशतः शारदीय नवरात्र में किया जाता है, लेकिन जाड़े अथवा खेती के काम की  अधिकता के कारण कहीं-कहीं गर्मियों व दीपावली के आसपास भी रामलीला का मंचन किया जाता है। 14 वर्ष तक लगातार रामलीला मंचन होने के बाद १४ वें साल में लव-कुश काण्ड का मंचन भी किये जाने की परम्परा इस अंचल में है।  कुमायूं अंचल में रामलीला मंचन की यह परम्परा अल्मोड़ा से विकसित होकर बाद में आस-पास के अनेक स्थानों में चलन में आयी। शुरुआती दौर में सतराली, पाटिया, नैनीताल, पिथौरागढ, लोहाघाट, बागेश्वर, रानीखेत, भवाली, भीमताल, रामनगर हल्द्वानी, व काशीपुर के अलावा पहाड़ी प्रवासियों द्वारा आयोजित दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, लखनऊ जैसे नगरों  की रामलीलायें प्रसिद्ध मानी जाती थी। 

उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा में आज भी तकरीबन आठ-दस मुहल्लों में बड़े उत्साह के साथ रामलीलाओं  का आयोजन किया जाता है, जिनमें स्थानीय गांवों व नगर की जनता देर रात तक रामलीला का भरपूर आनन्द उठाती हैं। अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण कुछ अलग ही होता है। दशहरे के दिन नगर में रावण परिवार के डेढ़ दर्जन के करीब आकर्षक पुतलों को पूरे बाजार में घुमाया जाता है। इन पुतलों को देखने के लिये नगर में भारी भीड़ एकत्रित होती है। 

कुमायूं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में पूर्व में जहां स्व० पं० रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद, स्व० बद्रीदत्त जोशी, स्व० कुन्दनलान साह, स्व० नन्दकिशोर जोशी, स्व० बांकेलाल साह, व स्व० ब्रजेन्द्रलाल साह  सहित कई दिवंगत व्यक्तियों व कलाकारों का योगदान रहा, स्व० ब्रजेन्द्र लाल शाह जी ने रामलीला को आंचलिक बनाने के उद्देश्य से कुमांऊनी तथा गढ़वाली बोली में भी रामलीला को रुपान्तरित किया था।वहीं वर्तमान में लक्ष्मी भंडार( हुक्का क्लब) के श्री शिवचरण पाण्डे और उनके सहयोगी  तथा हल्द्वानी के डॉ० पंकज उप्रेती सहित तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकार यहां की समृद्ध एवं परम्परागत रामलीला को सहेजने और संवारने के कार्य में लगे हुए हैं। वर्तमान में उत्तराखण्ड के लगभग हर गांव में रामलीलाओं का मंचन किया जाता है, जिनमें उत्तराखण्ड की इस समृद्ध परम्परा को सहेजने का प्रयास जारी है।