Sunday 21 June 2015

इरादे पक्के और हौसले बुलंद हों तो दुनिया की हर मुश्किल आसान हो जाती है। यूनेस्को’ पहुंचा उत्तराखंड के बेटे वीरेंद्र रावत का ‘ग्रीन’ आइडिया



इरादे पक्के और हौसले बुलंद हों तो दुनिया की हर मुश्किल आसान हो जाती है। उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी गांव से निकलकर दुनिया में नाम रोशन करने वाले वीरेंद्र रावत इसकी मिसाल हैं।

उन्होंने न केवल ग्रीन स्कूल कांसेप्ट ईजाद किया बल्कि आज देश के 100 से ज्यादा ग्रीन स्कूल उनके दिशा निर्देशन में संचालित हो रहे हैं। वीरेंद्र ने बोस्टन यूनिवर्सिटी, अमेरिका में आयोजित आठवें एनुअल एमए ग्रीन स्कूल समिट में देश में चल रहे ग्रीन स्कूल कांसेप्ट को प्रस्तुत कर खूब वाहवाही बटोरी।

मूलरूप से टिहरी गढ़वाल में प्रतापनगर ब्लॉक की उपली रमौली में हेरवाल गांव में मुकुंद सिंह रावत व बच्चा देवी रावत के घर जन्मी छह संतानों में सबसे बड़े वीरेंद्र रावत की प्रारंभिक शिक्षा दीप गांव में हुई। उन्होंने राजकीय इंटर कालेज तोलीसैण, टिहरी से 12वीं करने के बाद गढ़वाल विवि से स्नातक की पढ़ाई पूरी की।
1994 में वह नौकरी के सिलसिले में अहमदाबाद चले गए, जहां उन्होंने 1200 रुपये वेतन पर नौकरी की। रावत पर उत्तराखंड की हरियाली का गहरा असर था। वर्ष 2010 में उन्होंने अहमदाबाद में पहले ग्रीन स्कूल की स्थापना की।

नरेंद्र मोदी ने भी किया ग्रीन स्कूल का निरीक्षण
गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जब इस ग्रीन स्कूल के बारे में पता चला तो उन्होंने खुद जाकर इसका निरीक्षण किया। वीरेंद्र को तत्काल प्रदेश में इस तरह के ग्रीन स्कूल के प्रोत्साहन के लिए सलाहकार नियुक्त कर लिया।

आज वीरेंद्र रावत सीबीएसई के 10 से अधिक संबद्ध ग्रीन स्कूलों के संचालक होने के साथ ही 100 से अधिक ग्रीन स्कूलों की देखरेख का जिम्मा संभाल रहे हैं। भारत में ग्रीन एजूकेशन के क्षेत्र में दिशा निर्देशक के तौर पर वह 100 सबसे सफल निर्देशकों में गिने जाते हैं।

वीरेंद्र पहले ऐसे भारतीय हैं, जिन्हें बोस्टन यूनिवर्सिटी अमेरिका ने अपने आठवें वार्षिक एमए ग्रीन स्कूल समिट के लिए आमंत्रित किया और सम्मानित किया।

क्या है ग्रीन स्कूल कांसेप्ट
ग्रीन स्कूल कांसेप्ट पृथ्वी, जल, हवा, आग व आकाश पर आधारित है। इन स्कूलों में एंट्री करते ही प्राकृतिक सुंदरता का अहसास होता है। वीरेंद्र ने इस कांसेप्ट के तहत स्कूलों के लिए अलग से सिलेबस डिजाइन किया।
वह न केवल बोर्ड का सिलेबस पढ़ते हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण मित्र और उससे कमाई का रास्ता भी सिखाया जाता है। इसके लिए स्कूलों में वह कार्बन आधारित आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करते हैं।
बारिश का 100 प्रतिशत पानी ही सभी प्रक्रियाओं में इस्तेमाल किया जाता है। वेस्ट से खाद बनाने और पेपर रिसाइक्लिंग से लेकर प्लास्टिक रिसाइक्लिंग तक का पूरा काम पढ़ाई के दौरान ही बच्चे को सिखाया जाता है।

यहां कमाया नाम
वर्ष 2014 में डिजिटल लर्निंग मैनेजमेंट ने उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़े गेम चेंजरों की सूची में पहले स्थान पर रखा। वीरेंद्र रावत दुनिया में 300 से अधिक ग्रीन स्कूल संचालित करने वाली संस्था ‘ग्रीन स्कूल एलायंस ग्लोबल बेस्ट यूएसए’ के कॉर्डिनेटर हैं।

इसके अलावा बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट, सीयू शाह यूनिवर्सिटी, गुजरात, एनवायरमेंट एंड ग्रीन टेक्नोलॉजी बोर्ड गुजरात, टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी अहमदाबाद, इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर एनवायरमेंट एजूकेशन यूएसए, एनवायरमेंट एजूकेशन कमेटी, सीबीएसई के सदस्य होने के साथ ही यंग मास्टर प्रोग्राम ऑन सस्टेन एबिलिटी, यूनेस्को के प्रमाणित प्रशिक्षक भी हैं।

इसी वर्ष आयोजित वाइब्रेंट गुजरात 2015 में वीरेंद्र सिंह रावत ने ग्रीन स्कूल प्रोजेक्ट को पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत किया।

तीन साल में छात्र, शिक्षक कोई बीमार नहीं
वीरेंद्र ने बोस्टन में अपने लेक्चर में बताया कि बेहद प्राकृतिक किस्म के इन स्कूलों में तीन वर्षों से न तो कोई छात्र बीमार हुआ और न ही किसी शिक्षक ने बीमारी की छुट्टी ली है।
ग्रीन उद्यमियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। छात्रों में उद्यमिता विकास होने के साथ ही पढ़ाई के दौरान वह पर्यावरण भी बचाते हैं और कमाई भी सीखते हैं। शादी समारोहों में केवल ग्रीन गिफ्ट का ही प्रचलन भी तेजी से बढ़ गया है।

2020 तक 2000 ग्रीन स्कूल का लक्ष्य

इन दिनों अमेरिका में मौजूद वीरेंद्र रावत ने ई-मेल के माध्यम से बताया कि आज वह गुजरात में 100 ग्रीन स्कूलों के निर्देशक हैं, जिनमें 61 सरकारी ग्रीन स्कूल शामिल हैं। उनका मकसद वर्ष 2020 तक 2000 ग्रीन स्कूलों की स्थापना है।

विरेंद्र पहले और अकेले भारतीय बन गए हैं

केंद्र ने यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) की ओर से पहली बार मिलने जा रहे ‘यूनेस्को-जापान प्राइज ऑन एजुकेशन फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ के लिए विरेंद्र का नाम भेज दिया है। यह मुकाम हासिल करने वाले विरेंद्र पहले और अकेले भारतीय बन गए हैं।


Wednesday 3 June 2015

एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत !आओ, अपने मन को टोवें!व्यर्थ देह के सँग मन की भी निर्धनता का बोझ न ढोवें


एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत !

आओ, अपने मन को टोवें! 
व्यर्थ देह के सँग मन की भी 
निर्धनता का बोझ न ढोवें

सुमित्रानंदन पंत (मई 20, 1900 - 1977) हिंदी में छायावाद युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनका जन्म अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में मई 20, 1900 को हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाई दत्त। वे सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे।






पंत जी हिन्दी के छायावादी युग चार के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रकृति के एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी बचपन से ही काव्य प्रतिभा के धनी थे और 16 वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता रची “गिरजे का घंटा”। तब से वे निरंतर काव्य साधना में तल्लीन रहे।

कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, “संभवतः प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं।” अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेजी कवियों का प्रभाव भी है।

‘उच्छ्वास’ से लेकर ‘गुंजन’ तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं – प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्रकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा


“मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। ”
पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।

नियति ने ही निज कुटिल कर से सुखद
गोद मेरे लाड़ की थी छीन ली,
बाल्य ही में हो गई थी लुप्त हा!
मातृ अंचल की अभय छाया मुझे।

मां की कमी उन्हें काफी सालती रही और प्रकृति माँ की गोद का सहारा मिला तो मानों वे उसके लाड़ से अपने आप को पूरी तरह सरोबार कर लेना चाहते थेः

“मातृहीन, मन में एकाकी, सजल बाल्य था स्थिति से अवगत,
स्नेहांचल से रहित, आत्म स्थित, धात्री पोषित, नम्र, भाव-रत

हालाकि पंत जी ने गद्य की भी कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई लेकिन मूलतः वे कविता के प्रति ही समर्पित थे। 1918 से 1920 तक की उनकी अधिकांश रचनाएं ‘वीणा’ में छपी हैं। यद्यपि अपनी आरंभिक रचनाओं ‘वीणा’ और ‘ग्रंथि’ से पंत जी ने काव्यप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा ज़रूर पर एक छायावादी कवि के रूप में इनकी प्रतिष्ठा ‘पल्लव’ से ही मिली। ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएं कॉलेज में पढने जब वे प्रयाग आए, उसी दौरान लिखी गईं। पंत जी कहते हैं, “शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों से बहुत-कुछ मैंने सीखा। मेरे मन में शब्द-चयन और ध्वनि-सौन्दर्य का बोध पैदा हुआ। ‘पल्लव’-काल की प्रमुख रचनाओं का आरम्भ इसके बाद ही होता है।”

प्रकृति-सौन्दर्य और प्रकृति-प्रेम की अभिव्यंजना “पल्लव” में अधिक प्रांजल तथा परिपक्व रूप में हुई है। इस संग्रह के द्वारा पंत जी प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर काव्य के भाव-विशद सौन्दर्य प्रासाद में प्रवेश पा सके। छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि ‘मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।’

पल्लव को आलोचक भी छायावाद का पूर्ण उत्कर्ष मानते हैं। डॉ. नगेन्द्र का मानना है, “‘पल्लव’ की भूमिका हिंदी में छायावाद-युग के आविर्भाव का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।” भाव, भाषा, लय और अलंकरण के विविध उपकरणों का बड़ी कुशलता से इसमें समावेश किया गया है। ‘पल्लव’ में प्राकृतिक रहस्य की भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत हो गयी है। इसकी सीमाएं छायावादी अभिव्यंजना की सीमाएं हैं। इसमें पंत जी कल्पना द्वारा नवीन वास्तविकता की अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे थे। इसके साथ ही इसमें मानव जीवन की अनित्य वास्तविकता के भीतर सत्य को खोजने का प्रयत्न भी है, जिसके आधार पर नवीन वास्तविकता का निर्माण किया जा सके।

कवि पंत की रचनाओं को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे स्वयं प्रकृति स्वरूप थे। उनकी विभिन्न रचनाओं में ऐसा लगता है जैसे कवि प्रकृति से बात कर रहा हो, अनुनय कर रहा हो, प्रश्न कर रहा हो। मानों प्रकृति कविमय हो गई है और कवि प्रकृतिमय हो गया है। प्रकृति से परे सोचना उनके लिए असंभव सा थाः-

“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन॥ ”

कवि सम्राट पंत जी ने स्वयं माना कि छायावाद वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है। अपनी संकुचित परिभाषा के कारण कुछ लोग पंत की रचनाओं में भी केवल पल्लव और पल्लव में भी कुछेक कविताओं को ही छायावाद के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। मौन निमंत्रण में अज्ञात की जिज्ञासा होने के कारण रहस्यवाद है, अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता के कारण छायावाद है और कल्पनालोक में स्वच्छंद विचरण करने के कारण स्वच्छंदतावाद भी है। पंत का रहस्य भावना ‘अज्ञात’ की लालसा के रूप में व्यक्त हुई है। पंत सीमित ज्ञान की सीमा को तोड़कर प्रकृति और जगत के प्रति जिज्ञासु की तरह देखते हैं। पंत का बालक मन हर चीज से सवाल पूछता है।
प्रथम रशमि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना

‘गुंजन’, विशेषकर ‘युगांत’ में आकर पंत की काव्य यात्रा का प्रथम चरण समाप्त हो जाता है। ‘गुंजन’-काल की रचनाओं में जीवन-विकास के सत्य पर पंत जी का विश्वास प्रतिष्ठित हो जाता है।

सुन्दर से नित सुन्दरतर, सुन्दरतर से सुन्दरतम
सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर सुन्दर जग जीवन!

उनकी काव्य यात्रा का दूसरा चरण ‘युगांत’, ‘युग-वाणी’ और ‘ग्राम्या’ को माना जा सकता है। इस काल तक आते-आते कवि स्थायी वास्तविकता के विजय-गीत गाने को लालायित हो उठता है और उसके लिए आवश्यक साधना को अपनाने की तैयारी करने लगता है, उसे ‘चाहिए विश्व को नव जीवन’ का अनुभव भी होने लगता है।

नवीन जीवन तथा युग-परिवर्तन की धारणा को सामाजिक रूप देने की कोशिश ‘युगान्त’ में सक्रिय रूप में सामने आई है। ‘युगान्त’ की अधिकांश कविताएं कवि की तीखी भाव चेतना के परिवर्तन का संकेत देती हैं। यह परिवर्तन वस्तुवादी चेतना के प्रति अधिक आग्रहशील दिखता है। “द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त, ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण” में जहां ओजपूर्ण आवेश है वहीं गा कोकिल में नवीन जीवन पल्लवों से सौन्दर्य-मंडित करने का भी आग्रह है।

गा कोकिल, बरसा पावक कण
नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन 
झरे जाति-कुल; वर्ण-पर्ण धन 
व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष-रण 
झरें-मरें विस्मृत में तत्क्षण 
गा कोकिल, गा, मत कर चिन्तन -

‘ग्राम्या’ प्रगतिशील आन्दोलन के प्रभाव के अन्तर्गत लिखी हुई रचना है। इसमें मार्क्सवाद, श्रमिक-मज़दूर, किसान-जनता के प्रति इन्होंने भावभीनी सहानुभूति प्रकट की है।

जगती के जन-पथ कानन में
तुम गाओ विहग अनादि गान।
चिर-शून्य शिशिर-पीड़ित जग में,
निज अमर स्वरों से भरो प्राण।

‘ग्राम्या’ 1940 की रचना है, जब प्रगतिवाद हिन्दी साहित्य में घुटनों के बल चलना सीख रहा था। पंत जी कहते हैं, “‘ग्राम्या’ में मेरी क्रान्ति-भावना मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित ही नहीं होती, उसे आत्मसात्‌ कर प्रभावित करने का भी प्रयत्न करती है।”

भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहां आत्म-दर्शन अनादि से समासीन अम्लान।

इन सब के साथ-साथ आदर्श तथा यथार्थ के बीच व्यवधान पंत जी के भीतर बना ही रहा। कवि के मन में आदर्श और यथार्थ की चिन्तन-धाराओं का संघर्ष तथा मंथन चलता रहा। डॉ.. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है,
“मार्क्सवाद में श्री सुमित्रानंदन पंत का व्यक्तित्व अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं पा सकता।”

शीघ्र जी फिर वे अपने परिचित पथ पर लौट आये। मार्क्सवाद का भौतिक संघर्ष और निरीश्वरवाद पंत जैसे कोमलप्राण व्यक्ति का परितोष नहीं कर सकते थे। काव्य यात्रा के तीसरे चरण की रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘युग पथ’, ‘अतिमा’, ‘उत्तरा’ में वे महर्षि अरविन्द से प्रभावित होकर आध्यात्मिक समन्वयवाद की ओर बढ़ते दिखते हैं। कवि की अनुभूति वस्तु जगत को समेटती हुई उस बौद्धिक चेतना से ऊपर उठकर एक सूक्ष्म अतिमानवीय चेतना को ग्रहण करती लगती है।

सामाजिक जीवन से कहीं महत्‌ अंतर्मन,
वृहत्‌ विश्व इतिहास, चेतना गीता किंतु चिरंतन।

इस चरण को पंत जी के चेतना-काव्य का चरण कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने मानवता के व्यापक सांस्कृतिक समन्वय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

भू रचना का भूतिपाद युग हुआ विश्व इतिहास में उदित,
सहिष्णुता सद्भाव शान्ति से हों गत संस्कृति धर्म समन्वित।

पंत जी की कव्य यात्रा का चौथा चरण ‘कला और बूढ़ा चांद’ से लेकर ‘लोकायतन’ तक की है। इसमे उनकी चेतना मानवतावाद, खासकर विश्व मानवता की ओर प्रवृत्त हुई है। इन रचनाओं में लोक-मंगल के लिए कवि व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य के महत्व को रेखांकित करता है।

हमें विश्व-संस्कृति रे, भू पर करनी आज प्रतिष्ठित,
मनुष्यत्व के नव द्रव्यों से मानस-उर कर निर्मित।

‘लोकायतन’ कविवर पंत के लोक-कल्याण संबंधी नेक इरादे का भव्य एवं कलात्मक साक्षात्कार कराता है। अरविन्द दर्शन से प्रभावित होकर पंत की चेतना इस चरण में फिर से वापस लौटकर अपने प्रथम चरण की चेतना से जुड़ जाती है। अरविन्द दर्शन के प्रभाव में आने के बाद पंत को भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय का एक ठोस आधार प्राप्त हो गया।

समग्र रूप से देखें तो पाते हैं कि कवि के चिंतन में अस्थिरता है। निराला और पंत की जीवन-दृष्टि और काव्य-चेतना की तुलना करें तो हम पाते हैं कि निराला की जीवन-दृष्टि का लगातार एक निश्चित दिशा में विकास होता है जबकि पंत का दृष्टि विकास एक दिशा में न होकर उसमें कई मोड़ आते हैं। कभी वे प्रकृति में रमे रहते हैं तो कभी मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन और गांधीवाद की गलियों के चक्कर लगाते हैं। ‘ग्रंथि’ से ‘पल्लव’ और ‘पल्लव’ से ‘गुंजन’, ‘ज्योत्सना’ और ‘युगांत’ में वे क्रमशः शरीर से मन और मन से आत्मा की ओर बढ़ रहे थे। बीच में ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में आत्म-सत्य की अपेक्षा वस्तु-सत्य पर बल देते हैं। ‘स्वर्णकिरण’, और ‘स्वर्णधूलि’ में फिर से वे आत्मा की ओर मुड़ जाते हैं।

फिर भी ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’ जैसी रचनाओं द्वारा पंत जी छायावादी काव्य-धारा को सम्पन्न बनाया। वे छायावादी कविता के अनुपम शिल्पी हैं। उनकी भाषा में कोमलता और मृदुलता है। हिन्दी खड़ी बोली के परिष्कृत रूप को अधिक सजाने-संवारने में इनका योगदान उल्लेखनीय है। भाषा में नाद व्यंजना, प्रवाह, लय, उच्चारण की सहजता, श्रुति मधुरता आदि का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। शैली ऐसी है जिसमें प्रकृति का मानवीकरण हुआ है। भावों की समुचित अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत सहज अलंकार विधान का सृजन उन्होंने किया। नये उपमानों का चयन इनकी प्रमुख विशेषता है। उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपमानों का सर्वथा एक नया रूप देखने को मिलता है। जैसे

“पौ फटते, सीपियाँ नील से
गलित मोतियां कान्ति निखरती”
या
“गंध गुँथी रेशमी वायु”
या
“संध्या पालनों में झुला सुनहले युग प्रभात”

इसी तरह उन्होंने छाया को, “परहित वसना”, “भू-पतिता” “व्रज वनिता” “नियति वंचिता” “आश्रय रहिता” “पद दलिता” “द्रुपद सुता-सी ” कहा है। इस तरह उन्होंने भाषा को एक नया अर्थ-संस्कार दिया।

ध्वन्यार्थ व्यंजना, लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शैली के उपयोग द्वारा उन्होंने अपनी विषय-वस्तु को अत्यंत संप्रेषणीय बनाया है। शिल्प इनका निजी है। पंत जी की भाषा शैली भावानुकूल, वातावरण के चित्रण में अत्यंत सक्षम और समुचित प्रभावोत्पादन की दृष्टि से अत्यंत सफल मानी जा सकती है।

उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। आकर्षक और कोमल व्यक्तित्व के धनी कविवर सुमित्रा नंद पंत जिस तरह से अपने जीवन काल में सभी के लिए प्रिय थे उसी तरह से आज भी आकर्षण का केंद्र हैं। प्रकृति का परिवर्तित रूप सदा पंतजी में नित नीवन कौतूहल पैदा करता रहा। उन्होंने सबकुछ प्रकृति में और सब में प्रकृति का दर्शन किया। यही कारण है कि वे प्रकृति के सुकुमार चितेरे थे और अंत में शास्वत सत्य की जिज्ञासा उन्हें अरविंद दर्शन, स्वामी रामकृष्ण आदि के विचारों की ओर खींच ले गई। इस प्रकार उन्होंने काव्य सृजन से वे चारों पुरूषार्थ उपलब्ध किए जो काव्य का फल हैं। अंत में ‘आंसू’ की ये पंक्तियां ...

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।

हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968) तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौशानी में उनके पुराने घर को जिसमें वे बचपन में रहा करते थे, सुमित्रानंदन पंत वीथिका के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।

उनका देहांत 1977 में हुआ। आधी शताब्दी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकर्म में आधुनिक हिंदी कविता का पूरा एक युग समाया हुआ है।




Saturday 30 May 2015

काफल पाको मैं नि चाख्यो !बेडुपाको बार मासा,हो नरैण काफल पाको चैता मेरि छैला।









काफल, एक ऐसा फल जिसका नाम सुनते ही स्थान विशेष उत्तराखण्ड के लोगों का मन अनुपम आनंद से भर उठता है। इस फल का महत्त्व इसी बात से आँका जा सकता है कि यह वहाँ के लोगों के मन में इस प्रकार छाया है कि लोक गीत-संगीत, लोक कथाएँ भी इसके बिना अधूरी सी हैं। कुमाऊँनी भाषा के आदि कवि माने जाने वाले गुमानी जी ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है -

खाणा लायक इंद्र का, हम छियाँ भूलोक आई पणां।  पृथ्वी में लग यो पहाड़ ,हमारी थाती रचा देव लै। 
योई चित्त विचारी काफल सबै राता भया  कोई बड़ा -खुड़ा शरम लै काला धुमैला भया। 

अर्थात काफल अपना दुःख इस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए, और पृथ्वी पर भी इन पहाड़ों को ईश्वर ने हमारा स्थान बनाया, इसी बात को विचारते हुए सारे काफल गुस्से से लाल हो गए और कुछ बूढ़े बुजुर्ग तो शरम के मारे काले और मटमैले हो गए।
उत्तराखण्ड के लोक गीत को विश्व में पहचान दिलाने वाले इस प्रसिद्द गीत की पंक्तियाँ हैं-


              बेडुपाको बार मासा,हो नरैण काफल पाको चैता मेरि छैला। 

इसमें चैत के महीने में काफल पकने की सूचना निहित है। बेडू का फल तो बारहों महीने फलता है पर काफल केवल चैत के महीने में ही पक कर तैयार होता है (बेडू भी एक स्वादिष्ट जंगली फल है जो अंजीर की तरह होता है)ये पंक्तियाँ एक लोक गीत की हैं।

यहाँ की एक अति प्रसिद्द लोक कथा "काफल पाको मैं नि चाख्यो'' है, जो इस प्रकार है-

किसी गाँव में एक महिला अपनी बेटी के साथ रहती थी जो खेती बाड़ी से अपना गुजर करती थी। गर्मियों के दिन थे, जंगलों में काफल पक चुके थे। महिला सुबह ही काफल तोड़ के ले आई। उसने उनको छाया में फैला कर रख दिया। बेटी से कहा कि इनका ध्यान रखना, पर खाना नहीं, मैं खेतों से लौटकर आऊँगी तब दूँगी। बेटी ने माँ की आज्ञा का पालन किया, मन ललचाने पर भी एक दाना नहीं खाया। बैठे बैठे उसकी आँख लग गई । माँ जब वापस आई तो देखा कि काफल तो बहुत कम लग रहे हैं, उसे लगा कि अवश्य ही बेटी ने काफल खा लिए और अब सो रही है। उसने गुस्से में आव देखा न ताव, बेटी को झकझोर कर उठाया और पटक दिया। बेटी आधी नींद में जग कर कुछ कर पाती पर गहरी चोट से उसके प्राण पखेरू उड़ गए। थोड़ी देर बाद शाम होने को आई शीतल बयार चली तो काफल फिर से अपने पुराने रूप में आगये ज़रा भी कम न थे। महिला को अब समझ आया कि काफल तो उतने ही हैं बेटी ने नहीं खाये थे। दर असल धूप के कारण काफल मुरझा गए थे। पश्चाताप में माँ ने अपना सर पीट लिया और बोली कि काफल तो पूरे हैं और प्राण त्याग दिए। कहते हैं कि वे दोनों ही पक्षी बन आज भी गर्मी के दिनों में जंगल में कूकती रहती हैं। एक चिड़िया इन स्वरों में कहती है "काफल पाको मैं नि चाख्यो " अर्थात काफल पक गए हैं पर मैंने नहीं चखे। तभी दूसरी चिड़िया के स्वर गूँजते हैं। ".के कर पुतई पूरे पूरे पूरे" क्या करूँ बेटी काफल पूरे हैं। बिना कारण जाने अकस्मात उत्तेजित होकर काम न करने की प्रेरणा देती यह कहानी जन मानस में रची बसी है।

ऐसा अद्भुत फल है काफल। इसे कुछ लोग काय फल भी कहते हैं। नाम के विषय में भी लोगों का दिलचस्प कथन मिलता है। कहीं अगर किसी विदेशी के पूछने पर कि का फल है? पूछने पर उसे उत्तर भी मिलता है काफल? प्रश्न उत्तर की खीज से बहुत असमंजस की स्थिति में किसी जानकार ने दोनों को समझाया कि वास्तव में इस फल का नाम ही काफल है।

मध्य हिमालयी क्षेत्रों में ,लगभग १२०० से २१०० मी॰ की ऊँचाई वाले जंगलों में इसके वृक्ष पाये जाते हैं। उत्तराखण्ड ,हिमाचल प्रदेश तथा देश के अन्य पर्वतीय इलाकों में भी इसके वृक्ष मिलते हैं। नेपाल में भी काफल मिलता है। इसको वनस्पति शास्त्र में मीरिका एस्कुलेंटा (Myrica Esculenta) पेड़ों की ऊँचाई करीब १० से १५ मी॰ तक होती है। गर्मी के मौसम में इसमें फल लगते हैं। फलों का आकार छोटा और कुछ गोलाकार होता है। ये गुच्छों में लगते हैं आरम्भ में हरे रंग के होते हैं और पकने पर गहरे लाल, भूरे और बैगनी रंग के हो जाते हैं। खट्टे मीठे स्वाद युक्त होते हैं कुछ सख्त सी गुठली छोटे छोटे दानों से भरी हुई होती है स्वादिष्ट होने के साथ साथ यह फल स्वास्थ्य वर्धक भी होता है। पेड़ की छाल भी कई औषधियाँ बनाने के काम आती है। आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा पद्धति में इनका काफी उपयोग होता है। ताज़े फलों को तोड़ कर नमक और सरसों का तेल लगा कर खाया जाता है । चटनी भी बनाई जाती है। गर्मी के दिनों में आस पास के ग्रामीण के सुबह ही जंगलों में जाकर डलियों-टोकरियों में भरकर ले आते हैं और सभी को बाँटते हैं और नजदीक के शहरों में या सड़क किनारे बैठ कर सैलानियों को बेचते भी हैं। इस तरह कुछ आमदनी हो जाती है।

यद्यपि इस फल और इसके वृक्षों से वहाँ के लोगों को धन अर्जन करने में मदद मिल सकती है परन्तु ऐसा सम्भव नहीं होता है। इसके कई कारण है। एक तो इस के वृक्ष जंगलों में होते हैं जहाँ पहुँचना आसान नहीं। दूसरा इसके फलों को अधिक समय तक नहीं रखा जा सकता। ये जल्दी ही ख़राब और स्वाद हीन हो जाते हैं अतः तोड़ने के बाद शीघ्र ही उपलब्ध बाज़ारों तक नहीं पहुँच पाते।

इसके वृक्ष स्वयं प्रकृति में उगते हैं। इन्हें बीजारोपण से नहीं उगाया जा सकता है। अब कृषि वैज्ञानिकों ने कुछ सफल अनुसंधानों के बल पर आशा का संचार किया है, जिससे निकट भविष्य में काफल के वृक्षों को बागों में उगाया जा सकेगा। अमृत स्वरूपी इस फल का स्वाद चखने के लिए एक बार गर्मियों के मौसम में यानी चैत बैशाख की की ऋतु में पहाड़ की यात्रा करनी पड़ेगी।

ज्योतिर्मयी पंत

Tuesday 12 May 2015

अतुल जोशी !प्रतिभा कभी संसाधनों की मोहताज नहीं होती !किसान के बेटे ने इसरो की परीक्षा में देशभर में पहला स्थान हासिल किया है


अतुल  जोशी !किसान के बेटे ने भा रतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की परीक्षा में देशभर में पहला स्थान हासिल किया है !



देहरादून: दून के एक किसान के बेटे ने भा रतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की परीक्षा में देशभर में पहला स्थान हासिल किया है। केदारपुर निवासी अतुल जोशी इस उपलब्धि के बाद इसरो में युवा वैज्ञानिक के तौर पर ट्रेनिंग हासिल करेंगे। आईआईटी दिल्ली से स्नातकोत्तर करने वाले अतुल ने इसी वर्ष भा रतीय इंजीनियरिंग सेवा में भी 34वीं रैंक हासिल की है। प्रतिभा कभी संसाधनों की मोहताज नहीं होती। कोचिंग के लिए पैसे न होने पर केदारपुर निवासी संतोषानंद जोशी का बेटा अतुल अपने पसंदीदा कोर्स के लिए आवेदन नहीं कर सके। खेती बाड़ी कर किसी तरह जीवन यापन करने वाले संतोषानंद ने हमेशा अतुल को प्रेरित करने का काम किया। संसाधन न होने के बावजूद अतुल ने भी हिम्मत नहीं हारी और मेहनत जारी रखी। बीटेक करने के साथ-साथ एमटेक के लिए भी तैयारी की। बीटेक (इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन) करने के बाद उन्होंने 99.93 परसेंटाइल के साथ आईआईटी दिल्ली में प्रवेश हासिल कर लिया। इसके बाद उन्होंने आइआइटी दिल्ली से कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में एमटेक पूरा किया।

अतुल जोशी ने अपने माता-पिता के विश्वास और शिक्षकों के मागदर्शन को सफलता का श्रेय दिया। उन्होंने बताया कि वह बचपन से ही वैज्ञानिक बनकर अपने अभिभा वकों, शिक्षकों और राज्य का नाम रोशन करना चाहते थे। अब उन्हें मौका मिला है और वे अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं। ग्राफिक एरा विवि ने शुक्रवार को अतुल के सम्मान में अभिनंदन समारोह आयोजित किया।

कुमाऊं के रहने वाले अतुल जोशी का परिवार लंबे समय से केदारपुर, मोथरोवाला में रहता है। पिता संतोषानंद जोशी किसान हैं। उनके तीन बच्चों में अतुल सबसे छोटा बेटा है। अतुल ने अतुलनीय सफलता हासिल कर न केवल विवि बल्कि अपने परिवार और राज्य का भी सिर गर्व से ऊंचा किया है। ‘इसरो साइंटिस्ट एग्जाम’ में पहली रैंक हासिल कर वह वैज्ञानिक बन गए हैं। वह जुलाई में बतौर वैज्ञानिक इसरो ज्वाइन करने जा रहे हैं। यहां उनका काम सैटेलाइट से होने वाले कम्युनिकेशन पर काम करना है। बेटे की इस कामयाबी पर माता गीता बेहद खुश हैं। 

Thursday 30 April 2015

सॉफ्टड्रिंक्स का सेवन डायबटीज का बुलावा!“Change will not come if we wait for some other person or some other time.


" Change will not come if we wait for some other person or some other time. We are the ones we've been waiting for. We are the change that we seek. "

अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के अनुसार पूरी दुनिया में हर वर्ष एक लाख अस्सी हजार मौतें सॉफ्टड्रिंक्स की वजह से होती हैं, जो कि केंसर और एड्स से होने वाली कुल मौतों से भी ज्यादा है।आज विश्व के नवजवानों में डायबटीज की बीमारी बहुत तेजी से फ़ैल रही है. हर साल कम से कम एक करोड़ लोग इसके शिकार हो रहे हैं. पहले यह बीमारी इस तरह नहीं फैलती थी और इस रोग को पीढ़ीगत रोग माना जाता था. आखिर क्या कारण है कि आज डायबटीज एक महामारी से भी बड़ी बीमारी बनती जा रही है?




इसका एक मात्र कारण सॉफ्टड्रिंक्स पीने और पिलाने का चलन हो गया है. एक छोटी सी 350 मि.ली. की बाटल पीने के बाद उसके कारण हमारे शरीर के अति महत्वपूर्ण अंगो जैसे कि लीवर, किडनी और हार्ट पर क्या असर पड़ता है; आइये इसकी हम एक झलक देखते हैं –

1) 10 मिनिट में हमारे शरीर की कुल दैनिक जरूरत से ज्यादा 10 चम्मच शक्कर हमारे अंदर पहुँच जाती है. सॉफ्टड्रिंक में मौजूद फास्फोरिक एसिड इस मिठास को हमे महसूस नहीं होने देता, वर्ना हमे उल्टी हो जाती और यह शुगर बाहर निकल जाती।

2) 20 मिनिट बाद हमारा शरीर बहुत सारा इन्सुलिन तेजी से बनाता है और ब्लड शुगर लेवल तेजी से बढ़ता है; फिर इतनी शुगर को पचाने के लिये हमारे लीवर को ओवरलोडिंग में काम कर इस शुगर को फेट में परिवर्तित करना पड़ता है, जिससे हमारा मोटापा बढ़ने लगता है।

3) 40 मिनिट बाद सॉफ्टड्रिंक में मौजूद कैफीन शरीर में समा जाती है. इस कारण हमारी आखों की पुतलियाँ ज्यादा खुल जाती हैं और ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, जिसके कारण ह्रदय की भी ओवरलोडिंग होने लगती है. हार्ट को और ज्यादा एनर्जी देने के लिये लीवर को बहुत ज्यादा शुगर ब्लड में पंप कर ह्रदय की तीव्र गतिशीलता बनाये रखने की कोशिश की जाती है।

4) 45 मिनिट बाद शरीर में डोपमाइन नामक केमिकल बनता है, जिससे मन को आनंद का एहसास होता है. इस तरह वह मनुष्य इस सॉफ्टड्रिंक का आदी बन जाता है. यह क्रिया ऐसी ही होती है जैसे कि हेरोइन आदि नशीली वस्तुओं को लेने के बाद होती है।

5) 60 मिनिट बाद सॉफ्टड्रिंक में मौजूद फास्फोरिक एसिड हमारे शरीर के पोषण के लिये जरूरी केल्शियम, मैग्नीशियम और जिंक को हमारी आँतों में ही रोक लेता है. फिर केफीन इनसे क्रिया कर इन्हें मल-मूत्र के साथ शरीर से बाहर कर देता है. इस तरह हमारे शरीर के पोषण व विकास के लिये जरूरी केल्शियम, मैग्नीशियम और जिंक बिना किसी फायदे के निष्फल हो जाते हैं।

6) इम्पीरियल कॉलेज लंदन की रिसर्च के अनुसार सॉफ्टड्रिंक की हर बोतल के साथ टाइप-2 डायबटीज का खतरा 20% ज्यादा बढ़ जाता है. इसका कारण यह है कि सॉफ्टड्रिंक में मौजूद कैरेमल नामक रसायन हमारे शरीर में इन्सुलिन बनने की प्रक्रिया को धीमे कर देता है. फिर एक दिन ऐसा आता है, जब हमारा शरीर इन्सुलिन बनाना पूरी तरह बंद कर देता है और हमें भी डायबटीज हो जाती है।

7) प्रो. निक वेअरहेम लंदन के अनुसार अब वक़्त आ गया है, जब हमें चाहिये कि सॉफ्टड्रिंक की बोतलों के प्रयोग पर भी तम्बाकू उत्पादों की तरह ही स्वास्थ्य चेतावनी रहे।

8) हमारे महानायक श्री अमिताभ बच्चन ने 24 करोड़ रुपयों में सॉफ्टड्रिंक्स का आठ साल के लिये विज्ञापन किया था. उन्हें जब एक लड़की ने बताया कि सॉफ्टड्रिंक में जहर होता है, तो फिर उन्होंने इस घटना को पेप्सी से पूरा पैसा लेने के बाद बताया जरूर, लेकिन सिर्फ 10 साल बाद. वे महानायक हैं; हमारे करोड़ो युवा उनकी कही हर बात को मानते हैं. अगर उन्हें पता चल गया था, तो उन्होंने उसी समय क्यों नहीं बताया? इस बीच डायबटीज के जो लाखों मरीज बढ़े होंगे, उनमें उनका भी कुछ योगदान है।

9) हमारे अधिकांश अन्य फ़िल्मी नायक और क्रिकेट खिलाड़ी भी इन सॉफ्टड्रिंक्स का प्रचार-प्रसार करोड़ो रूपये लेकर करते हैं. वे भी इस लोगों को बीमार बनाने के पाप में बराबर के सहभागी हैं।

10)   हमारे जीनियस अभिनेता आमिर खान “सत्यमेव-जयते” नामक तथाकथित सत्य को उजागर करने का सीरियल बनाते है और इन सॉफ्टड्रिंक्स बनाने वालों से करोड़ो रूपये लेकर प्रचार-प्रसार करते हैं।

11)   “सत्यमेव-जयते” के एक एपिसोड में उन्होंने रेप पीड़ित महिलाओं की व्यथा कथा सुनाई थी. इस व्यथा
कथा को सुनाकर उन्होंने इस एपिसोड से भी करोड़ो रुपये कमाये होंगे।

12)   हमारे देश की बेबस महिलाओं के दर्द की व्यथा-कथा से भी पैसे कमाना क्या उचित है? उन्हें चाहिये कि वे इस तरह के इन एपिसोडों से जितना भी पैसा कमायें, उसे उन्ही लोगो में बाँट दे, जिनकी पीड़ा दिखाकर वे कमा रहे हैं. क्या वे ऐसा करेंगे?

13)   इसी तरह सॉफ्टड्रिंक्स के प्रचार-प्रसार से प्राप्त राशी को भी उन्हें डायबटीज से पीड़ित लोगों में बांटना चाहिये।



" अगर हम किसी और व्यक्ति या समय का इंतज़ार करेंगे तो बदलाव नहीं आएगा . हम ही वो हैं जो इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं . हम ही वो बदलाव हैं जो हम चाहते हैं "

Monday 13 April 2015

जीवन व्यस्त भले ही हो, लेकिन अस्त-व्यस्त नहीं !किसी ने सही कहा है कि दुनिया को जीतने से पहले हमें स्वयं को जीतना चाहिए


वर्तमान जीवन का हाल यह है कि यहां चीजें सरपट भाग रही हैं। लोग जल्दी में हैं। उन्हें डर है कि कहीं धीमें पड़ गए तो आगे बढ़ने की रेस में पीछे न छूट जाएं। इस आपाधापी में वे तमाम तरह की गड़बडि़यों में शामिल हैं। इसी तरह के जीवन ने व्यक्ति को लापरवाह एवं अस्तव्यस्त बनाया है। न सोने का कोई टाइम है, न जागने का। न काम की कोई जवाबदेही और न दिनचर्या का अता-पता। हमें अस्त-व्यस्त हमारी सोच करती है, दूसरा कोई नहीं। असल में जीवन में छोटी-छोटी समस्याएं आती रहती है, लेकिन प्रगति का घोंसला छोटी-छोटी आदतों के तिनकों से बुनकर ही तैयार होता है। इसलिये अपने जीवन के हर पल को सार्थक बनाने के लिये व्यस्त भले ही बने, लेकिन अस्त-व्यस्त नहीं। सही समय पर सही कार्य करना ही संतुलित जीवन का आधार है। जो समय बीत गया वह फिर नहीं आता। इसलिये समय को पहचानो, समय की परवाह करो अन्यथा समय तुम्हारी परवाह नहीं करेगा।

आप इस क्षण में यदि असंतुष्ट हैं तो किसी अन्य क्षण में भी असंतुष्ट ही रहेंगे। आप अपनी वर्तमान अवस्था में यदि संतुष्ट नहीं है और सोच रहे हैं कि अमुक जैसे हो जाए तब संतुष्ट हो जायेंगे, सुखी हो जायेंगे तो यह आपके मन का भ्रम ही है। मन की परिधि पर जीने वाला व्यक्ति मन की मानकर जीने वाला व्यक्ति कभी भी सुखी जीवन नहीं जी सकता। वह सदैव असंतुष्ट रहेगा क्योंकि असंतुष्ट रहना मन का स्वभाव है। मन सदा भविष्य में जीता है, महत्वाकांक्षा में जीता है, दूसरों जैसे होने की चाह से भरा रहता है मन सदा।

दुनिया में असफल लोगों की दो श्रेणियां हैं। एक वे लोग जो विचार पर पूरा मनन नहीं करते और बिना योजना के कार्यान्वयन पर उतर आते हैं और दूसरे वे जो हर विचार पर खूब मनन करते हैं, योजना बनाते हैं परन्तु इसको आगे नहीं बढ़ाते उसे कार्य रूप नहीं देते। सही तरीका है कि विचार पर मनन करें। अपने समय, साधन और समझ के अनुरूप योजना बनाएं और कार्यक्षेत्र में कूद पड़े। हमें सदा परिश्रम करते रहना चाहिए क्योंकि परिश्रम से जो संतुष्टि मिलती है वह और किसी चीज से नहीं मिलती। वास्तव में संसार के सभी चर्चित महापुरुष हमारे जैसे इंसान ही थे। यह उनका तप और त्याग था जिसकी वजह से वे महानता अर्जित कर सके और शिखर तक पहुंचे।

योगशास्त्र में एक शब्द आता है- सजगता। इसका अर्थ है आप जो भी करें, जाग कर करें, होशपूर्वक करे। आप जो कर रहे हैं और जो बोल रहे हैं उसका आपको बोध होना चाहिए। अपने कर्तव्य का बोध, अपने वक्र्तृत्व का बोध यदि आपके भीतर नहीं होगा तो उसका परिणाम तेली के बैल के समान ही रहेगा। जीवन भर चलकर भी तेली का बैल कहीं पहुंचता नहीं, एक ही सर्कल में घूमता रहता है।

शिक्षित-सा दिखने वाला एक युवक दौड़ता हुआ आया और टैक्सी ड्राइवर से बोला-‘‘चलो, जरा जल्दी मुझे ले चलो।’’ हाथ का बैग उसने टैक्सी में रखा और बैठ गया। ड्राइवर ने जल्दी से टैक्सी स्टार्ट कर दी और पूछा-‘‘साहब, कहां चलना है?’’ युवक ने कहा-‘‘अरे, कहां-वहां का सवाल नहीं है, सवाल जल्दी पहुंचने का है। बिना लक्ष्य के ही ड्राइवर ने टैक्सी को दौड़ा दिया।

ऐसी स्थितियां हमें अक्सर देखने को मिलती है। किसी के पास यह सोचने और बताने का समय नहीं है कि आखिर उसे कहां जाना है? हर कोई यही अनुभव कर रहा है कि दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है, वह दौड़ रही है, इसलिए बस हमें भी दौड़ना है।

आज का व्यक्ति इसी तरह की व्यस्तता का जीवन जी रहा है। क्योंकि उसकी जीवन शैली कोरी प्रवृत्ति प्रधान है। कोरी प्रवृत्ति प्रधान जीवन शैली होने के कारण व्यक्ति का जीवन व्यस्त नहीं बल्कि अस्त-व्यस्त हो गया है। व्यस्तता व्यक्ति के लिये बुरी नहीं, अन्यथा व्यस्तता के अभाव में ‘खाली दिमाग शैतान वाली’’ कहावत चरितार्थ हो सकती है। किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत् के अनुसार अति व्यस्तता व्यक्ति के लिए हानिकारक है। अति व्यस्तता का एक प्रमुख कारण है-उतावलापन व अधीरता। उतावलापन वर्तमान युग की महामारी है। अबालवृद्ध सभी इस रोग से ग्रस्त हैं। प्रत्येक कार्य के प्रति जल्दीबाजी, काम तत्काल होना चाहिए तथा उसका परिणाम भी तत्काल होना चाहिए। चाहे डाक्टर के पास जाना हो या किसी अफसर के पास या किसी साधु के पास। व्यक्ति चाहे कुछ भी देने के लिए तैयार है किन्तु उसका कार्य शीघ्रताशीघ्र होना चाहिए, वह प्रतीक्षा की बात ही नहीं जानता। जीवन में जहां इतनी अधीरता व जल्दीबाजी होती है वहां व्यक्ति निश्चित रूप से मानसिक तौर पर अस्त-व्यस्त हो जाता है। इससे केवल बनते हुए काम ही नहीं बिगड़ते अपितु लाभ को हानि में, सफलता को असफलता में बदल देता है।

प्रायः लोगों को जो कुछ मिलता है उसका पूरा आनंद नहीं ले पाते। जो नहीं मिला उसके लिए ही अपनी किस्मत को रोते रहते हैं या ईश्वर से शिकायत करते रहते हैं। जो व्यक्ति अपने पास उपलब्ध साधनों की अपेक्षा नई-नई इच्छाएं करता रहता है और इस प्रकार उदास रहता है वह सदा लोभ-लालच में फंसकर अपने मन का चैन खो बैठता है।

प्रश्न उठता है उतावलापन क्या है? व्यक्ति के किसी भी कार्य को दूरगामी परिणामों पर विचार किए बिना हड़बड़ी में बिना सोचे-समझे कार्य को कर डालने की आदत को उतावलापन कहते हैं। यह आदत व्यक्ति के स्वयं के जीवन को ही अस्त-व्यस्त नहीं करती वरन् परिवार और समाज में भी अव्यवस्था को जन्म देती है तथा जिसकी परिणति अनेक रोगों में देखी जाती है। अमरीका के प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डा. लुही जैकोबली का मानना है कि आधुनिक युग में मनुष्य जितना बेचैन व अधीर है उतना कभी नहीं देखा गया। हर समय दौड़-धूप और हर काम में उतावलेपन व अधीरता ने मनुष्य के मन और मस्तिष्क को खोखला बना दिया है। अधीर व्यक्ति हमेशा कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने से कतराता है। ऐसे व्यक्ति प्रायः मानसिक तौर पर उदासी, मायूसी, घबराहट और तनाव से घिरे रहते हैं तथा शारीरिक स्तर पर रक्तचाप, कैंसर, अल्सर और हृदयघात जैसी बीमारियों से पीडि़त रहते हैं।

मनोचिकित्सकों के अनुसार हड़बड़ी से हड़बड़ी पैदा होती है। इस प्रकार से शरीर में यह चक्र चलता रहता है और यह चक्र इतना सुदृढ़ हो जाता है कि व्यक्ति मात्र यंत्र बनकर रह जाता है।

लंदन के डाक्टर जेनिस लियो का कथन है कि आज की दुनिया तेज गति की दीवानी भले ही हो किन्तु इस फास्ट लाइफ ने लोगों का चैन छीन लिया है तथा अनेक रोगों को जन्म दिया है। उनमें से एक प्रमुख रोग है नर्वस ब्रेक डाउन। जिसके कारण व्यक्ति का मन शंका-कुशंका, भय और भ्रम की आशंका से घिर जाता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं तो समस्याग्रस्त रहते ही हैं तथा दूसरों के लिए समस्या पैदा करते रहते हैं। वर्तमान युग की इस बीमारी से निपटने के लिए जरूरी है-धैर्य का विकास हो व कार्य करने की शैली योजनाबद्ध ढंग से अपनायी जाए। ध्यान, योगाभ्यास, प्राणायाम, जप, स्वाध्याय तथा चिंतन-मनन जैसी सरल क्रियाओं के द्वारा इस अस्त-व्यस्तता से निजात पायी जा सकती है। अति अस्त-व्यस्तता व्यक्ति को चिड़चिड़ा व क्रोधी बना देती है। शांत चित्त और मधुर व्यवहार के द्वारा इस व्याधि से सहज ही छुटकारा पा सकते हैं। इसके लिये जरूरी है व्यक्ति का स्वयं पर अनुशासन हो,  अस्त-व्यस्त जीवन शैली को व्यवस्थित व संतुलित करने के लिए व्यक्ति अपने जीवन में प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति की आदत डालें। हर समय काम ही काम नहीं, अकाम भी जरूरी है। इससे उसकी जीवनशैली व्यवस्थित होगी तथा जीवन को एक नई दिशा व नया आलोक मिलेगा।

किसी ने सही कहा है कि दुनिया को जीतने से पहले हमें स्वयं को जीतना चाहिए। आज के आधुनिक जीवन में सबसे बड़ी समस्या तो मन की उथल-पुथल से पार पाने की है। हम जितना आराम और सुख चाहते हैं आज के प्रचलित तरीकों से उतना ही मन अशांत हो रहा है। हर  अस्त-व्यस्त इंसान महसूस करता है कि उसे लंबे अर्से से सुकून नहीं मिला। जबकि सुकून हमें खोजना पड़ता है ना कि हमें हथेली में सजा मिलेगा कि आओं और सुकून का उपभोग करो और चलते बनों। आज की जीवनशैली की सबसे बड़ी समस्या समय का ना होना यानी अस्त-व्यस्तता भी है। तथाकथित प्रगति की दौड़ में शामिल इंसान की जीवनशैली का तो यही हाल है कि रात को बारह बजे तक जागना और सुबह नौ बजे तक सोना फिर काम की आपाधापी में पड़ जाना और काम इतना कि खुद के लिए भी समय ना मिलना।

हमें यह मानकर चलना चाहिए कि  जिन्दगी का कोई भी लम्हा मामूली नहीं होता, हर पल वह हमारे लिये कुछ-न-कुछ नया प्रस्तुत करता रहता है। इसके लिये जरूरी है कि हम रोज स्वयं को अनुशासित करने का प्रयास करते रहे। प्रवृत्ति और निवृत्ति, काम और अकाम, कर्मण्यता और अकर्मण्यता दोनों के बीच संतुलित स्थापित करें। जीवन न कोरा प्रवृत्ति के आधार पर चल सकता है और न ही कोरा निवृत्ति के आधार पर। स्वस्थ और संतुलित जीवन-शैली के लिए जरूरी है दोनों के बीच संतुलन स्थापित होना। संतुलन के लिये जरूरी है ध्यान। यही एक ऐसी प्रक्रिया है, जो हमें सुख शांति प्रदान करती है। आपको जिंदगी में सुकून चाहिए तो ध्यान को अपने दैनिक जीवन के साथ जोड़ें। यह आपको सुकून तो देगा ही, जीने का अंदाज ही बदल देगा। एक मोड़, एक नया प्रस्थान मालूम देगा।  !


ललित गर्ग

Tuesday 7 April 2015

Pando ki Swargarohini Jaatra, !Pargat hwai jan, pargat hwai jan, pargat hwai jan Kunti mata, pargat hawai jan rani dropata !





https://www.youtube.com/watch?v=eUyUq1QNc5w

Pandaun Nachan (Pandava Dance ) By Bhishma  Kukreti

Dr. Shiva Nand Nautiyal explains that though Pandaun and other dance-songs are very similar to dance-songs of Nagrja etc. but because apart from worshiping the deities and Devis, these dance-songs are more entertaining in nature, having more of community feeling acts. He segregates this type of dance-songs and excludes from dance-songs related to Nagraja, Nanda Jat etc.

In Pandaun Nachan (Pandava Dance ), there are common factors all over Uttarakhand-Kumaun and Uttarakhand-Garhwal. The dance-song is performed in Mandan -a flat community place or country-yard- where hundreds of dancers perform and there is sufficient place for audience too. Pandav Nritya is performed anywhere in carnival, marriage procession or at festival time. When, pandav Nritya is performed, a campfire is arranged at the centre place of Mandan and dancers dance around the campfire.

Pandav dance-and songs are always, vibrant, with high order of enthusiasm, with chivalry, lyrical, inspirational and bring highest degree of community feeling

The Das (A community who plays musical instruments-Dhol Damau, Sinai and sing mangal too) first worship agni (fire), vastuk, and calls the deities-goddesses through Chauras Baja or Chauras tones for benefits of all. The das sings the stories of Mahbharat, which are adapted or transformed according to Uttarakhand-Garhwali-Uttarakhand-Kumauni habits and habitats and this story telling is called ‘ Pandoli’. The das also asks ‘Chal mangan’ means to request dancers for dancing in discipline way and as per the music, story, characters and emotions of the story.
The starting stanzas of Pandav dance-song after deity-goddess worship are :

"Pargat hwai jan, pargat hwai jan, pargat hwai jan Kunti mata, pargat hawai jan rani dropata
Konti mata holi padon ki mata, nagon ko bister dedee, bhukon ko ann,"

The story has all raptures and emotions -Chivalry, love, pathos, wrath, abhorrence, wonders, laughter, fear etc and make the dance-song attractive to all. There are following dance-songs or of Pandaun dance-songs:

B1-Kunti Baja Nritya-Geet : This dance-song is with full of tenderness, rapture of pathos and sadness of separation. The tone of musical instruments is “ Gija-Gijadi,Gija -Gijadi” .A song starts as

" Pragat hwai jan pragat hwai jan, pragat hwai jan panch bhai pandaun
Kunti mata supni hwai ge tachhum tachhum, pandu ka saradh tain chand gaindo tachhum tachhum "

B-2-Yudhistar Baja Nritya: The dance and tone of music is always peaceful, happiness, penance in Yudhister baja Nritya and the tone of music is “ Jaikta tu Jak, Jaikta Tak’, on which the dancers dance at one place and there is lowest kind of speed in the dance. The song is like:

" Dharma ka khatir dharma baun geni, dharma ka kahtir taun kasha uthai
 Dharma ka avtar hwai dharma yiddisher, jaun ki chhap podin cha sara sansar par"

B-3-Bhim Baja Nritya: Bhim is synonym of enthusiasm, bravery, anger, wrath, fear to enemies, speed, wonder and the dance of Bhima Baja is full of rhythms speed, ups and downs, forwardness-backwardness , somehow free for dancers, full of laud chivalry cries of dancers. The tone of music is always fast as “ Gija Gijadi Ghinta, Gija Gijadi Ghinta” . The words are as :

" Bala daini hwai jaini teri daini hwai jaini jodha tyari,
Partigya ka danI bala, sau man ki gada bala tyaro holu sau man ki dhal "

B-4-Arjun Baja Nritya: Arjun is synonym of brevity, agility, wiseness, focus but always firm and courageous. However, anger when he knows the killing of his son Abhmanyu. The dance initiates slow, with tenderness, dancers perform their act by vibrating their heads according to story and musical tones. At the time of fight by Arjun, the dance becomes vibrant as of Bhim Baja Nritya. Arjun being the central hero of ‘Pandauni’, there tens of rhythms, styles, speeds, bodily performances of dancers, changes in musical tones and total atmosphere of Mandan. The main tone of music is “ Jaikta tu Jadak Jai na Tak .The example of words is:

" Krishna ab paeechhe aige he arjun, dekhi taun he arjun, janto bar man vilap he arjun
Jaydrath tai mee mari dyonlu he arjun,nthar suraj duban par bhol he arjun, chita man pdalu he arjun"

B-5-Nakul Baja Nritya: The dancers dance at low vibrancy level in Nakul Bjaja Nritya and dance evenly. The sound of Dhol-Damu (drumming) is “ Jaikta tu Jade”

B-6-Sahdev Nritya: The Sahdev Baja dance is sober and with tenderness. The tone or sound of Dhol is “ Tu Jadak Jaikta jai nat”

B-7 Abhumanyu Baja Nritya: The dance is combination of chivalry’s vibrancy when Abhimanyu fights with opponents in the story and pathos when Abhimany was killed by Kauravas.

B-8 Draupadi Bjaja Dance: The dance and performance is full of love, pathos, tenderness and chivalry too.

In Pandon dance the following aspects are important:

1-Mandan
2-Saron: When the Pandavas fight
3-Varta: The story telling by Das
4-Draupadi Chandon: When Draupadi comes in rage for killing the opponents.

Monday 30 March 2015

प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर !उत्तराखंड में एक ऐसा अनोखा मंदिर है जहां से चोरी करने पर मनोकामना पूरी होती है।



प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर 

उत्तराखंड में एक ऐसा अनोखा मंदिर है जहां से चोरी करने पर मनोकामना पूरी होती है। रुड़की के चुड़ियाला गांव स्थित प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर में नवरात्रों के मौके पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ रही है।
क्षेत्रवासियों के अलावा दूर दराज से श्रद्धालु आकर मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर माता के दर्शन कर मन्नतें मांग रहे हैं। मंदिर के पुजारी पंडित अनिरुद्ध शर्मा के अनुसार यह प्राचीन मंदिर सिद्धपीठ के रूप में मान्यता रखता है।

पुत्र प्राप्ति को लोकड़ा चढ़ाने की है प्रथा

पुत्र प्रप्ति की इच्छा रखने वाले दंपति मंदिर में आकर माता के चरणों से लोकड़ा (लकड़ी का गुड्डा) चोरी करके अपने साथ ले जाते हैं और पुत्र रत्न प्राप्ति के बाद अषाढ़ माह में अपने पुत्र के साथ ढोल नगड़ों सहित मां के दरबार मे पहुंचते हैं।

जहां भंडारे के साथ ही दम्पति ले जाए हुए लोकड़े के साथ ही एक अन्य लोकड़ा भी अपने पुत्र के हाथों से चढ़ाने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। गांव की प्रत्येक बेटियां भी विवाह के पश्चात पुत्र प्राप्ति के बाद लोकड़ा चढ़वाना नहीं भूलती है।

यहां के बारे में कहा जाता है कि माता सती के पिता राजा दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किए जाने से क्षुब्ध माता सती ने यज्ञ में कूदकर यज्ञ को विध्वंस कर दिया था।
भगवान शिव जिस समय माता सती के मृत शरीर को उठाकर ले जा रहे थे, उसी समय माता सती का चूड़ा इस घनघोर जंगल में गिर गया था। इस मान्यता के साथ यहां माता की पिंडी स्थापित होने के साथ ही भव्य मंदिर का निर्माण किया गया।

यह प्राचीन सिद्ध पीठ मंदिर कालांतर से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। यहां माता के दर्शन करने के लिए श्रद्धालु दूर दराज से आते हैं। इन दिनों मंदिर में भव्य मेले का आयोजन भी होता है।

एक बार लंढौरा रियासत के राजा जंगल में शिकार करने आए हुए थे।जंगल में घूमते-घूमते उन्हें माता की पिंडी के दर्शन हुए। राजा के यहां कोई पुत्र नहीं था। राजा ने उसी समय माता से पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी। पुत्र प्राप्ति के बाद राजा ने सन् 1805 में मंदिर का भव्य निर्माण कराया। देवी के दर्शनों के लिए उपस्थित हुई रानी ने माता शक्ति कुंड की सीढ़ियां बनवाई।

शेर भी रोजाना टेकने आते थे पिंडी पर मत्था
जहां आज भव्य मंदिर बना हुआ है। यहां घनघोर जंगल हुआ करता था। जहां शेरों की दहाड़ सुनाई पड़ती थी। पुराने जानकार बताते हैं कि माता की पिंडी पर रोजाना शेर भी मत्था टेकने के लिए आते थे।

बाबा बण्खंडी का भी है धाम
माता चुड़ामणि के अटूट भक्त रहे बाबा बण्खंडी का भी मंदिर परिसर में समाधि स्थल है। बताया जाता है कि बाबा बण्खंडी महान भक्त एंव संत हुए हैं। इन्होंने सन् 1909 में माता की भक्ति में लीन होते हुए समाधि ले ली थी।

Thursday 19 March 2015

"अंडर द स्काई" उत्तराखंड में बनी फिल्म अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई !!पहली बार उत्तराखंड की किसी फिल्म को इतना बड़ा मुकाम मिल रहा है।



उत्तराखंड में बनी और यहीं के कलाकारों की फिल्म ‘अंडर द स्काई’ अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई है। इस बात से प्रदेश के लोगों में खुशी की लहर है।

यह प्रदेश की पहली ऐसी फिल्म है, जिसे दुनिया के मंच पर छाने का मौका मिला है। फिल्म की खास बात ये है कि इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाले दो बच्चे हल्द्वानी के हैं। फिल्म जून में देशभर में रिलीज होगी।

मूलरूप से पिथौरागढ़ के रहने वाले एहसान बख्श फिल्म के निर्देशक हैं। बुधवार को दून पहुंचे एहसान ने बताया कि वह अपने राज्य को देश ही नहीं विदेश में भी पहचान दिलाना चाहते हैं।

उन्होंने न सिर्फ पिथौरागढ़ में 90 मिनट की फिल्म की शूटिंग की, बल्कि इस फिल्म को अब तक अमेरिका, इटली, फ्रांस, जर्मनी सहित 15 देशों के फिल्म फेस्टिवल में दिखा चुके हैं। यह फिल्म जिलीन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई है। जो प्राग (चेक रिपब्लिक) में 29 मई से पांच जून तक चलेगा। इसमें फिल्म भी प्रदर्शित की जाएगी।

बताया कि पहली बार उत्तराखंड की किसी फिल्म को इतना बड़ा मुकाम मिल रहा है। प्रदेश के स्कूलों से संपर्क किया जा रहा है। जहां बच्चों को यह फिल्म दिखाई जाएगी। फिल्म की शूटिंग हल्द्वानी, मसूरी और रामनगर में हुई है। निर्देशक एहसान बख्श कई धारावाहिकों की स्क्रीन प्ले स्टोरी लिख चुके हैं।

फिल्म ‘अंडर द स्काई’ में हल्द्वानी के स्वप्निल विजय और प्रतिभा मुख्य भूमिका में हैं। स्वप्निल विजय का गोपी और प्रतिभा पंत ने विमला का किरदार निभाया है। फिल्म में एक तरलाखेत गांव है।

विमला अंध विश्वासी है, जबकि गोपी वैज्ञानिक विचारधारा का है। गांव में एक जल कुंड है, जिसका नाम खरगोश का जल कुंड है। मान्यता है कि पुराने समय में खरगोश ने राक्षस से जल कुंड को बचाया था, तब राक्षस वहां महल बनाना चाहता था,

इसलिए उसका नाम खरगोश जल कुंड पड़ गया। राक्षस के रूप में प्रधान उस जगह पर अब रिसोर्ट बनाना चाहता है। बच्चे खरगोश की तरह उस जमीन को बचाने के लिए संघर्ष करते हैं।
दून के कैलाश का अहम किरदार

दून के कलाकार कैलाश कंडवाल का इसमें अहम किरदार है। वह प्रधान बने हैं। जो बच्चों के लिए राक्षस समान हैं। फिल्म में अभिनेता हेमंत पांडे के भाई राजेश ने शिक्षक का किरदार निभा रहे हैं। इसके साथ ही केदार पलड़िया ने गांव के ठेकेदार और डीएन भट्ट ने चौकीदार की भूमिका निभाई है।

Friday 13 March 2015

घराट’ इस शब्द को सुनकर पहाड़ी आंचल का नजारा आंखों में तैरने लगता है।










घराट’ इस शब्द को सुनकर पहाड़ी आंचल का नजारा आंखों में तैरने लगता है। सावन की बरसात और नदी किनारे कुछ दूरियां पर कई छप्परनुमा झोपड़ी। जहां से एक अलग ही किस्म की ध्वनि की गूंज सुनाई देती है। जिसमें गाड़ की तेज गर्जना होती है तो पिसते गेहूं की महक ओढ़े केसरी संगीत। दिल में इस कदर घुल जाता है जैस कि पानी में मिश्री। पनाल से गिरने वाले पानी का भेन से संघर्ष तो दो भारी पत्थरों के बीच की गुत्थमगुत्था। तो आनाज के दानों की आटा बनने जिद। भेन से संघर्ष कर पानी किसी चक्रवर्ती सम्राट जैसा निकलता है मानों घराट को चलाकर कर उसने विजय पताका फहरा दी हो। लेकिन कुछ ही दूरी पर उसे जलक्रिड़ा करते बच्चों के नन्हें हाथों से हार का सामना करना पडता है। पत्थरों की टेड़ी-मेड़ी दीवार और उसमें ठूंसी जंगली घास विजयी सम्राट को रूकने को मजबूर कर देती है। धराशायी जलावेग जब तालाब बन जाता है तो जलक्रीड़ा करते बच्चों की उत्सुकता देखी जा सकती है।जो नहाने की बात करते सुनाई देते हैं। कोई दो बार नहाने की बात कहता है को छः बार। नहाने का ये उत्सव घराटों की कुछ दूरी पर कुछ समय पहले खूब देखने को मिलता था। लेकिन आज न गाड़ है और न घराट। पहाडों़ में घराट का अस्तित्व 17वीं सदी के पूर्वद्ध में बताया जाता है। तब से लेकर 19वीं सदी के अन्तिम दशक तक घराट ने न जाने कितने लोगों का पेट पाला लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब घराटों की जगह बिजली से चलने वाली चक्कियों ने ले ली। भाग दौड़ भरी जिंदगी ने घराट को छोड़ दिया है। प्रकृति और मानव के बीच सेतु का काम करने वाले घराट का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। जिससे तकरीबन 200 साल से चले आ रहे एक रिश्त का बजूद मिट गया। जब पहाड़ में घराट ही नहीं रहे तो फिर न अब भग्वाल दिखाई देते हैं और न घट्वालों की हंसी ठिठोली सुनाई देती है। सावन की रातें अब पहाड़ में उदास होकर गुजर जाती है। बरसात होती है, पर गाडों में पानी का शोर नहीं होता। अब पहाड में वो रौनक नहीं रही जो कभी हुआ करती थी। पहाडों में हालात इतने दयनीय है कि कई गांवों ने अपने जवान बेटों को सालों से नहीं देखा। नन्हें पगों की आहट के लिए मानों गांव तरस गये हैं। लेकिन गंावों का रूंदन से किसी का दिल नहीं पसीज पाया। आज पहाड का हर आदमी अपनी सहूलियतों को देखते हुए पलयान कर रहा है। जिसकी वजह से गांवों के गांव खाली हो रहे हैं। जिसका असर उन घराटों पर भी सीधे रूप से पड़ा जो कभी पहाड़ की आर्थिकी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। विकास की जिद और पलायन की मार ने पहाड के हालतों को बेरूखा कर दिया है। कभी पहाडों में घराट और उसके आसपास की हरियाली का नजारा मन को सुकून देता था लेकिन अब ये किसी सूल से कम नहीं । दर्द इस बात का कि जिस ‘घराट’ ने 19 वीं सदी के अन्तिम दशक तक लोगों को पालने में अहम भूमिका निभाई वो ‘घराट’ आज ढूंडे नहीं मिलता और उसका आटा तो अब अतीत की कहानी हो गया। उत्तराखंड बनने के बाद हालत ने जिस तरह करवट बदली उससे जल,जंगल और जमीन से आम आदमी का रिश्ता छूटता गया। जब इन तीन ज से लोगों का लगाव खत्म होने लगा तो खुद-ब-खुद घराट भी हाशिये पर चलता गया। नौबत यहां तक आन पडी है कि आज की नौजवान पीड़ियों को घराट के बारे में पता तक नहीं है। इंटरनेट की गैलरियों में झांकने के बाद भी घराट के बारे में बहुत ज्यादा कुछ जानकारी नहीं है। लिहाजा आज घराट महज लोक कथाओं और किवदंतियों में सिमट कर रह गये हैं। प्रदेश में घराट को बचाने के लिए सरकार द्वारा योजनाएं बनाये जाने की बाते तो सुनी गई। लेकिन इतने साल गुजर जाने के बाद भी अब ये बातें अफवाह लगने लगती है। अगर सच में सरकार इस ओर कोई ठोस पहल करती है तो शायद पहाड में एक बार फिर से जरूर रौनक लौट आयेगी। सावन की सूनी रातों में घराट के चलने की आवाजे सुनाई देगी। यहां तक कि एक बार फिर से घराट के नजदीक नहाने का उत्सव लौट आयेगा। लेकिन इसके लिए सबसे पहले जंगलों को बचाना होगा। ताकि घराट को चलाने के लिए गाडों में प्रचुर मात्रा मंे पानी उपलब्ध हो सके। इस पारस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए सभी लोगों को आगे आने की एक अदद जरूरत महशूस की जा रही है।
प्रस्तुति- प्रदीप थलवाल

Saturday 7 March 2015

मृणाल पांडे :वो पत्रकार हैं, लेखक हैं, कहानीकार हैं, संपादक हैं, निबंधकार हैं, Happy Women's Day




वो पत्रकार हैं,  लेखक हैं, कहानीकार हैं, संपादक हैं, निबंधकार हैं, पिछले 47 सालों से वे पत्रकारिता कर रही हैं। जब वो लिखती हैं, तो लगता है जैसे शब्दों को उनके मायने मिल गए हैं। जब 21 साल की थीं, तो हिन्दी साप्ताहिक 'धर्मयुग' में उनकी पहली कहानी छपी थी। तब से शुरू हुआ वो सफर, आज भी अनवरत जारी है।

अपनी लगन और प्रतिभा के बाल पर आज वो सफलता की उस ऊंचाई पर हैं, जहां पहुंचने की हसरत हर एक शख्स के दिल में होती है। मृणाल पांडे एक पत्रकार, लेखक और भारतीय टेलीविजन की जानी-मानी हस्ती हैं। फिलहाल वे प्रसार भारती की अध्यक्ष हैं। इससे पहले वे भारत में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबारों में से एक हिन्दी दैनिक 'हिन्दुस्तान' की संपादक रह चुकी हैं। साथ ही, लोकसभा चैनल के साप्ताहिक साक्षात्कार कार्यक्रम 'बातों-बातों में' का संचालन भी वो करती रही हैं। 

हिन्दी की मशहूर उपन्यासकार शिवानी की बेटी मृणाल पांडे का जन्म टीकमगढ़, मध्यप्रदेश में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में पूरी की। उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया। और फिर अंग्रेजी एवं संस्कृत साहित्य, प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व, शास्त्रीय संगीत तथा ललित कला की शिक्षा कारकारन (वॉशिंगटन डीसी) से पूरी की। वो कुछ वर्षों तक 'सेल्फ इम्प्लायड वूमेन कमीशन' की सदस्य रही है। अप्रैल 2008 में उन्हें पीटीआई (PTI) बोर्ड की सदस्य बनाया गया। आजादी के बाद हुए भारतीय परिवेश को मृणाल पांडे ने अपनी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों में रेखांकित किया है। 

साल 1984-87 के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की लोकप्रिय पत्रिका 'वामा' का संपादन भी मृणाल पांडे ने किया। दूरदर्शन और स्टार न्यूज के लिए भी मृणाल पांडे ने काम किया। हमारे समय में देवी की देवी (2000), बेटी की बेटी (1993), जो कि राम हाथ ठहराया (1993), विषय नारी (1991), अपना खुद का गवाह (2001) आदि उनकी कई चर्चित किताबें हैं। इसके अलावा मृणाल पांडे की 'यानी कि एक बात थी', 'बचुली चौकीदारिन की कढ़ी', 'एक स्त्री का विदा गीत' और 'चार दिन की जवानी तेरी' आदि कई प्रसिद्ध कहानियां रही हैं। 'अपनी गवाही', 'हमका दियो परदेस', 'रास्तों पर भटकते हुए' जैसे उनके उपन्यासों ने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया है। 'जहां औरतें गढ़ी जाती हैं' उनका चर्चित आलेख रहा है।

 पिछले 47 सालों में मृणाल पांडे ने बहुत कुछ हासिल किया। सफलता के बहुत से मुकाम पाए। कई उपलब्धियां भी दर्ज हुईं। कभी कोई समझौता नहीं किया, भले ही इस वजह से नौकरी ही क्यों न छोड़नी पड़ी हो। कोई गलत काम नहीं किया और न ही किसी को करने दिया। आजादी मिली तो बहुत सारे प्रयोग किए। कामयाबी भी मिली। अभी उस कामयाबी का हिसाब करने का वक्त उनकी जिंदगी में नहीं आया है, क्योंकि अभी तो बहुत सा सफर बाकी है।

Saturday 14 February 2015

कैसे हुआ राजशाही का अंत व गढ़वाल का दमन !30 नवम्बर 1815 को गढ़वाल दो हिस्सों में बट गया

उत्तराखण्ड भारत वर्ष का उत्तरी क्षेत्र और हिमालय का तराई वाला भाग है। जो कि पांच भागों में विभाजित है। प्रथम भाग नेपाल, दूसरा कुमांऊ तीसरा केदारखण्ड चौथा जालन्धर तथा पंजाब का पर्वतीय भाग और पांचवा कश्मीर, इन पांचों भागों में से केदार खण्ड गढ़वाल के नाम से जाना जाता है तथा गढ़वाल शब्द का अर्थ है गढ़वाल गढ़ शब्द उन पहाड़ी किलों का सूचक है जो चट्टानों पर पोप जाते हैं। यह किले पहले छोटें-छोटें ठाकुरी राजाओं, सरदारों और थोकदारों के हुआ करते थे। गढ़वाल में कुल 52 गढ़ थे। 



गढ़वाल के पंवार वैसी राजाओं का इतिहास सन 888 ई० में महाराजा कनकपाल से आरम्भ हुआ। तब से सन 1947 तक यहां पर 59 राजाओं ने शासन किया। सन 1500 ईसवी से पहले का इतिहास क्रम वहां कहीं नहीं मिला है। अध्याये इस काल तक यहां अनेकों राजाओं ने राज किया। लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में यह समय अंधकार युग में ही माना जायेगा। पंवार वंशी राजाओं के बारे में अब तक सत्रह वंशावलियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अवलोकन से पता चलता है कि कनकपाल से आगे राजाओं के नामों और शासन काल के राजाओं के नामों और शासनकाल के बारे में एक स्पता नहीं है। अजय पाल सन 1500 से 1547 के बाद के राजाओं के नामों और शासन काल के बारे में एक स्पता है वहीं सन 1510 र्इ. में महाराजा अजयपाल ने गढ़वाल के सभी ठाकुरी राजाओं सरदारों के गठों को विजय प्राप्त कर एक राज्य स्थापित किया और उसका नाम गढ़वाल रखा। राजगद्दी पर बैठते ही उन्हें एक प्रबल शत्रु से युद्ध करना पड़ा। क्योंकि चम्पावत के राजा गढ़वाल के सीमान्त प्रदेश वाद्याण पर चढ़ आया था महाराजा अजय पाल सेना लेकर उससे युद्ध करने आए। परन्तु उसे मुंह की खानी पड़ी राजा भाग कर एक पर्वत पर चढ़ कर एकाग्र हो कर एक पाव पर खड़ा रहा और भगवान भोलेनाथ का स्मरण करने लगा कहते हैं कि राजा को इस प्रकार अटल-अचल खड़ा देख कर भगवान भूतनाथ राजा पर प्रसन्न हुए और गुरु गोरख नाथ के रूप में राजा को दर्शन दिये। उन्होंने राजा को कहा कि मेरे कन्धे पर बैठ जा और राजा कन्धों पर बैठा गया। गोरख नाथ ने अपने शरीर को इतना बढ़ाया कि राजा की दृष्टि उधर हिमालय तक और इधर शिवालिक श्रेणी तक पहुंची। राजा धबराया और निचे उतार देने का अनुरोध किया।

गोरख नाथ ने अपने शरीर को छोटा कर राजा को उतार दिया और यह कहकर अदृश्य हो गये कि जहां तक तेरी दृष्टि पड़ी है वहां तक तेरा राज्य हो जायेगा। जा तू शत्रु से पुन: लड़ाई कर तथा राजा ने उत्साहित होकर रही सेना को इक्ठा कर शत्रु से ऐसा संग्राम किया कि शत्रु़ के पांव उखड़ गये राजा ने शत्रु का पिछा किया और चम्पावत का कुछ भाग भी हस्त-गत कर दिया। महाराजा अजय पाल ने सन 1512 में राजधानी चान्दपुर के किले से उठाकर देवलगढ़ में बसाई पर वहां से कुछ दिन बाद पुन: सन 1517 ई में अपनी राजधानी अलकनन्दा के वाम पर श्रीनगर में बसाई उसका नाम श्रीयंत्र होने से श्रीनगर रखा जो अब तक विद्यमान है। एक किवंदती के अनुसार राजा एक दिन केवल गढ़ से शिकार खेलने उस उजड़ भूमि में आया। जहां पर अब श्रीनगर है। वहां राजा अजयपाल ने एक आखेटी कुत्ते ने एक शासक को मार डाला राजा को आश्र्चय हुआ। रात को मॉ भगवती ने राजा को स्वप्न में कहा यह परम सिद्ध स्थान पर अपनी राजधानी स्थापित कर और नित्य मेरे यन्त्र की पूजा अर्चना करते रहता, वहां अलकनन्दा के मध्य में एक शिला (पत्थर पर) श्री यन्त्र है उसी के प्रभाव से खरगोश ने कुत्ते को भापा है। तेरी सब बाते सिद्ध होगी।

इस को देखने ने राजा ने सन 1517 ई में श्रीनगर में राजधानी बसाई थी। राजा अजयपाल ने सीमाएं सिधारीत की परमेंन पट्रिटयों को ठीक किया। 37 वर्षो तक शासन करके 59 वर्ष की आयु में वे पंचतत्व में विलीन हो गये। महाराजा अजयपाल की मृत्यु के बाद उनका पुत्र कल्याण शाह गद्दी पर बैठा। वह भी केवल 10 वर्ष राज करके 40 वर्ष की अवस्था में संसार से चल बसा। इसके पश्चात 15 राजाओं ने राज किया । सन् 1717 से 1803 ई तक महाराजा प्रधुम्नशाह का शासन रहा परन्तु 1803 ई फरवरी माह में गोरखा सेना अमर सिंह थापा व हस्तिदल (चौतरियां जो नेपाल के राजा का चाचा था ) की अध्यक्षता में गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। कुंमाऊ पर उनका पहले ही शासन था। राजा प्रद्युम्नशाह को परास्त कर गोरखाओं का शासन स्थापित किया। गोरखाओं ने मात्र 13 वर्ष 1815 तक गढ़वाल पर राज्य किया। इसके अत्याचारों से समस्त गढ़वाल वासी व जनता दु:खी थी। लोग अपने घरों को छोड़ गुफाओं में छुपा करते थे। गोरखा राजा से मुक्ति पाने के लिए महराजा प्रद्युम्नशाह के उत्तराधिकारी महाराज सुदर्शन शाह ने अग्रेंजों से सहायता मांगी।

अंग्रेजों ने गढ़वाल की सहायता की और गोरखा राज से मुक्ति दिलाई।इसके बदले में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने महाराजा सुदर्शन शाह से अत्यधिक धनराशि की मांग की। असमर्थता के कारण राजा मांगी गई धनराशि नहीं दे सका। अत: 30 नवम्बर 1815 को गढ़वाल दो हिस्सों में बट गया। गंगा के पार राजा के अधिन टिहरी बन गया। और गंगा के इस पार का हिस्सा अंग्रेजों के अधिन ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से कहा जाने लगा।

अंग्रेजों के अधिन आने पर उन्होंने गढ़वाल या गढ़वाल न पुकारकर उच्चारण की सुविधा से इसे गढ़वाल नाम से पुकारा तभी से टिहरी तथा ब्रिटिश गढ़वाल इसी नाम से पुकारे जा रहे हैं। समय ने कारण ही देश स्वतन्त्र हुआ। राजवाड़ें समाप्त हुए। अब ब्रिटिश गढ़वाल पौड़ी गढ़वाल के नाम से जाने जाने लगा।

Tuesday 13 January 2015

मकर संक्रान्ति का महत्व !शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य (भगवान) अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं।




जनवरी माह में उत्तर भारत में मकर संक्रान्ति, दक्षिण में पोंगल और पंजाब में लोहड़ी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर में उत्तराखंड में एक अलग ही नजारा देखने को मिलता है, कुमाँऊ में अगर आप मकर संक्रान्ति में चले जायें तो आपको शायद कुछ ये सुनायी पड़ जाय -

काले कौव्वा, खाले,ले कौव्वा पूड़ी,
मैं कें दे (ठुल-ठुलि या भल-भलि, ऐसा ही कुछ है ठीक से याद नही),
ले कौव्वा ढाल,दे मैं कें सुणो थाल,
ले कौव्वा तलवार,बणे दे मैं कें होश्यार।

साथ में दिखायी देंगे गले में तलवार, ढाल, दाड़िम का फूल, डमरु, खजूर, घुघुति और नारंगी की माला पहने हुए छोटे-छोटे बच्चे (इसी का जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट की गजल में किया था)। पहले मकर संक्रान्ति के महत्व के बारे में जानते हैं फिर बताते हैं कि इस अवसर पर उत्तराखंड में क्या रौनक रहती है।

मकर संक्रान्ति का महत्व

शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य (भगवान) अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं। अब ज्योतिष के हिसाब से शनिदेव हैं मकर राशि के स्वामी, इसलिये इस दिन को जाना जाता है मकर संक्रांति के नाम से। सर्वविदित है कि महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही दिन चुना। यही नही, कहा जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी। यही नही इस दिन से सूर्य उत्तरायण की ओर प्रस्थान करते हैं, उत्तर दिशा में देवताओं का वास भी माना जाता है। इसलिए इस दिन जप- तप, दान-स्नान, श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी भी मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है।

मकर संक्रान्ति के दिन से ही माघ महीने की शुरूआत भी होती है। मकर संक्रान्ति का त्यौहार पूरे भारत में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन देश के अलग अलग हिस्सों में ये त्यौहार अलग-अलग नाम और तरीके से मनाया जाता है। और इस त्यौहार को उत्तराखण्ड में “उत्तरायणी” के नाम से मनाया जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में यह घुघुतिया के नाम से भी मनाया जाता है तथा गढ़वाल में इसे खिचड़ी संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। इस अवसर में घर घर में आटे के घुघुत बनाये जाते हैं और अगली सुबह को कौवे को दिये जाते हैं (ऐसी मान्यता है कि कौवा उस दिन जो भी खाता है वो हमारे पितरों (पूर्वजों) तक पहुँचता है), उसके बाद बच्चे घुघुत की माला पहन कर कौवे को आवाज लगाते हैं – काले कौव्वा काले, मेरी घुघुती खाले।
कुमाँऊ के गाँव-घरों में घुघुतिया त्यार (त्यौहार) से सम्बधित एक कथा प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि किसी एक एक राजा का घुघुतिया नाम का कोई मंत्री राजा को मारकर ख़ुद राजा बनने का षड्यन्त्र बना रहा था लेकिन एक कौव्वे को ये पता चल गया और उसने राजा को इस बारे में सब बता दिया। राजा ने फिर मंत्री घुघुतिया को मृत्युदंड दिया और राज्य भर में घोषणा करवा दी कि मकर संक्रान्ति के दिन राज्यवासी कौव्वों को पकवान बना कर खिलाएंगे, तभी से इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा शुरू हुई।
यही नही मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के इस अवसर पर उत्तराखंड में नदियों के किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं। इनमें दो प्रमुख मेले हैं – बागेश्वर का उत्तरायणी मेला (कुमाँऊ क्षेत्र में) और उत्तरकाशी में माघ मेला (गढ़वाल क्षेत्र में)।

बागेश्वर का उत्तरायणी मेला

इतिहास कारों की अगर माने तो माघ मेले यानि उत्तरायणी मेले की शुरूआत चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल से हुई, चंद राजाओं ने ही ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये। यही ही नही शिव की इस भूमि में उस वक्त कन्यादान नहीं होता था।
पुराने जमाने से ही माघ मेले के दौरान लोग संगम पर नहाने थे और ये स्नान एक महीने तक होते थे। यहीं बहने वाली सरयू नदी के तट को सरयू बगड़ भी कहा जाता है। इसी सरयू के तट के आस-पास दूर-दूर से माघ स्नान के लिए आने वाले लोग छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे। तब रोड वगैरह नही होती थी तो दूर-दराज के लोग स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल ही चलकर आते। पैदल चलने की वजह से महीनों पूर्व ही कौतिक (मेला) के लिये चलने का क्रम शुरु होता। धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के लिये जाने की प्रसन्नता में हुड़के की थाप भी सुनायी देने लगी फलस्वरुप मेले में लोकगीतों और नृत्यों की महफिलें जमनें लगी। प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती, कँपकँपाती सर्द रातों में अलाव जलाये जाते और इसके चारों ओर झोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का मंजर देखने को मिलता। दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचरी होती, नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते। सबके अपने-अपने नियत स्थान थे, नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता।

धीरे-धीरे धार्मिक और सांस्कृतिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया, भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार करते। तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते। भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते, नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें। स्थानीय व्यापारी भी अपने-अपने सामान को लाते, दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था। गुड़ की भेली और मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती, माघ मेला तब डेढ़ माह चलता। दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता।

उत्तरकाशी का माघ मेला

उत्तरकाशी में माघ मेला काफी समय से मनाया जा रहा है ये धार्मिक, सांस्कृति तथा व्यावसायिक मेले के रूप में प्रसिद्ध है। इस मेले का शुभारंभ प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन पाटा-संग्राली गांवों से कंडार देवता और अन्य देवी देवताओं की डोलियों के उत्तरकाशी पहुंचने से होता है। यह मेला 14 जनवरी (मकर संक्राति) से प्रारम्भ हो कर 21 जनवरी तक चलता है। इस मेले में जिले के दूर दराज से धार्मिक प्रवृत्ति के लोग जहाँ भागीरथी नदी में स्नान के लिये आते है। वहीं सुदूर गांव के ग्रामवासी अपने-अपने क्षेत्र से ऊन एवं अन्य हस्तनिर्मत उत्पादों को बेचन के लिये भी इस मेले में आते है। इसके अतिरिक्त प्राचीन समय में यहाँ के लोग स्थानीय जडी-बूटियों को भी उपचार व बेचने के लिये लाते थे लेकिन सरकार ने अब इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
उत्तरकाशी बाबा विश्वनाथ जी की नगरी के रूप में भी प्रसिद्ध है इसलिये कई शिव भक्त भी दूर दूर से इस मेले में हिस्सा लेने आते हैं। वर्तमान काल में यह मेला धार्मिक एवं सांस्कृतिक कारणों के अलावा पर्यटक मेले के रूप में भी अपनी पहचान बना रहा है। यही वजह है कि आजकल के दौर में इस मेले में सर्कस वगैरह भी देखने को मिलता है। यही नही साल के उस महीने में होने के कारण जब इस क्षेत्र में अत्यधिक बर्फ रहती है पर्यटन विभाग ने दयारा बुग्याल को स्कीइंग सेंटर के रूप में विकसित कर इस क्षेत्र को पर्यटन के लिये भी प्रचारित किया है।

अंत में, सबै भै बैणियों के मकर संक्रान्तिक ढेर सारि मुबारकवाद -

काले कौवा काले , घुघुति बड़ा खाले,
लै कौवा बड़ा, आपू सबुनै के दिये सुनक ठुल ठुल घड़ा,
रखिये सबुने कै निरोग, सुख सम़ृद्धि दिये रोज रोज।

अर्थात, सभी भाई बहिनों को मकर संक्रान्ति की बहुत बहुत बधाई -

काले कौवा आकर घुघुति (इस दिन के लिये बनाया गया पकवान) बड़ा (उड़द का बना हुआ पकवान) खाले,
ले कौव्वे खाने को बड़ा ले, और सभी को सोने के बड़े बड़े घड़े दे,

सभी लोगों को स्वस्थ्य रख, हर रोज सुख और समृद्धि दे।