Wednesday 26 November 2014

पूर्णागिरि मंदिर- मां भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है !



पूर्णागिरि मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत नगर में काली नदी के दांये किनारे पर स्थित है। चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे सामरिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण चम्पावत ज़िले के प्रवेशद्वार टनकपुर से 19 किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ मां भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। तीन ओर से वनाच्छादित पर्वत शिखरों एवं प्रकृति की मनोहारी छटा के बीच कल-कल करती सात धाराओं वाली शारदा नदी के तट पर बसा टनकपुर नगर मां पूर्णागिरि के दरबार में आने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है। इस शक्तिपीठ में पूजा के लिए वर्ष-भर यात्री आते-जाते रहते हैं किंतु चैत्र मास की नवरात्र में यहां मां के दर्शन का इसका विशेष महत्व बढ जाता है। मां पूर्णागिरि का शैल शिखर अनेक पौराणिक गाथाओं को अपने अतीत में समेटे हुए है। पहले यहां चैत्र मास के नवरात्रियों के दौरान ही कुछ समय के लिए मेला लगता था किंतु मां के प्रति श्रद्धालुओं की बढती आस्था के कारण अब यहां वर्ष-भर भक्तों का सैलाब उमडता है। मैदानी इलाकों में आने पर इसका प्रचलित नाम शारदा नदी है) इस नदी के दूसरी ओर बांऐ किनारे पर नेपाल देश का प्रसिद्ध ब्रह्मा विष्णु का मंदिर ब्रह्मदेव मंदिर कंचनपुर में स्थित है। प्रतिदिन सांयःकालीन आरती का आयोजन होता है।

पौराणिक गाथाओं एवं शिव पुराण रुद्र संहिता के अनुसार जब सती जी के आत्मदाह के पश्चात भगवान शंकर तांडव करते हुए यज्ञ कुंड से सती के शरीर को लेकर आकाश मार्ग में विचरण करने लगे। विष्णु भगवान ने तांडव नृत्य को देखकर सती के शरीर के अंग पृथक कर दिए जो आकाश मार्ग से विभिन्न स्थानों में गिरे। कथा के अनुसार जहां जहां देवी के अंग गिरे वही स्थान शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गए। मां सती का नाभि अंग अन्नपूर्णा शिखर पर गिरा जो पूर्णागिरि के नाम से विख्यात् हुआ तथा देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिका गिरि, कालिका गिरि, हमला गिरि व पूर्णागिरि में इस पावन स्थल पूर्णागिरि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। देवी भागवत और स्कंद पुराण तथा चूणामणिज्ञानाणव आदि ग्रंथों में शक्ति मां सरस्वती के 51,71 तथा 108 पीठों के दर्शन सहित इस प्राचीन सिद्धपीठ का भी वर्णन है जहां एक चकोर इस सिद्ध पीठ की तीन बार परिक्रमा कर राज सिंहासन पर बैठा।

पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्मकुंड के निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मदेव मंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रियों में देवी के दर्शन से व्यक्ति महान पुण्य का भागीदार बनता है। देवी सप्तसती में इस बात का उल्लेख है कि नवरात्रियों में वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति निष्ठापूर्वक सुनेगा वह व्यक्ति सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से संपन्न होगा।

पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक बार एक संतान विहीन सेठ को देवी ने स्वप्न में कहा कि मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। सेठ ने मां पूर्णागिरि के दर्शन किए और कहा कि यदि उसे पुत्र प्राप्त हुआ तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनवाएगा। मनौती पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के स्थान पर तांबे के मंदिर में सोने का पालिश लगाकर जब उसे देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर आने लगा तो टुन्यास नामक स्थान पर पहुंचकर वह उक्त तांबे का मंदिर आगे नहीं ले जा सका तथा इस मंदिर को इसी स्थान पर रखना पडा। आज भी यह तांबे का मंदिर या झूठे का मंदिर के नाम से जाना जाता है।

कहा जाता है कि एक बार एक साधु ने अनावश्यक रूप से मां पूर्णागिरि के उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश की तो मां ने रुष्ट होकर उसे शारदा नदी के उस पार फेंक दिया किंतु दयालु मां ने इस संत को सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात कर उसे आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति मेरे दर्शन करेगा वह उसके बाद तुम्हारे दर्शन भी करने आएगा। जिससे उसकी मनौती पूर्ण होगी। कुमाऊं के लोग आज भी सिद्धबाबा के नाम से मोटी रोटी बनाकर सिद्धबाबा को अर्पित करते हैं।

यहां यह भी मान्यता है कि मां के प्रति सच्ची श्रद्धा तथा आस्था लेकर आया उपासक अपनी मनोकामना पूर्ण करता है, इसलिए मंदिर परिसर में ही घास में गांठ बांधकर मनौतियां पूरी होने पर दूसरी बार देवी दर्शन लाभ का संकल्प लेकर गांठ खोलते हैं। यह परंपरा यहां वर्षो से चली आ रही है। यहां छोटे बच्चों का मुंडन कराना सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।

कहा जाता है कि इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है। इसलिए इसकी विशेष महत्ता है। यहां प्रसिद्ध वन्याविद तथा आखेट प्रेमी जिम कार्बेट ने सन् 1927 में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरि के प्रकाशपुंजों को स्वयं देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी व विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफ़ी ख्याति प्रदान की।

Tuesday 11 November 2014

ऐसा था मेरे बचपन का दून



मेरे बचपन का दून आज ‘पहाड़’ हो गयाहरा-भरा दून आज ‘बेजार’ हो गयामेरा गांव सा दून आज ‘शहर’ हो गया…





मेरे बचपन का दून (देहरादून कहीं खो सा गया है। विकास की अंधी दौड़ ने इसकी खूबसूरती पर चार-चांद लगाने के बजाए कई अनचाहे दाग लगा दिए हैं। लगता ही नहीं यह वही शहर है जहां शांति थी सुकून था खूबसूरत नजारे थे सड़कों पर दौड़ती तांगा-गाड़ी और आम-लीची के बागीचे थे। संकरी होने के बावजूद शहर की सड़कें खुली-खुली थीं।

दून के कुछ हिस्सों की कहानी मैं आपको बताता हूं। मेरे बचपन से जुड़ी कई महकती यादें हैं जो मुझे पुराने दून की याद दिलाती हैं। दून घाटी के नाम से प्रख्यात ये शहर तब मसूरी के कोल्हूखेत से देखने पर फूलों की टोकरी में रखा सुंदर सा गुलदस्ता नजर आता था। जगह आज भी उतनी ही है, लेकिन तब की टोकरी आज काली कढ़ाई बन गई है। पहले ऊंचाई से हरियाली के बीच मकान ढूंढने पड़ते थे, आज भवनों की बीच हरियाली ढूंढनी पड़ती है।

तब चार दिशाओं के चार कोनों पर शहर खत्म हो जाता था। सहारनपुर रोड से शाम छह बजे के बाद लालपुल से आगे जाने पर लोगों को डर लगता था। आज जहां पटेलनगर इंडस्ट्रियल एरिया में अमर उजाला का दफ्तर खड़ा है कुछ एक साल पहले तक इससे आगे लहलहाते खेतों की एक लंबी श्रंखला होती थी। तब यहां से आगे कारगी चौक को जाने वाली सड़क पर अंधेरा पड़ने के बाद कोई जाने की सोचता भी नहीं था। बाईपास रोड भी अस्तित्व में नहीं आई थी।

इधर चकराता रोड पर बिंदाल पुल समझो शहर का अंतिम छोर था। इससे आगे किशन नगर चौक पर कुछ एक दुकानें थीं। दून स्कूल, आईएमए, एफआरआई, ओएनजीसी जैसे संस्थानों के चलते लोगों का इस सड़क पर आना-जाना होता था। तब भी इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई देते थे। हां सुबह की सैर के लिए कैंट की तरफ जाने वाली सड़क तब भी लोगों की पसंदीदा जगह थी।

हरिद्वार रोड की बात करे तो धर्मपुर में कुछ गिनी-चुनी दुकानों को छोड़कर आगे बिरानी छा जाती थी। धर्मपुर का एक बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण क्षेत्र में आता है। लेकिन तब यह विशुद्ध रूप से गांव ही था। जिसके हर हिस्से में खेती होती थी। बासमती की महक लोगों को दूर से खिंच लाती थी। रिस्पना पुल तक जाते-जाते कुछ एक घर, इक्का-दुक्का दुकानें नजर आ जाती थी। इसके बाद शहर पूरी तरह खत्म। फिर ऋषिकेश-हरिद्वार की तरफ जाने वाले गाड़ियां सरपट दौड़ती थीं।

मसूरी की तरफ जाने पर गांधी पार्क से कुछ आगे गोल चौक तक ही चहल-पहल दिखाई देती है। इसके आगे सन्नाटा पसरा रहता था। तब ताजी हवा के लिए लोगों को आज की तरह राजपुर की तरफ नहीं जाना पड़ता था। शहर के हर कोने में सुकून की सांस थी।

मुझे याद हम लोग तिलक रोड से लगे आनंद चौक इलाके में रहते थे। मच्छी बाजार से भी एक सड़क आनंद चौक के लिए कटती थी। जहां आने-जाने के लिए तांगा ही एक मात्र साधन था। पिताजी का कोरोनेशन अस्पताल में पथरी का आपरेशन हुआ था। उन दिनों जब मां मुझे घर पर अकेला नहीं छोड़ सकती थी। मैंने भी तहसील चौक से कोरोनेशन अस्पताल तक तांगे की खूब सवारी की। आम-लीची के बागों के बीच पूरे रास्ते ऐसा लगता था जैसे हम किसी जंगल से गुजर रहे हैं।

आपका स्वागत है…
मैं जानता हूं दून से जुड़े हर शख्स की यादों में उसका प्यारा दून कुछ ऐसे ही बसता है। लंबा वक्त नहीं गुजरा। पिछले  वर्षों में राज्य बनने के बाद ही इस शहर की सूरत ज्यादा बदली है। विकास के नाम पर दून को जाने-अनजाने में ही बलि का बकरा बना दिया गया।
क्यों न इस कड़ी को आगे बढ़ाएं-
आगे आएं और बताएं, पहले ऐसा था मेरा दून…..

इससे पहले का दून रस्किन बांड की इन कहानियों में पढ़ने को मिलता है।
Our trees still grow in Dehra
School Days The Adventures of Rusty
A Town Called Dehra, Dust on the Mountain

Tuesday 28 October 2014

सिद्धबली मन्दिर -आज भी यहाँ वचनबद्ध होकर बजरंग बली जी साक्षात उपस्थित रहते हैं



पवन तनय संकट हरण मंगलमूर्ति रूप I
राम लखन सीता सहित ह्रदय बसहु सुर भूप II 



गढ़वाल के प्रवेशद्वार कोटद्वार कस्बे से कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग पर लगभग ३ कि०मी० आगे खोह नदी के किनारे बांयी तरफ़ एक लगभग ४० मीटर ऊंचे टीले पर स्थित है गढ़वाल प्रसिद्ध देवस्थल सिद्धबली मन्दिर । यह एक पौराणिक मन्दिर है । कहा जाता है कि यहां तप साधना करने के बाद एक सिद्ध बाबा को हनुमान की सिद्धि प्राप्त हुई थी । सिद्ध बाबा ने यहां बजरंगबली की एक विशाल पाषाणी प्रतिमा का निर्माण किया। जिससे इसका नाम सिद्धबली हो गया (सिद्धबाबा द्वारा स्थापित बजरंगबली । 


इस स्थान का जीर्णोद्वार एक अंग्रेज अधिकारी के सहयोग से हुआ। कहते हैं कि इस स्थान के समीप एक अंग्रेज अधिकारी (जो खमा सुपरिटेंडेंट हुआ करता था।) ने एक बंगला बनवाया जो आज भी इस स्थान पर मौजूद है। जब घोड़े पर चढ़कर इस बंगले पर रहने के लिए आया तो घोड़ा आगे नहीं बढ़ा तब उसने घोड़े पर चाबुक मारा तो घोड़े के अधिकारी को जमीन पर पटक दिया। तो वह बेहोश हो गया। उस अधिकारी को बेहोशी में सिद्धबाबा ने दर्शन देकर कहा कि इस स्थान पर मेरे द्वारा पूजे जाने वाली पिण्डियाँ जो खुले स्थान पर हैं। उनके लिए स्थान बनाओ तभी तुम इस बंगले में रह सकते हो, तभी उस अधिकारी द्वारा जन सहयोग से इस स्थान का जीर्णोद्धार किया गया। जो आज धीरे–धीरे भक्तों एवं श्रद्धालुओं के सहयोग से भव्य रूप धारण कर चुका है।

यह मन्दिर न केवल हिन्दू-सिक्ख धर्मावलंबियों का है अपितु मुसलमान भी यहां मनौतियां मांगने आते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु लोग दक्षिणा तो देते हैं ही यहां भण्डारा भी आयोजित करते हैं । इस स्थान पर कई अन्य ऋषि मुनियों का आगमन भी हुआ है। इन संतो में सीताराम बाबा, ब्रह्मलीन बाल ब्रह्मचारी नारायण बाबा एवं फलाहारी बाबा प्रमुख हैं। यहां साधक को शांति अनुभव होती है।

यह मन्दिर का अदभुत चमत्कार ही है कि खोह नदी में कई बार बाढ़ आई किन्तु मन्दिर ध्वस्त होने से बचा है। यद्यपि नीचे की जमीन खिसक गई है किन्तु मन्दिर आसमान में ही लटका हुआ है। यहां प्रतिवर्ष श्रद्धालुओं के द्वारा मेले का आयोजन होता है। जिसमें सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं।

श्री सिद्धबली धाम की महत्ता एवं पौराणिकता के विषय में कई जनश्रुतियां एवं किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कहा जाता है। स्कन्द पुराण में वर्णित जो कौमुद तीर्थ है उसके स्पष्ट लक्षण एवं दिशायें इस स्थान को कौमुद तीर्थ होने का गौरव देते हैं स्कन्द पुराण के अध्याय 119 (श्लोक 6) में कौमुद तीर्थ के चिन्ह के बारे में बताया गया है कि

तस्य चिन्हं प्रवक्ष्यामि यथा तज्ज्ञायते परम्।
कुमुदस्य तथा गन्धो लक्ष्यते मध्यरात्रके।।

अर्थात महारात्रि में कुमुद (बबूल) के पुष्प की गन्थ लक्षित होती है। प्रमाण के लिए आज भी इस स्थान के चारों ओर बबूल के वृक्ष विद्यमान है। कुमुद तीर्थ के विषय में कहा गया है कि पूर्वकाल में इस तीर्थ में कौमुद (कार्तिक) की पूर्णिमा को चन्द्रमा ने भगवान शंकर को तपकर प्रसन्न किया था। इसलिए इस स्थान का नाम कौमुद पड़ा। शायद कोटद्वार कस्बे को तीर्थ कौमुद द्वार होने के कारण ही कोटद्वार नाम पड़ा। क्योंकि प्रचलन के रूप में स्थानीय लोग इस कौमुद द्वार को संक्षिप्त रूप में कौद्वार कहने लगे जिसे अंग्रेजों के शासन काल मे अंग्रेजों के सही उच्चारण न कर पाने के कारण उनके द्वारा कौड्वार कहा जाने लगा। जिससे उन्होंने सरकारी अभिलेखों में कोड्वार ही दर्ज किया और इस तरह इसका अपभंरश रूप कोटद्वार नाम प्रसिद्ध हुआ। परन्तु वर्तमान में इस स्थान को सिद्धबाबा के नाम से ही पूजा जाता है। कहते हैं कि सिद्धबाबा ने इस स्थान पर कई वर्ष तक तप किया। श्री सिद्धबाबा को लोक मान्यता के अनुसार साक्षात गोरखनाथ माना जाता है जो कि कलियुग में शिव के अवतार माने जाते हैं। गुरु गोरखनाथ भी बजरंगबली की तरह एक यति है। जो अजर और अमर हैं।

इस स्थान को गुरु गोरखनाथ के सिद्धि प्राप्त होने के कारण सिद्ध स्थान माना गया है एवं गोरखनाथ जी को इसीलिए सिद्धबाबा भी कहा गया है। नाथ सम्प्रदाय एवं गोरख पुराण के अनुसार नाथ सम्प्रदाय के गुरु एवं गोरखनाथ जी के गुरु मछेन्द्र नाथ जी पवन पुत्र बजरंगबली के आज्ञानुसार त्रिया राज्य में (जिसे चीन के समीप माना जाता है जिसकी शासक रानी मैनाकनी थी के साथ ग्रहस्थ आश्रम का सुख भोग रहे थे। परन्तु उनके परम तेजस्वी शिष्य गोरखनाथ जी को जब यह ज्ञात होता है तो उन्हें बड़ा दुख एवं क्षोभ हुआ तो वह प्रण करते हैं कि उन्हें किसी भी प्रकार उस राज्य से मुक्त किया जाय। जब वे अपने गुरु को मुक्त करने हेतु त्रिया राज्य की ओर प्रस्थान करते हैं तो पवन पुत्र बजरंग बली अपना रूप बदलकर इस स्थान पर उनका मार्ग रोकते हैं। तब दोनों यतियों के मध्य भयंकर युद्ध होता है। पवन पुत्र को बड़ा आश्चर्य होता है  कि वे एक साधारण साधु को परास्त नहीं कर पा रहे है। उन्हे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यह दिव्य पुरुष भी मेरी तरह ही कोई यति है। तब हनुमान जी अपने वास्तविक रूप में आते हैं और गुरु गोरखनाथ जी से कहते हैं कि मैं तुम्हारे तप बल से अति प्रसन्न हूँ । जिस कारण तुम कोई भी वरदान मांग सकते हो  तब श्री गुरु गोरखनाथ जी कहते हैं कि तुम्हें मेरे इस स्थान में प्रहरी की तरह रहना होगा एवं मेरे भक्तों का कल्याण करना होगा। विश्वास है कि आज भी यहाँ वचनबद्ध होकर बजरंग बली जी साक्षात उपस्थित रहते हैं तबसे ही इस स्थान पर बजरंग बली की पूजा की विशेष महत्ता है और इन्हीं दो यतियों (श्री बजरंग बली जी एवं गुरु गोरखनाथ जी  जो सिद्धबली बाबा के नाम से पुकारते हैं । यहाँ पर श्री गुरु गोरखनाथ जी ने अपना स्थायी स्थान बनाकर अपने शिष्य पवन नाथ को नियुक्त किया।

इस स्थान पर सिखों के गुरु संत गुरुनानक जी ने भी कुछ दिन विश्राम किया। ऐसा कहा जाता है कि इस स्थान को सभी धर्मावलम्बी समान रूप से पूजते एवं मानते हैं।



Thursday 23 October 2014

Happy Diwali !! मैं बैठा दूर परदेश में घर में आज दिवाली है


“May the passion and splendor that are a part of this auspicious holy festival, fill your entire life with happiness, prosperity and a much brighter future. Warm wishes to you and your family on this Festival of Lights.” 



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मैं बैठा दूर परदेश में घर में आज दिवाली है मेरा आँगन सूना है माँ की आँखों में लाली है वो बार बार मुझे बुलाती है फिर अपने दिल को समझाती है मेरी भाग्य की चिंता पर अपने मातृत्व को मनाती है

मैं कितना खुदगर्ज़ हुआ पैसो की खातिर दूर हुआ मेरा मन तो करता है पर न जाने क्यूँ मजबूर हुआआज फटाको की आवाजों में मेरी ख़ामोशी झिल्लाती  है कैसे बोलूं माँ तुझको तेरी याद मुझे बहुत आती है

इतना रोया मैं, आज कि मेरी आँखें अब खाली है तुझ से दूर मेरे जीवन की ये पहली एक दिवाली है

                        माँ मेरा आँगन सूना है तेरी की आँखों में लाली है 


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दीपावली का अर्थ  



दीपावली का अर्थ  है दीपों की पंक्ति। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले त्योहारों में दीपावली का आध्यात्मिक व सामाजिक दोनों दृष्टि से सबसे ज्यादा महत्व है।

इस त्योहार का मूल मंत्र ही माना जाता है- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'... इसका मतलब है अंधकार से प्रकाश की ओर। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। इस मौके पर खुशी से झूम रहे अयोध्यावासियों ने अपने राजा के स्वागत में घी के दीये जलाए।

इससे कार्तिक मास की सघन अमावस्या की रात जगमगा उठी। और यह पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। दीपावली के मायने भले ही धर्म और परंपरा के अनुसार तरह-तरह के हों लेकिन लोक संस्कृति में इसका मतलब दीया और बाती से ही ज्यादा है।

दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग मान्यता है। एक मान्यता है कि भगवान राम रावण वध करने के बाद दिवाली के दिन ही अयोध्या लौटे थे। इसी खुशी में लोगों ने दीये जलाए और खुशियां मनाई। दूसरी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध इसी दिन किया था। जनता में खुशी की लहर दौड़ गई और लोगों ने घी के दीये जला उत्सव मनाया।

वहीं पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु ने नरसिंह रूप धारण कर हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है

हालांकि मिथिलांचल में धनतेरस के दिन से ही दीये जलाए जाने की परंपरा है। दिवाली के एक दिन पूर्व छोटी दिवाली को लोग यम दिवाली भी कहा करते हैं। इस दिन यम पूजा हेतु घर के बाहर दीये जलाए जाते हैं

इसे विडंबना ही कहेंगे कि कि दुनिया को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में अहम भूमिका अदा करने वाले कुम्हारों की खुद की हालत अंधेरे में है। महंगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है लेकिन उनके उत्पाद की कीमत आज भी लोग 

मिट्टी के भाव में ही आंकते हैं। मिट्टी की व्यवस्था कर खरीदना, पूरी मेहनत व लगन से उसे बनाने के बाद भी बाजार में उसकी सही कीमत नहीं मिल पाती।

जबकि अब मिट्टी भी महंगे और पकाने के लिए जलावन भी महंगा। श्रम की तो कीमत भी नहीं जोड़ी जाती। हर तरफ महंगाई है लेकिन दीये के भाव में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। बाजार में भी प्रभाव पड़ा है। लोगों का झुकाव बिजली की रोशनी की ओर अधिक हुआ है जिससे दीये की बिक्री कम पड़ने लगी है। लेकिन पारंपरिक रूप से आज भी और हमेशा मिट्टी के बने दीये का महत्व ही अधिक है।

Sunday 19 October 2014

उत्तराखंड की संस्कृति के जीवंत चितरे शैलेश मटियानी -पहाड़ में जन्मे मटियानी को पहाड़ सा दर्द पूरे जीवन मिला






उनका जन्म बाड़ेछीना गांव (जिला अलमोड़ा, उत्तराखंड (भारत)) में हुआ था। उनका मूल नाम रमेशचंद्र सिंह मटियानी था। बारह वर्ष (१९४३) की अवस्था में उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उस समय वे पांचवीं कक्षा के छात्र थे। इसके बाद वे अपने चाचाओं के संरक्षण में रहे किंतु उनकी पढ़ाई रुक गई। उन्हें बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का काम करना पड़ा। पांच साल बाद 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरु किया। विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। वे १९५१ में अल्मोड़ा से दिल्ली आ गए। यहाँ वे 'अमर कहानी' के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहां रहने लगे। तबतक 'अमर कहानी' और 'रंगमहल' से उनकी कहानी प्रकाशित हो चुकी थी। इसके बाद वे इलाहाबाद गए। उन्होंने मुज़फ़्फ़र नगर में भी काम किया। दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वे बंबई चले गए। फिर पांच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। १९५६ में श्रीकृष्ण पुरी हाउस में काम मिला जहाँ वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे और अपना लेखन जारी रखा। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ गए और कई वर्षों तक वहीं रहे। 1992 में छोटे पुत्र की मृत्यु के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। जीवन के अंतिम वर्षों में वे हल्द्वानी आ गए। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के शहादरा अस्पताल में हुई

भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय लोगों तथा उत्तराखंड की संस्कृति के जीवंत चितरे शैलेश मटियानी का मंगलवार को जन्मदिन था। पहाड़ में जन्मे मटियानी को पहाड़ सा दर्द पूरे जीवन मिला। जब उनकी कहानियां धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित होने लगी थी तो वह मुंबई के एक होटल में वेटर का काम करते थे। बाद में वह अपने लेखन से शिखर तक पहुंचे, लेकिन अपनी उपेक्षा का दंश उन्होंने जीवन भर झेला। बेटे की हत्या ने तो उन्हें पागल ही कर दिया। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी साहित्य के इस अमर कलमकार की मौत पागलखाने में हुई। उनका जन्म 14 अक्तूबर 1931 को अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना गांव में हुआ था। मटियानी का निधन 24 अप्रैल 2001 को दिल्ली में हुआ।


गरीबी ने नहीं पढ़ने दिया

गरीबी की वजह से शैलेश की पढ़ाई नहीं हो पाई। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं दी थी। जीवनयापन के लिए बचपन में ही भागकर मुंबई जाना पड़ा। उसके बाद से वह भागते ही रहे। कभी दिल्ली तो कभी इलाहाबाद और कभी मुंबई। राजेंद्र यादव कहते हैं कि शैलेश के सामने बहुत ही विकट स्थितियां थीं। आर्थिक और मानसिक रूप से भी। मुंबई में उन्हें बहुत विकट जीवन जीना पड़ा। बहुत समय तक फुटपाथों पर रहना पड़ा। जहां मुफ्त खाना मिलता था उन जगहों पर लाइनों में लगना पड़ा। शैलेश ने खुद एक जगह लिखा है कि जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो बड़ा अच्छा लगता था। सोचता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाने को खाना। शैलेश ऐसे लेखक हैं जिनके पास शिक्षा की नहीं, बल्कि अनुभव की पूंजी थी।

हिंदी का लेखक और होटल का वेटर

शैलेश की कहानियां जब धर्मयुग में प्रकाशित हो रही थीं तो उस समय वह मुंबई के एक छोटे से ढाबे में प्लेटें धोने और चाय लाने का काम करते थे। कितनी बड़ी विडंबना है कि धर्मयुग जैसे सर्वश्रेष्ठ अखबार में जिनकी कहानियां छपनी शुरू हो गईं हों वह एक छोटे से सड़क के किनारे बने ढाबे में चाय-पानी देने और प्लेट साफ  करने का काम कर रहा हो।

अंग्रेजी नहीं जानने वाले विचारक

शैलेश अंग्रेजी नहीं जानते थे लेकिन अपने ढंग से विचारक थे। देश की समझ, राष्ट्र की समस्या, भाषा की समस्या पर लिखते रहे। लेकिन वह हिंदुत्व के घेरे से बाहर नहीं निकल पाए। राजेंद्र यादव कहते हैं कि एक तरह से एक रूढ़िवादी विचारक के रूप में उन्होंने अपने को प्रोजेक्ट किया। वे एक अद्भुत और विलक्षण कहानीकार हैं लेकिन बहुत दयनीय विचारक थे।

रेणु से पहले किया आंचलिकता का प्रयोग

साहित्य की विधा में नई कहानी के सूत्रधार रहे राजेंद्र यादव कहते हैं कि शैलेश मटियानी फणेश्वर नाथ रेणु से पहले लेखक हैं, जिन्होंने सफलता पूर्वक आंचलिक भाषा और आंचलिक संस्कृति का प्रयोग किया। रेणु का जब पता भी नहीं था तब शैलेश का श्बोरीवली से बोरीबंदर तक उपन्यास आ चुका था। पहाड़ के जीवन पर उनकी अद्भुत कहानियां आ चुकी थीं, जो वहां की जीवन, संस्कृति और भाषा को निरूपित करती थी।

बेटे की हत्या का असर

कहा जाता है कि बेटे की हत्या होने के बाद शैलेश में एक खास तरह का परिवर्तन आ गया। राजेंद्र यादव कहते हैं कि इससे उनमें एक पराजय का भाव प्रारब्ध और नियति के सामने समर्पण का भाव और धर्म और ईश्वर से एक तरह से निकालने के लिए प्रार्थना का भाव पैदा कर दिया।

जिससे प्यार किया उसने समझा बेगाना

कहा जाता है कि शैलेश को उनके गांव के ब्राह्मणों ने भगा दिया था। इसके पीछे वजह यह बताई जाती है कि उन्हें एक ब्राह्मण की लड़की से प्रेम हो गया था। इसी वजह से उन्हें अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा। प्रेम की वजह से उनकी जान को खतरा हो गया था। बताया जाता है कि जिस लड़की से उन्होंने प्रेम किया था बाद में वही उनके खिलाफ हो गई थी। गर्भवती होने के बाद उसने शैलेश पर आरोप लगाया कि शैलेश बहकाकर और भगाकर उसे मैदान में बेचना चाहता है।

कहानियों में गरीबों की दुनिया

शैलेश कहानी की दुनिया मार्जिनलाइज़्ड की दुनिया है। गरीबों की दुनिया है। वह खुद जाति व्यवस्था से पीड़ित रहे। पहाड़ से भगा दिए गए। लेकिन विचार की दुनिया में उसी का समर्थन करते रहे। कहा जाता है कि वह पहाड़ से इसलिए भगाए गए क्योंकि वह प्रॉपर ढंग से क्षत्रिय भी नहीं थे। इनके परिवार में कसाई का काम किय जाता था। यही उन्हें तकलीफ देता था।

भोगा हुआ लिखा

डा. जगत सिंह बिष्ट लिखते हैं कि शैलेश मटियानी का साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है। शैलेश के साहित्य के वृत्त के में विविध क्षेत्रों वर्गों और संप्रदायों से संबद्ध जीवन संदर्भों का चित्रण हुआ है। शैलेश के कहानी में चित्रित निम्न वर्ग कुमाऊं के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध है। उनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित पीड़ित शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग और संप्रदाय से है, अपने प्रकृत रूप में दिखाई देता है। इसकी वजह शैलेश की अत्यंत संवेदनशील अंतर्दृष्टि को माना जा सकता है, जिसने उन्हें अपनी भोगी एवं देखी चीजों को यथार्थ के रूप में पकड़ पाने की अद्भुत क्षमता दी।

लेकिन प्रगतिशील खेमे को नहीं भाए

पलाश विश्वास लिखते हैं कि प्रगतिशील खेमे ने शैलेश को कभी नहीं अपनाया। जब शैलेश बेटे की मृत्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह हिंदुत्व में समाहित हो गये, तब शैलेश के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिंदी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर दिया। शैलेश की लेखकीय प्रतिष्ठा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका जो मिल गया था।




Thursday 16 October 2014

अधिष्ठात्री देवी कोटगाडी-कहा जाता है कि प्रतिदिन ब्रह्म मूर्हूत की पावन बेला पर माता कोटगाडी कुंड में स्नान करने आती हैं


 माता कोटगाडी देवी मंदिर का अपना दिव्य महात्म्य – यह देवी पाताल भुवनेश्वर की न्यायकारी शक्ति के रूप में पूजित - तुरंत फैसला देती हैं देवी- अन्याय का शिकार, दुत्कारे, न्याय की उम्मीद समाप्त  होने, अंधकार ही अंधकार नजर आने- ऐसे निराश प्राणी यहां आते हैं- फरियादों के असंख्य पत्र न्याय की गुहार के लिये ; न्याय की परम पराकाष्ठा प्रदान करने के पश्चात ही कोटगाडी न्याय की देवी के नाम से विख्‍यात – पिथौरागढ जनपद के थल क्षेत्र में है-

उत्तराखण्ड की पावन धरती में भगवान शिव-शंकर सहित तैंतीस कोटि देवताओं के दर्शन होते हैं। आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने स्वयं को इसी भूमि में ही पधारकर धन्य मानते हुये कहा कि इस ब्रह्माण्ड में उत्तराखण्ड के तीर्थों जैसी अलौकिकता व दिव्यता कहीं नहीं है। इस क्षेत्र में शक्तिपीठों की भरमार है। सभी पावन दिव्य स्थलों में से तत्कालिक फल की सिद्व देने वाली माता कोटगाडी देवी मंदिर का अपना दिव्य महात्म्य है। कहा जाता है कि यहां पर सच्चे मन से निष्ठापूर्वक की गयी आराधना व पूजा का फल तुरंत प्राप्त होता है तथा अभीष्ट कार्य की सिद्व होती है। तुरंत फैसला देती हैं देवी- -यह देवी पाताल भुवनेश्वर की न्यायकारी शक्ति के रूप में पूजित है।

किंवदन्तियों के अनुसार जब उत्तराखण्ड के सभी देवता विधि के विधान के अनुसार स्वयं को न्याय देने व फल प्रदान करने में अक्षम व असमर्थता की परिधि में मानते हैं उनकी शक्ति शिवतत्व में विलीन हो जाते हैं, तब अनन्त निर्मल भाव से परम ब्रह्माण्ड में स्तुति होती है कोकिला माता अर्थात कोटगाडी की। संसार में भटका मानव जब चौतरफा निराशाओं से घिर जाती है। हर ओर से अन्याय का शिकार हो जाता है। न्याय की उम्मीद समाप्त हो जाती है और उस प्राणी को दुत्कार ही दुत्कार, अंधकार ही अंधकार नजर आने लगता है। तो संकल्प पूर्वक कोटगाडी की देवी का जिस स्थान से भी सच्चे मन से स्मरण किया जाता है वहीं पर से निराशा के बादल हटने शुरू हो जाते हैं। मान्यता है कि संकल्प पूर्ण होने के बाद देवी माता कोटगाडी के दर्शन की महत्ता अनिवार्य है। किसी के प्रति व्यर्थ में ही अनिष्टकारी भावनाओं से मांगी गयी मनौती हमेशा उल्टी साबित होती है। इस मंदिर में फरियादों के असंख्य पत्र न्याय की गुहार के लिये लगे रहते हैं। दूर-दराज से श्रद्वालुजन डाक द्वारा भी मंदिर के नाम पर पत्र भेजकर मनौती मांगते हैं तथा मनौती पूर्ण होने पर भी माता को पत्र लिखते हैं तथा समय व मैय्या के आदेश पर माता के दर्शन के लिये पधारते हैं।

बताया जाता है कि माता के प्रभाव से आजादी के पूर्व अंग्रेज शासन काल में एक जज ने यहां आकर मां से क्षमा याचना की। कहते हैं कि क्षेत्र के एक निर्दोष व्यक्ति को जब कहीं से न्याय प्राप्त नहीं हुआ तब उसने समाज में स्वयं को निर्दोष साबित करन के लिये सच्चे मन से माता कोटगाडी के चरणों में विनय याचना रूची एक पत्र दाखिल किया। चमत्कार स्वरूप कुछ समय के बाद जज ने यहां पहुंचकर उसे निर्दोष बताया। इस प्रकार के सैकडों चमत्कारिक करिश्में श्रद्वालुओं एवं भक्तजनों के बीच सुनाई देते हैं। मंदिर के समीप ही अनेक पावन व सुरम्य स्थल मौजूद हैं। इस पौराणिक मंदिर में शक्ति कैसे और कब अवतरित हुई, अभी तक इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं हो पायी है। कोट का तात्पर्य कालांतर का माना जाता है। न्याय की परम पराकाष्ठा प्रदान करने के पश्चात ही शायद कोटगाडी को न्याय की देवी के नाम से जाना जाता है।

दंत कथाओं के अनुसार जब भगवान श्री कृष्ण ने बालपन के समय में कालिया नाग का मर्दन किया और तब उसे परास्त कर जलाशय छोडने को कहा तो कालिया नाग व उसकी पत्नियों ने भगवान श्री कृष्ण से क्षमा याचना कर प्रार्थना की कि हे प्रभु हमें ऐसा सुगम स्थान बतायें जहां हम पूर्णतः सुरक्षित रह सकें। तब भगवान श्री कृष्ण ने इसी कष्ट निवारणी माता की शरण में कालिया नाग को भेजकर अभयदान प्रदान किया था। कालिया नाग का प्राचीन मंदिर कोटगाडी से थोडी दूर पर पर्वत की चोटी पर स्थित है। बताया जाता है कि इस मंदिर की चोटी से कभी भी गरूड आर-पार नहीं जा सकते। ऐसी परम कृपा है कोटगाडी माता की कालिया नाग पर ।

इस मंदिर की शक्ति पर किसी शस्त्र के वार का गहरा निशान स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। किंवन्दियों के
अनुसार किसी ग्वाले की सुंदर गाय अक्सर इस शक्ति लिंग पर आकर अपना दूध स्वयं दुहाकर चली जाती थी। ग्वाले का परिवार बेहद अचम्भे में रहता था कि आखिर इसका दूध कहां जाता है। इस प्रकार एक दिन ग्वाले की पत्नी ने चुपचाप गाय का पीछा किया। जब उसने यह दृश्य देखा तो धारदार शस्त्र से उस शक्ति पर वार कर डाला। कहा जाता है कि इस वार से तीन धाराएं खून की बह निकली जो क्रमशः पाताल, स्वर्ग व पृथ्वी पर पहुंची। पृथ्वी पर खून की धारा प्रतीक स्वरूप यहां पर व्याप्त हैं। वार वाले स्थान पर आज भी कितना ही दूध क्यों न चढा दिया जाये, चढाया गया दूध शक्ति के आधे भाग में शोषित हो जाता है। कालिया नाग मंदिर के दर्शन स्त्रियों के लिये अनिष्ठकारी माना जाता है। जिसे श्राप का प्रभाव कहा जाता है। मंदिर के पास ही माता गंगा का एक पावन जलकुण्ड है। कहा जाता है कि प्रतिदिन ब्रह्म मूर्हूत की पावन बेला पर माता कोटगाडी इस कुंड में स्नान करने आती हैं। यहां पर सच्चे श्रद्वालुओं को अक्सर इस समय माता के वाहन शेर के दर्शन होते हैं। इस प्रकार की सैकडों कथायें इस शक्तिमय देवी के बारे में प्रचलित हैं। जो माता कोटगाडी के विशेष महात्म्य को दर्शाती हैं।

Monday 6 October 2014

भैरों गढ़ी -अधो गढ़वाल अधो असवाल कहावत को चरित्रार्थ करने वाली गढ़ी


भैरों गढ़ी ऐतिहासिक दृष्टि से एक सरसरी नजर-

अधो गढ़वाल अधो असवाल कहावत को चरित्रार्थ करने वाली यह गढ़ी ५२ गढ़ियों के इतिहास में मात्र एक ऐसी गढ़ी के रूप में प्रसिद्ध रही है जिस पर गोरखा सैनिक कभी भी विजय हासिल नहीं कर पाए. सन १७९७ में जब गोरखा सैनिक सेनापति अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गढ़वाल आक्रमण करते स्याल बूंगा किला (नजीबाबाद) को विजित करते हुए आगे बढे तब उन्हें भंधो असवाल जोकि तत्कालीन समय में महाबगढ़ का गढ़पति था और मानदयो असवाल (भैरों गढ़ी) के गढ़पति से करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. गोरखा सेना ने ३ माह तक लंगूर गढ (भैरों गढ़ी) की घेरा बंदी सवा लाख सैनिकों के साथ करके रखी लेकिन गढ़ी पर विजय करना तो दूर वे इस से आगे नहीं बढ़ पाए. राशन ख़त्म होने के कारण गोरखा सैनिकों को वापस लौटना पड़ा. ८४ गॉवों के जागीरदार अस्वालों की विजय का डंका पूरे बाबन गढ़ियों में गूंजने लगा. आखिर घर का भेदी लंका ढावे वाली कहावत चरित्रार्थ हुई और सन १८०२ में आये बिनाश्कारी भूकंप की जद में आये सम्पूर्ण गढ़वाल का दो तिहाही क्षेत्र जलमग्न हो गया जिसने ५२ गढ़ियों का सारा अधिपत्य ही समाप्त कर दिया. इस भूकंप ने इस अजर अमर गढ को भी मिटा दिया जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि हस्ती दल चौरसिया और सेनापति अमर सिंह थापा ने गढ़वाल पर सहारनपुर के रास्ते देहरादून और नजीबाबाद के रास्ते श्रीनगर पर दो तरफ़ा आक्रमण कर दिया. बुरी तरह तबाह हुए उत्तराखंड पर आखिर गोरखा अधिपत्य हुआ और ५२ गढ़ियों का इतिहास समाप्त हुआ

भैरव गढ़ी:

 यह लगभग 6,100 फीट ऊंचा एक नुकीले आकार की पहाड़ी पर गुम खाल केतुखाल द्वारी खाल के निकट स्थित है, जिसके पीछे पूर्वी नायर नदी है। उसकी एक ऐतिहासिक विशेषता है कि वर्ष 1814 में यहां अंग्रेजों एवं गोरखा सैनिकों के बीच एक घमासान युद्ध हुआ था।
भैरव गढ़ी की कथा..
एक गांव का आदमी रोज़ अपने जानवरों को जंगल में चराने ले जाता था..उसकी एक गाय जो दूध देती थी एक समय के बाद उसने घर पर दूध देना बंद कर दिया... आदमी ने सोचा कि कोई न कोई इसका दूध रास्ते में निकल देता है.... एक दिन वह गाय का पीछा करते करते जंगल में गया उसने देखा कि उसकी गाय एक पेड़ के नीचे अपना दूध छोड़ रही है...उसने उस पेड़ को काटने का मन बनाया, जिनसे ही उसने कुल्हाडी से उस पेड़ पर वार किया उसके अन्दर से खून आने लगा... फ़िर एक आवाज़ आई कि में भैरों हूँ.... फ़िर उस आदमी ने वहाँ पर भैरों का मन्दिर बनाया.... गोर्खावों के युद्ध में भैरों ने गाओं वालों के मदद कि... उसने उपर से ही पत्थर बरसाए.. आज भी कहते हैं कि अगर कोई आदमी उस एरिया में किसी मुसीबत में तो वह उन्सकी मदद करते हैं . अगर किसी को रस्ते में रात हो गई तो वह आवाज़ लगाकर उसको रास्ता बताता है...., यहाँ तक कि किसी के जानवर खेतो में घुस जाते थे तो वह गाँव वालों को आवाज़ देकर बुलाता था...

गढ़वाल आठवीं सदी तक ५२ गढ़ियों में बंटा था ! इन ५२ गढ़ियों में एक गढ़ी भैरों गढ़ी भी है ! वैसे पूरा उत्तरा खंड देव भूमि से जाना जाता है ! गंगोत्री, यमनोत्री, गौरी कुण्ड, केदार नाथ, बद्री नाथ, नर-नारायण पर्वत, नील कंठ, जोशीमठ, हरिद्वार, रूद्र प्रयाग, देव प्रयाग, कर्ण प्रयाग, श्री नगर, गुप्त कासी, ऋषिकेश, सहस्त्र धारा, नैनीताल, रानी खेत, कर्वाश्रम और भी बहुत सारे सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थान हैं जिन्हें कुदरत ने खूबसूरती से तरासकर उत्तराखंड की सुन्दरता में चार चाँद लगा दिए हैं ! देश विदेश से असंख्य पर्यटक बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं, यहाँ कदम कदम पर मंदिरों में शीश झुकाते हैं, गंगा - यमुना, मंदाकिनी, अलक नंदा, भागीरथी, राम गंगा में डुबकी लगाते हैं ! प्रवतों से गिरते झरने, श्वेत आवरण से लिपटी ऊंची ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं, हरे भरे खेत, रंग विरंगे फूलों से महकती फूलों की घाटी में खो कर दिल यहीं छोड़ जाते हैं ! कुछ सैलानी तो ऐसे भी होते हैं जो बार बार इस देव भूमि में आते हैं, कुछ वापिस चले जाते हैं कुछ यहीं के हो कर रह जाते हैं !

इन खूब सूरत पहाड़ियों के ऊपर एक पहाड़ पर एक बहुत प्राचीन मंदिर है "लंगूर भैरों " मंदिर" ! गढ़वाल का एक मात्र रेलवे स्टेशन कोटद्वार से गढ़वाल मोटर ऑनर्स यूनियन की बस द्वारा दुगड्डा, फतेहपुरी, गुमखाल होते हुए केतुखाल में बस से उतरना पड़ता है ! यहाँ से पहाडी पर चढने के लिए मंदिर कमिटी ने सीमेंट रोडी बदरपुर से एक घुमावदार आराम दायक रास्ता शीधे मंदिर के आँगन तक बना रखा है केतुखाल में चार छ: दुकाने हैं, यहाँ से चढ़ाई चढ़नी शुरू की, बड़े आराम से हम अगले पड़ाव तक पहुंचे ! वहां पर हनुमान जी का और काली माँ का मंदिर है ! यहाँ दर्शन करने के बाद हम पहुंचे भैरों बाबा के मंदिर में ! यहाँ से चारों तरफ दूर दूर तक का नजारा देखने लायक था ! पहाड़ों के ऊपर बसे गाँव, नदी, पर्वत श्रेणियां, पहाड़ों से पीछे लम्बे चौड़े मैदान, जंगल और दौड़ती हुई रेल और सडकों पर दौड़ती हुई बहुत सारी, मोटर, ट्रक, कारें ! मंदिर में पूजा की, पुजारी जी जो बचपन से ही मंदिर से बंधे हैं से मंदिर के बारे जान कारी ली ! यहाँ सब कुछ है, कुदरत की सुन्दरता, सड़क, आराम दायक रास्ते, गाँवों से दूर ऊंचाई पर सजा सजाया मंदिर, लेकिन पानी की समस्या है ! अब स्थानीय लोगों के सहयोग से मंदिर कमिटी के प्रयास से प्रदेश सरकार ने नय्यार नदी से पानी लाने के लिए पाइप लाइन बिछा दी गयी हैं ! लगता है अब जल्दी ही इस पूरे इलाके के साथ साथ सामने लैंसी डाउन की भी पानी की समस्या सुलझ जाएगी !

मंदिर का इतिहास

डाक्टर विष्णुदत्त कुकरेती जी ने अपनी पुस्तक "हिमालयीय संस्कृति की रीढ़ लंगूरी भैरों" में विवरण इस प्रकार दिया है,
डा० कुसुमलता पांडे ने अपने शोध प्रबंध गढ़वाल में लिखा है की 'रात प्रदेश के सात भाई सौरंयाल और नौ भाई कोठियाल नमक खरीदने बनिए की दुकान पर गए ! रात्री में भैरव सौरयाल की कंडी में बैठ गए ! प्रात: उन लोगो ने प्रस्थान किया ! लंगूर गढ़ी में इन्होंने ज्यों ही भोजन बनाकर बांटना प्रारम्भ किया, सात भाइयों का हिस्सा किया तो आठवां हिस्सा अपने आप हो गया ! इस बीच नमक की कंडी फट गयी, भैरव नाथ का लिंग वहां प्रकट हुआ ! इस लिंग के आठ हिस्से हुए जो अष्ट भैरव कहलाए, ये आठों हिस्सों में गिर गए, और उन स्थानों पर इनके मंदिर बन गए ! सबसे पहले मंदिर में हमीं गए थे, हमारे बाद धीरे धीरे लोगों का समूह आता गया ! पुजारी जी कह रहे थे की ख़ास ख़ास पर्वों पर यहाँ अच्छी खासी भीड़ होती है ! श्रद्धालु आते हैं मिन्नतें माँगते हैं और प्रश्नवित होकर अपने घरों को लौटते हैं !


Friday 3 October 2014

उत्तराखण्ड की एक विरासत है कुमाऊंनी रामलीला !आपको और आपके परिवार को विजयादशमी की हादिंक शुभकामनाएं !

On this auspicious occasion,We  wish the color, bliss and beauty Of this festival

                                  Be with you throught the year! Happy  Vijayadashami !

भगवान राम की कथा पर आधारित रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा भारत में युगों से चली आयी है। लोक नाट्य के रुप में प्रचलित इस रामलीला  का देश के विविध प्रान्तों में अलग अलग तरीकों से मंचन किया जातहै।

 उत्तराखण्ड खासकर कुमायूं अंचल में रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। वस्तुतः पूर्व में यहां की रामलीला विशुद्व मौखिक परंपरा पर आधारित थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। शास्त्रीय संगीत के तमाम पक्षों का ज्ञान न होते हुए भी लोग सुनकर ही इन पर आधारित गीतों को सहजता से याद कर लेते थे। पूर्व में तब आज के समान सुविधाएं न के बराबर थीं स्थानीय बुजुर्ग लोगों के अनुसार उस समय की रामलीला मशाल, लालटेन व पैट्रोमैक्स की रोशनी में मंचित की जाती थी। 

कुमायूं में रामलीला नाटक के मंचन की शुरुआत अठारहवीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। बताया जाता है कि कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व० देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमशः 1880-1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। अल्मोड़ा नगर में 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं० उदय शंकर ने छाया चित्रों के माध्यम से रामलीला में नवीनता लाने का प्रयास किया। हांलाकि पं० उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला यहां की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में भिन्न थी लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर अवश्य पड़ी। 

कुमायूं की रामलीला में बोले जाने वाले सम्वादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप दिखायी देती है, साथ ही साथ ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। सम्वादों में आकर्षण व प्रभावोत्पादकता लाने के लिये कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। कुमायूं की रामलीला में सम्वादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्दों का भी प्रयोग होता है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमायूंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादो में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रुपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती  गूंज में पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादो में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों  के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक तरजीह दी जाती है। रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खडे़ होकर हाव- भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं।

 नाटक मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उदघोषणा भी की जाती है। रामलीला प्रारम्भ होने के पूर्व सामूहिक स्वर में रामवन्दना “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन“  का गायन किया जाता है। नाटक मंचन में दृश्य परिवर्तन के दौरान जो समय खाली रहता है उसमें विदूशक (जोकर) अपने हास्य गीतों व अभिनय से रामलीला के दर्शकों का मनोरंजन भी करता है। कुमायूं की रामलीला की एक अन्य खास विशेषता यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। आधुनिक बदलाव में अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन, नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है। 

कुमायूं अंचल में रामलीला मंचन की तैयारियां एक दो माह पूर्व (अधिकांशतः जन्माष्टमी के दिन) से होनी शुरु हो जाती हैं। तालीम मास्टर द्वारा सम्वाद, अभिनय, गायन व नृत्य का अभ्यास कराया जाता है। लकड़ी के खम्भों व तख्तों से रामलीला का मंच तैयार किया जाता है। कुछ स्थानों पर तो अब रामलीला के स्थायी मंच भी बन गये हैं। शारदीय नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन प्रारम्भ हो जाता है, जो दशहरे अथवा उसके एक दो दिन बाद तक चलता है। इस दौरान राम जन्म से लेकर रामजी के राजतिलक तक उनकी विविध लीलाओं का मंचन किया जाता है। कुमायूं अंचल की रामलीला में सीता स्वयंवर,परशुराम-लक्ष्मण संवाद, दशरथ-कैकयी संवाद, सुमन्त का राम से आग्रह, सीताहरण, लक्ष्मण शक्ति, अंगद-रावण संवाद, मन्दोदरी-रावण संवाद व राम-रावण युद्ध  के प्रसंग मुख्य आर्कषण होते हैं। इस सम्पूर्ण रामलीला नाटक में तकरीबन साठ से अधिक पात्रों द्वारा अभिनय किया जाता है।

 कुमायूं की रामलीला में राम, रावण, हनुमान व दशरथ के अलावा अन्य पात्रों में परशुराम, सुमन्त, सूपर्णखा, जटायु, निशादराज, अंगद, शबरी, मन्थरा व मेघनाथ के अभिनय देखने लायक होते हैं। यहां की रामलीला में प्रयुक्त परदे, वस्त्र, श्रृंगार सामग्री व आभषूण प्रायः मथुरा शैली के होते हैं। नगरीय क्षेत्रों की रामलीला को आकर्षक बनाने में नवीनतम तकनीक, साजसज्जा, रोशनी,व ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग होने लगा है।

कुमायूं अंचल में रामलीला का मंचन अधिकांशतः शारदीय नवरात्र में किया जाता है, लेकिन जाड़े अथवा खेती के काम की  अधिकता के कारण कहीं-कहीं गर्मियों व दीपावली के आसपास भी रामलीला का मंचन किया जाता है। 14 वर्ष तक लगातार रामलीला मंचन होने के बाद १४ वें साल में लव-कुश काण्ड का मंचन भी किये जाने की परम्परा इस अंचल में है।  कुमायूं अंचल में रामलीला मंचन की यह परम्परा अल्मोड़ा से विकसित होकर बाद में आस-पास के अनेक स्थानों में चलन में आयी। शुरुआती दौर में सतराली, पाटिया, नैनीताल, पिथौरागढ, लोहाघाट, बागेश्वर, रानीखेत, भवाली, भीमताल, रामनगर हल्द्वानी, व काशीपुर के अलावा पहाड़ी प्रवासियों द्वारा आयोजित दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, लखनऊ जैसे नगरों  की रामलीलायें प्रसिद्ध मानी जाती थी। 

उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा में आज भी तकरीबन आठ-दस मुहल्लों में बड़े उत्साह के साथ रामलीलाओं  का आयोजन किया जाता है, जिनमें स्थानीय गांवों व नगर की जनता देर रात तक रामलीला का भरपूर आनन्द उठाती हैं। अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण कुछ अलग ही होता है। दशहरे के दिन नगर में रावण परिवार के डेढ़ दर्जन के करीब आकर्षक पुतलों को पूरे बाजार में घुमाया जाता है। इन पुतलों को देखने के लिये नगर में भारी भीड़ एकत्रित होती है। 

कुमायूं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में पूर्व में जहां स्व० पं० रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद, स्व० बद्रीदत्त जोशी, स्व० कुन्दनलान साह, स्व० नन्दकिशोर जोशी, स्व० बांकेलाल साह, व स्व० ब्रजेन्द्रलाल साह  सहित कई दिवंगत व्यक्तियों व कलाकारों का योगदान रहा, स्व० ब्रजेन्द्र लाल शाह जी ने रामलीला को आंचलिक बनाने के उद्देश्य से कुमांऊनी तथा गढ़वाली बोली में भी रामलीला को रुपान्तरित किया था।वहीं वर्तमान में लक्ष्मी भंडार( हुक्का क्लब) के श्री शिवचरण पाण्डे और उनके सहयोगी  तथा हल्द्वानी के डॉ० पंकज उप्रेती सहित तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकार यहां की समृद्ध एवं परम्परागत रामलीला को सहेजने और संवारने के कार्य में लगे हुए हैं। वर्तमान में उत्तराखण्ड के लगभग हर गांव में रामलीलाओं का मंचन किया जाता है, जिनमें उत्तराखण्ड की इस समृद्ध परम्परा को सहेजने का प्रयास जारी है।

Sunday 28 September 2014

कृतिका रावत -जिंदगी बचाने वाली खातून -मिडिल ईस्ट की अकेली ऐसी शख्सियत हैं, -जिनके नाम पर केक का नाम रखा गया है।

अपनी काबिलियत के बूते अपनी पसंद के क्षेत्र में मुकाम बनाना अलग बात है, लेकिन बात तब है, जब इस मुकाम की बदौलत दूसरों के जीवन में उजाला फैले।

मूल रूप से उत्तराखंड पौड़ी की रहने वाली और जीवन के कई साल कोटद्वार में बिताने वाली कृतिका रावत कई के जीवन में ऐसा ही उजाला लेकर आईं हैं।वर्तमान में दुबई की सेलिब्रिटी आरजे और के कंपनी की एमडी कृतिका की शख्सियत के बारे में जानने के लिए दुबई का राशिद अस्पताल एक छोटी मिसाल है

 यहां उन्हें कई की जिंदगी बचाने वाली खातून की पहचान हासिल है। इस अस्पताल में लाई गई 6 दिन की दृष्टिबाधित बच्ची अफसाना की सर्जरी हो या ऑन ड्यूटी एक्सीडेंट के शिकार हुए डिलीवरी ब्वाय हामिद के लिए कृत्रिम टांग का संकट

ब्रेन ट्यूमर से लड़ रहा 8 साल के सौरभ की सर्जरी का मसला हो या कैंसर से लड़ रहे रूद्राक्ष का ट्रीटमेंट कृतिका ने अपने बूते हर किसी की बढ़-चढ़कर मदद की।

बात मजलूमों की आई तो उसने अजमान में बच्चों के स्कूल के लिए पूरी लाइब्रेरी तैयार कर दी। अपने रेडियो शो के जरिए पावर टू नॉलेज अभियान चलाकर अपने सुनने वालों को भी उसने इन गतिविधियों से सीधे जोड़ा।

कृतिका के नौकरीपेशा पिता तकरीबन ढाई दशक पहले दुबई चले गए थे। महज 30 साल की उम्र में पति गौरव टंडन के संग परिवार जमाने के साथ ही रेडियो और टेलीविजन प्रोडक्शन के निर्माण से जुड़ी के कंपनी की एमडी हैसियत के साथ ही वह रेडियो बिजनेस में 105.4 रेडियो स्पाइस के प्रबंध सलाहकार के तौर पर भी व्यस्त हैं।

उनकी कंपनी आइडिएशन, सेप्चुअलाइजेशन, रिसर्च, डाक्यूमेंटेशन, शूटिंग, सेट डेवलपमेंट, एनिमेशन, कंटेंट प्रोवाइडर, पोस्ट प्राडक्शन से जुड़े सभी काम देखती है।

चंद साल पहले काम के सिलसिले में दुबई पहुंची कृतिका इस वक्त एशियन कम्युनिटी की गैर-औपचारिक राजदूत कहलाती हैं। वह संभवत: मिडिल ईस्ट की अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जिनके नाम पर केक का नाम रखा गया है।

इस पर कृतिका के हस्ताक्षर हैं। वहां के बड़े प्रतिष्ठान बेकमार्ट प्लस का यह बेस्ट सेलिंग केक है।

बातें बनाने का शौक था, आज इससे कामयाब

सिंगिंग और बातें बनाने के शौक से रेडियो में इंट्री लेने वाली कृतिका ने अपनी मेहनत और लगन से बहुत जल्द वह हासिल किया, जो उसका सपना था।

निजी शोज के जरिए भी उसने खुद को वित्तीय रूप से मजबूत करने का कार्य किया। बाद में चंद साथियों के साथ मिलकर कंपनी खोली, जो इस वक्त कामयाबी की राह पर है।

Thursday 25 September 2014

किरण पुरोहित बडोला वह नाम है, जिसने यूएसए के दिल में पहाड़ को जिंदा किया हुआ है।


उत्तराखंड के श्रीनगर से ताल्लुक रखने वालीं किरण 2008 में स्थापित की अपनी कंपनी ‘माउंटेन हैंडीक्राफ्ट’ के जरिए पहाड़ के हैंडीक्राफ्ट को दुनिया के इस हिस्से की पसंद बनाने में जुटी हैं।

उन्होंने एक अमेरिकी लेखक डॉ. रिचर्ड पिगलगर के साथ मिलकर उत्तराखंड के एरि सिल्क पर ‘एरि सिल्क, कोकोन टू क्लाथ’ नाम से किताब भी लिखी है। दुनिया भर की प्रतिष्ठित बुनकर से जुड़ी मैगजींस में उनके उत्पादों, लेखों को जगह मिली है।

उत्पादों की डायरेक्ट और आन लाइन बिक्री से लाखों का टर्नओवर हासिल करने वाली किरण ने बायोलाजी और केमिस्ट्री जैसे विषयों के साथ ग्रेजुएशन किया। इस वक्त यूएसए के ओहायो में रह रहीं किरण ने 14 साल पहले यानी सन् 2000 में विवाह के पश्चात पति अनिल बडोला के साथ यूएसए का रुख किया। किरण ने अपना तो बड़ा व्यवसाय खड़ा किया ही है, लेकिन इस क्रम में अपने परिवार को भी नजरअंदाज नहीं किया।
किरण बताती हैं कि उत्तराखंड राज्य की आर्थिकी में मददगार बनने के साथ ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की भी मदद किरण हैंडीक्राफ्ट के इस व्यवसाय के माध्यम से कर पा रही है। वेबसाइट के जरिए अन्य देशों के भी ग्राहक किरण के हैंडीक्राफ्ट उत्पादों तक पहुंच बना रहे हैं।

किरण पुरोहित बडोला उत्तराखंड के इस विधा को प्रमोट करने के लिए कमर कर चुकी हैं। अपनी मित्र प्रियंका टोलिया के साथ मिलकर जल्द ही उत्तराखंड में टेक्सटाइल से जुड़ा एक प्रोजेक्ट भी लाने जा रही हैं। उत्पाद यहीं बनाए जाएंगे, उन्हें यूएसए में मार्केट किया जाएगा।

निफ्ट से की डिजाइनिंग की शुरुआत

किरण ने नेशनल इंस्टीट्यूट आफ फैशन डिजाइनिंग (निफ्ट) से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था। वह डिजाइनर बनना चाहती थीं। शुरुआत में स्कार्फ डिजाइन किए। जब हैंडीक्राफ्ट के प्रति बाहरी लोगों का क्रेज देखा तो राह बदल दी। माउंटेन हैंडीक्राफ्ट के नाम से उत्तराखंड केहैंडीक्राफ्ट उत्पादों को ग्राहकों तक पहुंचाती हैं।

महिलाओं के लिए संदेश

महिलाएं शक्तिपुंज हैं। उन्हें कुछ करने केलिए किसी सहारे की जरूरत नहीं। प्लानिंग के साथ दृढ़सोच को मिला कार्य शुरू कर दें। सफलता मिलेगी ही।

Wednesday 24 September 2014

नवरात्रि व्रत का महत्व- May the festival of Navratri bring joy and prosperity in your life-Happy Navratri




ईश्वर की उपासना के लिए किसी मुहूर्त विशेष की प्रतीक्षा नहीं की जाती. सारा समय भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं, हर घड़ी शुभ मुहूर्त है. हां, प्रकृति में कुछ विशिष्ट अवसर ऐसे आते हैं कि कालचक्र की उस प्रतिक्रिया से मनुष्य सहज ही लाभ उठा सकता है.

कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाता ऋषियों ने प्रकृति के अंतराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को दृष्टिगत रख कर ही ऋतुओं के इस मिलन काल की संधिवेला को नवरात्र की संज्ञा दी है. नवरात्र पर्वों का साधना विज्ञान में विशेष महत्व है. प्रात:कालीन और सायंकालीन संध्या को पूजा-उपासना के लिए महत्वपूर्ण माना गया है.
शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के परिवर्तन के दो दिन पूर्णिमा एवं अमावस्या के नाम से जाने जाते हैं तथा कई महत्वपूर्ण पर्व इसी संधिवेला में मनाये जाते हैं. इसी प्रकार ऋतुओं का भी संधिकाल होता है. शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन का यह संधिकाल वर्ष में दो बार आता है. चैत्र में मौसम ठंडक से बदल कर गर्मी का रूप ले लेता है और आश्विन में गर्मी से ठंडक का.

आयुर्वेदाचार्य शरीर शोधन-विरेचन एवं कायाकल्प जैसे विभिन्न प्रयोगों के लिए संधिकाल की इसी अवधि की प्रतीक्षा करते हैं. शरीर और मन के विकारों का निष्कासन-परिशोधन भी इस अवसर पर आसानी से हो सकता है.  उसी प्रकार नवरात्रियां भी प्रकृति जगत में ऋतुओं का ऋतुकाल हैं, जो नौ-नौ दिन के होती हैं. उस समय उष्णता और शीत दोनों ही साम्यावस्था में होते हैं.

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्माचारिणी। तृतीय चंद्रघण्टेति कुष्माण्डेति चतुर्थकम्।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।सप्तमं कालरात्रि महागौरीति चाऽष्टम्।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः।

नव दुर्गा-

प्रथम दुर्गा : श्री शैलपुत्री

श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

द्वितीय दुर्गा : श्री ब्रह्मचारिणी

श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है।

तृतीय दुर्गा : श्री चंद्रघंटा

श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।

चतुर्थ दुर्गा : श्री कूष्मांडा

श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।

पंचम दुर्गा : श्री स्कंदमाता

श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।

षष्ठम दुर्गा : श्री कात्यायनी
श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है।

सप्तम दुर्गा : श्री कालरात्रि

श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए।

अष्टम दुर्गा : श्री महागौरी

श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।

नवम् दुर्गा : श्री सिद्धिदात्री

श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।
इस दिन को रामनवमी भी कहा जाता है और शारदीय नवरात्रि के अगले दिन अर्थात दसवें दिन को रावण पर राम की विजय के रूप में मनाया जाता है। दशम् तिथि को बुराई पर अच्छाकई की विजय का प्रतीक माना जाने वाला त्योतहार विजया दशमी यानि दशहरा मनाया जाता है। इस दिन रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के पुतले जलाये जाते हैं।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है|देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है। गॉंवों में इन्‍हें कन्‍या पूजन कहते हैं। जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है।

नवरात्रि व्रत विधि-

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें । इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्री :-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।

इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

कलश स्थापना-

नवरात्र के दिनों में कहीं-कहीं पर कलश की स्थापना की जाती है एक चौकी पर मिट्टी का कलश पानी भरकर मंत्रोच्चार सहित रखा जाता है। मिट्टी के दो बड़े कटोरों में मिट्टी भरकर उसमे गेहूं/जौ के दाने बो कर ज्वारे उगाए जाते हैं और उसको प्रतिदिन जल से सींचा जाता है। दशमी के दिन देवी-प्रतिमा व ज्वारों का विसर्जन कर दिया जाता है।

महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती मुर्तियाँ बनाकर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करें और पुष्पो को अर्ध्य देवें । इन नौ दिनो में जो कुछ दान आदि दिया जाता है उसका करोड़ों गुना मिलता है इस नवरात्र के व्रत करने से ही अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

कन्या पूजन-

नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। अष्टमी के दिन कन्या-पूजन का महत्व है जिसमें 5, 7,9 या 11 कन्याओं को पूज कर भोजन कराया जाता है।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्यण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

Wednesday 17 September 2014

कैसे अजय बिष्ट बने महंत आदित्यनाथ-अर्जुन की तरह ही आज भी रक्षा करने का ये जज्बा गोरखपुर की धरा पर कायम है-महंत आदित्यनाथ


पौड़ी जिले के पंचेर गांव में नंद सिंह बिष्ट के घर पांच जून 1972 को जन्मे बालक का नाम अजय रखा गया।

14 सितंबर को उनके जीवन में नया अध्याय जुड़ गया। महंत अवेद्यनाथ के समाधिस्थ होने के साथ ही बेशुमार लोगों और संत समाज के गणमान्य लोगों के बीच उन्होंने गोरक्षपीठाधीश्वर का दायित्व संभाल लिया। वैसे उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र जीवन से ही हो गई थी। गढ़वाल विश्वविद्यालय से बीएससी की डिग्री हासिल करने तक उनकी गिनती अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रखर कार्यकर्ताओं के रूप में होने लगी थी। नाम के अनुरूप बाल्यावस्था से हर काम की तेजी से अजय ने न सिर्फ अपने अजेयभाव का प्रदर्शन किया बल्कि कम उम्र में संत पंथ को अपनाकर न सिर्फ आदित्यनाथ बन गए बल्कि वोटों की शक्ल में आम लोगों का दिल जीतकर 1998 में सबसे कम उम्र सांसद बनने का गौरव भी हासिल किया।

इसके बाद 22 साल की उम्र में परिवार त्यागकर वह योगी स्वरूप में आ गए। 1993 से अपना केंद्र गोरखपुर बना लिया और गोरखनाथ मंदिर में निरंतर बढ़ते सेवाभाव ने उन्हें 15 फरवरी 1994 को उनको गोरक्षपीठाधीश्वर के उत्तराधिकारी की पदवी तक पहुंचा दिया।इसके बाद 1998 में जब फिर लोकसभा का चुनाव की घोषणा हुई तो गोरक्षपीठाधीश्वर ने अपनी सियासी विरासत भी उन्हें सौंपते हुए चुनाव लड़ाने का फैसला लिया।इस चुनाव में जीतकर उन्हें सबसे कम उम्र का सांसद बनने का गौरव हासिल हुआ। उसके बाद से वह लगातार पांचवीं बार चुनाव जीतकर बाल्यवस्था के अपने नाम के अनुरूप खुद के अजेय भाव को प्रदर्शित कर रहे हैं।
एक कार्यक्रम के दौरान उनके भाषण ने ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ को प्रभावित किया और उनके आह्वान पर रामजन्मभूमि आंदोलन से जुड़ गए। गतिविधियों के साथ काम के प्रति समर्पण का भाव बढ़ता देख महंत अवेद्यनाथ उन्हें अपना शिष्य बनाने पर हामी भर दी।

1996 के लोकसभा चुनाव में जब महंत अवेद्यनाथ गोरखपुर संसदीय सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में थे तो चुनाव का कुशल संचालन करके उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझ का खास परिचय दिया।

जब सम्पूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश जेहाद, धर्मान्तरण, नक्सली व माओवादी हिंसा, भ्रष्टाचार तथा अपराध की अराजकता में जकड़ा था उसी समय नाथपंथ के विश्व प्रसिद्ध मठ श्री गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर के पावन परिसर में शिव गोरक्ष महायोगी गोरखनाथ जी के अनुग्रह स्वरूप माघ शुक्ल 5 संवत् 2050 तदनुसार 15 फरवरी सन् 1994 की शुभ तिथि पर गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ जी महाराज ने अपने उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ जी का दीक्षाभिषेक सम्पन्न किया।

अपने धार्मिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के साथ-साथ योगी जी निरंतर समाज से जुड़ी समस्याओं के निवारण के लिए प्रयास करते रहते हैं। व्यक्तिगत समस्याओं से लेकर विकास योजनाओं तक की समस्याओं का हल वे बहुत ही धैर्यपूर्वक निकालते हैं।



1998 : 12वीं लोक सभा के लिए पहली बार गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित।
1999 : 13वीं लोक सभा के लिए दूसरी बार गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित।
2004 : 14वीं लोक सभा हेतु पुनः तीसरी बार निर्वाचित।
2009 : 15वीं लोक सभा हेतु पुनः चौथी बार निर्वाचित।
2014 : 16वीं लोक सभा हेतु पुनः पाँचवी बार निर्वाचित।

अपने अज्ञातवास के अंतिम समय में अर्जुन ने विराटनगर,नेपाल के राजा की गायो के हरण कर चुके कौरवो से जिस जगह युद्ध कर रक्षा की वो जगह ही  गो रक्षा पुर या गोरखपुर कहलाई. 

 अर्जुन की तरह ही आज भी रक्षा करने का ये जज्बा गोरखपुर की धरा पर कायम है आज की यह परंपरा गोरक्ष पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ निभा रहे है. जिस ‘समाज की रक्षा’ संविन्धान,सेना, प्रशासन रक्षा नहीं कर पा रहा है उसकी रक्षा योगी आदित्यनाथ बिना पुकारे ही कर रहे है. वे कौन सी बात से ‘रक्षा’ कर रहे है या  किस तरह से ‘रक्षा’ कर रहे है वो भी किसी से भी छुपा नहीं है.

हिन्दू जनमानस में अपनी ख़ास पहचान रखने वाले गोरखपुर का ‘गोरक्ष पीठ’ नाम का मठ नाथ सम्प्रदाय के हठ-योगियों का गढ रहा, जाति-पाति से दूर इस सम्प्रदाय के शाखा तिब्बत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर पूरे पश्चिम उत्तर भारत में फैली थी. नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ को हिन्दू समेत तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्ध योगी माना जाता है. रावलपिंडी शहर को बसाने वाले राजपूत राजा बप्पा रावल के गोरखनाथ को अपना गुरु मानते थे व् इन्ही के प्रेरणा से मोरी (मौर्या) सेना को एकत्र कर मुहम्माब बिन कासिम के नेतृत्व में अरब हमलो से भारत की रक्षा की, आज उसी प्रकार से ‘समाज की रक्षा’ गोरखनाथ मठ के उत्तराधिकारी होने के नाते योगी आदित्यनाथ कर रहे है.

योगी जी की कर्मभूमी उत्तर प्रदेश का सबसे पूर्वी हिस्सा है, जिसमे गोरखपुर मंडल के देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर,महाराजगंज, बस्ती मंडल के बस्ती,संतकबीर नगर, सिद्धार्थनगर और आज़मगढ़ मंडल के आज़मगढ़, बलिया,मऊ जिले शामिल हैं. ये तीनो मंडल एक ख़ास विचारधारा से प्रभावित हो साम्प्रदायिकता का जवाब साम्प्रदायिकता की राजनीति की तरफ आकृष्ट हुए है. कई दशको से मठ आधारित ये राजनीति अपने शुरुवाती दिनों के सोफ्ट हिंदुत्व से उग्र हिन्दुत्ववादी हो चुकी है तो इसका श्रेय योगी आदित्य नाथ के आक्रामक स्वाभाव को ही जाता है. पूर्व में इसी विचारधारा के तहत महंत अवैद्य नाथ ने 1989 और 1991 में गोरखपुर से लोकसभा का चुनाव जीता व् उनके बाद से उनके उत्तराधिकारी बने योगी आदित्यनाथ ने लगातार 1996,1998, 1999 ,2004 और 2009 के चुनाव के चुनाव जीत अपनी इसी राजनीति के सफल होने का प्रमाण दिया.

जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने जापानी इंसेफलाइटिस से बचाव और उसके उपचार के लिए उलेखनीय प्रयास किये, उसके अलावा गोरखपुर में सफाई व्यवस्था व् राप्ती नदी पर बांध बनवाने जैसे कई विकास के कार्य कराए है. सदियों से श्रद्धा का केंद्र रहने वाले गोरखनाथ पीठ के महंत होने की वजह से वे कभी भी मतदाता के सामने हाथ नहीं जोड़ते, उल्टे मतदाता उनके पैर छूकर आर्शीवाद मांगते हैं. सांसद होने के नाते कोई समस्या बयान करता तो वे सरकारी प्रक्रिया का इंतज़ार किये बिना  तुरंत संबंधित अधिकारी से बात कर समस्या का अपने स्तर पर निपटारा कर देते है. कुछ वर्ष पहले एक माफिया डॉन के द्वारा उनके एक मतदाता के मकान पर कब्जे से क्षुब्द, योगी ने सीधे ही उस मकान पर पहुँच अपने समर्थको के द्वारा उसे कब्जे से मुक्त करवा दिया ऐसे कई और मामलें है जो उनकी धार्मिक रहनुमाई से रोबिनहुडाई तक के सफ़र की कथा बयान करती है.

2009 में पार्टी पर मजबूत पकड़, मठ से प्राप्त धार्मिक हैसियत, विकास और हिन्दू युवा वाहिनी जैसे युवाओ के संगठन के बदौलत उन्होंने करिश्माई रूप से स्वयं की गोरखपुर शहर व् कांग्रेस के दिग्गज महावीर प्रसाद को कमलेश पासवान से हरवा कर बांसगांव लोकसभा सीट जीत ली.आदित्यनाथ भाजपा के टिकट पर सिर्फ चुनाव लड़ते हैं, और पार्टी की भी राज्य में अपने घटी हैसीयत के कारण उनकी ब्रांड वाली राजनीति को बाबूलाल कुशवाहा की तरह मजबूरन स्वीकारना पड़ता है. वे पार्टी की सांगठनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करके उसके पदों पर अपने समर्थकों को तो बिठाते हैं पर भाजपा संगठन की बनिस्बत वे अपने जन कार्यक्रम  हिन्दू युवा वाहिनी और हिन्दू महासभा के बैनर तले चलाते हैं. हालंकि नितिन गडकरी के मौजूदा  कार्यकाल में पार्टी पर उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ी है. पार्टी में धीरे धीरे उनकी उपेक्षा भी शुरू हो गयी है हुई मसलन इन चुनावो के मद्देनज़र पिछले नवम्बर माह में राजनाथ सिंह ने जो सद्भावना यात्रा गोरखपुर में की उसमे उन्होंने योगी को बुलाना तक उचित नहीं समझा, फिर पार्टी ने उनकी युवा वाहिनी की अपेक्षा राजनैतिक लोगो को उनके प्रभाव वाले इलाको में टिकट दे दिए. गडकरी ने बाद में बयान दिया की कुछ बड़े नेता अपनी मनमानी कर जितने वाले कार्यकर्ताओ की अपेक्षा अपने समर्थको को टिकट देने का मुझ पर काफी दबाव बना रहे है. स्वजातीय राजपूत नेता व् भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही व् गोरखपुर शहर के पूर्व विधायक शिव प्रताप शुक्ल से उनकी रार किसी से छुपी नही




Thursday 11 September 2014

गढ़वाल राइफल्स के स्वर्णिम इतिहास से मिला जनरल बकरा -प्राणी कोई भी हो उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु आत्मा एक ही होती है,


गढ़वाल राइफल्स के स्वर्णिम इतिहास से मिला जनरल बकरा का किस्सा सुनने से जितना अटपटा सा लगता है वास्तविकता में यह किस्सा उतना ही रोचक है। बात हिन्दुस्तान आजाद होने से पहले की है। लैन्सडाउन में उस समय गढ़वाल राइफल का ट्रेनिंग सेन्टर हुआ करता था। गढ़वाल राइफल के सभी महत्वपूर्ण फैसले उस समय अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा लिये जाते थे। उस समय फ्रांस, जर्मन, बर्मा, अफगानिस्तान आदि देशों से अंग्रेजी शासन का युद्ध होता रहता था अत: गढ़वाल राइफल की पल्टन को भी हुकूमत के शासन के अनुसार उन स्थानों पर जंग में शामिल होना होता था। गढ़वाली जवान इस समय जहां जहां भी जंग पर भेजे जाते थे अपनी वीरता की धाक जमाकर आते थे।

ऐसे ही एक समय अफगानिस्तान के विद्रोह को दबाने के लिये अन्य सैनिक टुकड़ियों के साथ "गढ़वाल राइफल" के जवानों को अफगानिस्तान के "चित्राल" क्षेत्र में भेजा गया। चित्राल अफगानिस्तान पहुंचने पर कमांडर ने जवानों को नक्शा समझाया और टुकड़ियों को अलग अलग दिशाओं से आगे बढ़ने को कहा। सभी टुकड़ियों को एक बहुत बड़े क्षेत्र को घेरते हुये आगे बढ़ना था और एक स्थान पर आगे जाकर मिलना था। वहां के बीहड़ तथा अन्जान प्रदेश में गढ़वाली पल्टन की एक पलाटून टुकड़ी दिशा भ्रम के कारण रास्ता भटक गई तथा घनघोर बीहड़ स्थल में फंस गई। अन्जान जगह और इस ये संकट, स्थिति बड़ी विकट थी।

कई दिनों तक भटकने के बाद जवानों का बुरा हाल था। भूख और प्यास की वजह से हालत पस्त होती जा रही थी। वे लोग शत्रु प्रदेश में होने के कारण दिन भर भूखे प्यासे झाड़ियों में छिपे रहते और रात को छुपते-छुपाते रेंगते हुये आगे बढ़कर मार्ग ढूंढते थे। ऐसे ही एक रात थके भटके सिपाही शत्रुओं से बचते-बचाते अपना मार्ग ढूंढने में लगे थे तभी उन्होने सामने की झाड़ियों में अपनी तरफ बढ़ती कुछ हलचल महसूस की। झाड़ियों कोइ चीरकर अपनी तरफ बढ़ते शत्रुओं के भय से हिम्मत, साहस और शक्ति आ गई । सभी ने अपनी बन्दूकें कस कर पकड़ लीं और ग्रुप कमान्डर के इशारे के आदेश से आक्रमण करने को तैयार सांस बांधे और बन्दूक साधे झाड़ियों की तरफ टकटकी लगाये खड़े हो गये। रात्रि के अन्धकार में शत्रु की सटीक स्थिति एवं संख्या का अंदाजा लगा पाना मुश्किल था लेकिन फिर भी सभी मजबूती से बन्दूकें पकड़े चौकन्ने खड़े थे। लेकिन आने वाल जब झाड़ियों से बाहर निकलकर उनके सामने निर्भय हो आ खड़ा हुआ तो सबकी सांस में सांस आई, बन्दूकों पर पकड़ ढीली पड़ गई और भूख भी लौट आई।

जिसको शत्रु समझकर वे आक्रमण की तैयारी कर खड़े हो चुके थे वो एक भीमकाय जंगली बकरा था जो सामने चुपचाप खड़ा उनको देख रहा था। वह बकरा बड़ा शानदार था, उसके बड़े सींग और लम्बी दाढ़ी उसकी आयु का परिचय दे रहे थे तथा वह एक सिद्धप्राणी देवदूत सा खड़ा सिपाहियों की गतिविधियां देख रहा था। अजनबी देश में भटके वे सिपाही कई दिनों से भूखे थे। उन्होने बकरे को घेर कर पकड़ कर खाने की बात आपस में तय की तथा उसे पकड़ने के लिये घेराबन्दी करने लगे। बकरा भी चुपचाप खड़ा उन्हे देखता रहा।

जब बकरे ने देखा कि सिपाही उसकी तरफ आ रहे हैं तो वह जैसे खड़ा था वैसे ही उल्टे पैर सिपाहियों पर नजर गढ़ाये जिधर से आया था उधर को उल्टा पीछे चलने लगा। धीरे धीरे पीछे हटते बकरे की तरफ सिपाही मन्त्रमुग्ध से होकर चाकू हाथ में थामें बढ़ते रहे। काफी दूर तक चलते चलते बकरा उनको एक बड़े खेत में ले आया था वहां आकर बकरा खड़ा हो गया। सिपाहियों ने  बकरे को घेर लिया लेकिन तभी बकरे ने अपने पीछे के पावों से मिट्‌टी को खोदना शुरू किया थोड़ी ही देर में मिट्‌टी से बड़े बड़े आलू निकल कर बाहर आने लगे। खेत से आलुओं को निकलता देखकर सिपाहियों समझ गये कि यह बकरा भी हमारी भूख और मन की व्यथा को समझ रहा था। उसने हमारी छटपटाती भूख को देखकर हमारे जीवन की रक्षा का उपाय सोचा और सोचने के बाद वह मूक प्राणी किस तरह हमें खेत तक ले गया। वह यह भी देख रहा था कि ये मारने के लिये हथियार उठाये हुये हैं। बकरे के मूक व्यवहार को देक सभी सिपाही गद्‌-गद्‌ हो उठे, सबने हथियार छोड़ बकरे को गले से लगाया।

 उसके बाद सिपाहियों ने बकरे के खोदे हुये आलुओं को इकट्ठा कर भूनकर खाया। पेट भर कर उनमें नई शक्ति का संचार हुआ तथा वे अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हुये। कुछ दूर चलकर उनको अपने साथी भी मिल गये। निर्धारित स्थान पर आक्रमण कर गढ़वाली पल्टन विजयी हुई। लौटते समय सैनिक वहां से जीत के माल, तोप, बन्दूक, बारूद के साथ उस भीमकाय बकरे को भी लैन्सडौन छावनी में ले आये।

गढ़वाल राईफल्स की लैन्सडौन छावनी में विजयी सैनिकों का सम्मान हुआ। उनके साथ ही उस बकरे का भी सम्मान किया गया क्योंकि युद्ध में उसने पलाटून के सभी जवानों की जीवन रक्षा की थी अत: उस बकरे को "जनरल" की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह बकरा भले ही "जनरल" पद की परिभाषा तथा गरिमा ना समझ पाया हो लेकिन वह परेड ग्राउन्ड में खड़े सैनिकों, आफिसरों के स्नेह को देख रहा था, सभी उस पर फूल बरसा रहे थे। विशाल बलिष्ठ शरीर, लम्बी दाढ़ी वाला वह "जनरल बकरा" फूलमालाओं से ढका एक सिद्ध संत सा दिख रहा था। सैनिकों ने उसका नाम प्यार व सम्मान से "बैजू" रख दिया था। उस जनरल बकरे को पूरे फौजी सम्मान प्राप्त थे, उसे फौजी बैरिक के एक अलग क्वाटर में अलग बटमैन सुविधायें दी गईं थी।

उसकी राशन व्यवस्था भी सरकारी सेवा से सुलभ थी उस पर किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं थी, वह पूरे लैन्सडौन शहर में कहीं भी घूम सकता था। आर० पी० सैनिक उसकी खोज खबर रखते थे। शाम को वो या तो खुद ही आ जाता या उसको ढूंढकर क्वाटर में ले जाया जाता था। बाजार की दुकानों के आगे से वो जब गुजरता था तो उसकी जो भी चीज खाने की इच्छा होती थी खा सकता था चना, गुड़, जलेबी, पकौड़ी, सब्जी कुछ भी। किसी चीज की कोई रोक टोक नहीं थी, उस खाये हुये सामान का बिल यदि दुकानदार चाहे तो फौज में भेजकर वसूल कर सकता था। अपने बुढ़ापे तक भी वह "जनरल बकरा" बाजार में रोज अपनी लंबी-लंबी दाढ़ी हिलाते हुये कुछ ना कुछ खाता तथा आता जाता रहता था। नये रंगरूट भी उसे देखकर सैल्यूट भी ठीक बूट बजाकर मारते दिखते थे, ऐसा क्यों ना हो वह जनरल पद से सम्मानित जो था।

लम्बी दाढ़ी अजीब सी गन्ध लेकर वह जनरल बकरा रोज दिन से शाम तक लैन्सडौन बाजार की गलियों में घूमता दिखाई देता था। फिर वृद्धवस्था के कारण एक दिन वो मर गय। उसकि मृत्यु पर फौज व बाजार में शोक मनाया गया। जनरल बकरा मर कर भी दुनिया को एक संदेश दे गया। "प्राणी कोई भी हो उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु आत्मा एक ही होती है, मनुष्य ही नहीं जानवर भी दिल रखते हैं.. प्यार करते हैं, परोपकार की भावना उनमें भी मानव से कम नहीं होती बल्कि उनसे अधिक होती है..."।
..... ऐसा था "जनरल बकरा"

Monday 8 September 2014

सुरकण्डा देवी-यहां कदम रखते ही मन पवित्र अनुभूतियों से भर जाता है-श्रद्धा से शीश झुक जाता है।




सुरकण्डा देवी शक्तिपीठ गढवाल का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। मान्यता है कि 52 शक्तिपीठों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण शक्तिपीठ है। वैदिक कथाओं के अनुसार देवी सती के सिर वाला भाग यहां पर गिरा था, इसलिए इस स्थान को सुरकुट पर्वत के नाम से भी जाना जाता है और यह शक्तिपीठ सुरकंडा के नाम से प्रसिद्ध है। यह शक्ति का स्थल है। सुरकण्डा देवी मन्दिर के पास में ही शिव, भैरव और हनुमान मन्दिर भी हैं।

केदारखंड में जिन 52 शाक्तिपीठों का जिक्र किया गया है दरअसल सुरकण्डा देवी उन्हीं मे से  एक है। इसे सुरेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है। आज जिस पर्वत शिखर पर यह मंदिर स्थित है उसे सुरकूट पर्वत भी कहा जाता है। मंदिर के पुजारी ज्ञानदेव लेखवार बताते हैं कि  श्जब राजा दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया तो उसमें अपने दामाद भगवान शंकर को छोड़ सभी देवाताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन फिर भी दक्ष पुत्री सती यज्ञ में शामिल होने पहुंच गई। भगवान शंकर को न बुलाए जाने का कारण पूछे जाने पर राजा दक्ष ने महादेव के लिए अपमान भरे शब्द कहे। सती शब्दों के इन तीक्ष्ण बाणों को सहन न कर सकी और धधकते हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी। रौद्र रूप धर भगवान शंकर ने वहां पहुंच शव को त्रिशूल पर लटका हिमालय की ओर रूख किया  उसी दौरान जहां जहां सती के अंग गिरे वे सिद्वपीठ कहलाए। इसी सुरकूट पर्वत पर मां का सिर गिरा था, जो आज सुरकुण्डा देवी मंदिर के रूप में  जाना जाता है। इसके अलावा इसी स्थान पर कभी देवराज इंद्र ने भी घोर तपस्या की थी।

यह शक्तिपीठ मसूरी और चम्बा के बीच स्थित है। धनोल्टी से छह किलोमीटर दूर कद्दूखाल नाम की एक जगह है जहां से सुरकण्डा देवी के लिये रास्ता जाता है। यहां से दो किलोमीटर पैदल चलना पडता है। कद्दूखाल जहां 2490 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं सुरकण्डा देवी की ऊंचाई 2750 मीटर है यानी दो किलोमीटर पैदल चलकर 260 मीटर चढना कठिन चढाई में आता है।

इसकी दूर- दूर तक मान्यता है। यहां कदम रखते ही मन पवित्र अनुभूतियों से भर जाता है, श्रद्धा से शीश झुक जाता है। सारे वातावरण में हवन का सुगंध ब्याप्त रहता है । मंदिर में देवी की आरती के समय अद्भुत दृश्य होता है। यहां मॉ की पूजा-अर्चना कर एक अद्भुत शान्ति की प्राप्त होती है।

वैसे तो मंदिर में देवी दर्शन के लिए लोगों का आना-जाना लगा रहता है  लेकिन गंगा दशहरे के अवसर पर देवी के दर्शनों का विशेष महत्व होता है। गंगा दशहरा के अवसर पर यहां विभिन्न जगहों से आए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। इस दौरान आस-पास के गांवों समेत दूर-दराज के श्रद्धालु भी ख्रासी संख्या में मौजूद रहते हैं । इसलिए तीन चार दिनों तक मंदिर में अधिक भीड़ रहती है। कतारों में लगे भक्त देर शाम तक माता के दर्शन करते हैं । श्रद्धालु पूरे भक्तिभाव से माता के दर्शन लाभ अर्जित करते हैं। इन दिनों में एक लाख से अधिक श्रद्धालु देवी के दर्शन करते हैं। श्रद्धालु मां का दर्शन कर पुण्य लाभ कमाते हैं और संपन्नता व खुशहाली की मन्नत मांगते हैं ।

इस अवसर पर कद्दूखाल में एक मेले का आयोजन किया जाता हैं । इस मेले में भी भारी भीड़ देखने को मिलती है। इस दौरान कई गांवों के लोग अपने ईष्टदेवों की डोली भी लेकर यहां आते हैं।

नवरात्रि में भी श्रद्धालु यहां पर आकर देवी की कृपा प्राप्त करते है। इन दिनों में यहां पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है। अखंड देवी पाठ रखे जाते हैं और वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ हवन इत्यादि की जाती है।
हाल ही में प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार कर नया मंदिर बनाया गया है,  पर खास बात यह है कि मंदिर के स्वरूप को पौराणिक ही रखा गया है। मंदिर में 42 खिड़कियां और 7 दरवाजे बनाए गए हैं। पहाड़ की लोक कला को ध्यान में रखते हुए दरवाजों पर नक्काशी का कार्य भी किया गया है। मंदिर की पौराणिकता को देखते हुए छत्त को पठाली स्लेट से बनाया गया है।

मंदिर से हिमालय का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। यहां से गढवाल हिमालय की चोटियां दिखती हैं। पीछे मुडकर देखें तो पहाड धीरे धीरे नीचे होते चले जाते हैं, दक्षिण दिशा में ऋषिकेश और देहरादून भी दिखता  है।


कहां ठहरें- 
अगर आप मसूरी में अपना होटल न छोड़ना चाहें तो एक दिन में आप अप डाउन कर सकते हैं। क्योंकि कद्दूखाल से मसूरी की दूरी महज 35 किमी है। अगर आप सुबह शाम होने वाली पूजा में शामिल होना चाहते हैं तो मंदिर प्रबंधन की  धर्मशालाओं में भी ठहर सकते हैं। मगर इनमें अधिक सुविधाओं की उम्मीद न करें। इन सब के अलावा कद्दूखाल से 8 किमी की दूरी पर धनोल्टी में आपको गढ़वाल मंडल विकास निगम की डोमेट्ररी से लेकर सुपर डीलक्स रूम तक मिल जाएंगे।

कैंसे पहुंचेः
 यह स्थान दिल्ली से लगभग 315 किमी. की दूरी पर है। आप दिल्ली से मसूरी वाया देहारदून होते हुए सुरकण्डा पहुंच सकते हैं। अगर आप अपने वाहन से जाने की सोच रहे हैं तो जरूरी नहीं कि मसूरी भी होते हुए जाएं क्योंकि देहरादून से आगे बढ़ने पर मसूरी से  2 किमी पहले ही एक रास्ता सुरकण्डा की ओर निकल जाता है।