Sunday 21 June 2015

इरादे पक्के और हौसले बुलंद हों तो दुनिया की हर मुश्किल आसान हो जाती है। यूनेस्को’ पहुंचा उत्तराखंड के बेटे वीरेंद्र रावत का ‘ग्रीन’ आइडिया



इरादे पक्के और हौसले बुलंद हों तो दुनिया की हर मुश्किल आसान हो जाती है। उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी गांव से निकलकर दुनिया में नाम रोशन करने वाले वीरेंद्र रावत इसकी मिसाल हैं।

उन्होंने न केवल ग्रीन स्कूल कांसेप्ट ईजाद किया बल्कि आज देश के 100 से ज्यादा ग्रीन स्कूल उनके दिशा निर्देशन में संचालित हो रहे हैं। वीरेंद्र ने बोस्टन यूनिवर्सिटी, अमेरिका में आयोजित आठवें एनुअल एमए ग्रीन स्कूल समिट में देश में चल रहे ग्रीन स्कूल कांसेप्ट को प्रस्तुत कर खूब वाहवाही बटोरी।

मूलरूप से टिहरी गढ़वाल में प्रतापनगर ब्लॉक की उपली रमौली में हेरवाल गांव में मुकुंद सिंह रावत व बच्चा देवी रावत के घर जन्मी छह संतानों में सबसे बड़े वीरेंद्र रावत की प्रारंभिक शिक्षा दीप गांव में हुई। उन्होंने राजकीय इंटर कालेज तोलीसैण, टिहरी से 12वीं करने के बाद गढ़वाल विवि से स्नातक की पढ़ाई पूरी की।
1994 में वह नौकरी के सिलसिले में अहमदाबाद चले गए, जहां उन्होंने 1200 रुपये वेतन पर नौकरी की। रावत पर उत्तराखंड की हरियाली का गहरा असर था। वर्ष 2010 में उन्होंने अहमदाबाद में पहले ग्रीन स्कूल की स्थापना की।

नरेंद्र मोदी ने भी किया ग्रीन स्कूल का निरीक्षण
गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जब इस ग्रीन स्कूल के बारे में पता चला तो उन्होंने खुद जाकर इसका निरीक्षण किया। वीरेंद्र को तत्काल प्रदेश में इस तरह के ग्रीन स्कूल के प्रोत्साहन के लिए सलाहकार नियुक्त कर लिया।

आज वीरेंद्र रावत सीबीएसई के 10 से अधिक संबद्ध ग्रीन स्कूलों के संचालक होने के साथ ही 100 से अधिक ग्रीन स्कूलों की देखरेख का जिम्मा संभाल रहे हैं। भारत में ग्रीन एजूकेशन के क्षेत्र में दिशा निर्देशक के तौर पर वह 100 सबसे सफल निर्देशकों में गिने जाते हैं।

वीरेंद्र पहले ऐसे भारतीय हैं, जिन्हें बोस्टन यूनिवर्सिटी अमेरिका ने अपने आठवें वार्षिक एमए ग्रीन स्कूल समिट के लिए आमंत्रित किया और सम्मानित किया।

क्या है ग्रीन स्कूल कांसेप्ट
ग्रीन स्कूल कांसेप्ट पृथ्वी, जल, हवा, आग व आकाश पर आधारित है। इन स्कूलों में एंट्री करते ही प्राकृतिक सुंदरता का अहसास होता है। वीरेंद्र ने इस कांसेप्ट के तहत स्कूलों के लिए अलग से सिलेबस डिजाइन किया।
वह न केवल बोर्ड का सिलेबस पढ़ते हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण मित्र और उससे कमाई का रास्ता भी सिखाया जाता है। इसके लिए स्कूलों में वह कार्बन आधारित आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करते हैं।
बारिश का 100 प्रतिशत पानी ही सभी प्रक्रियाओं में इस्तेमाल किया जाता है। वेस्ट से खाद बनाने और पेपर रिसाइक्लिंग से लेकर प्लास्टिक रिसाइक्लिंग तक का पूरा काम पढ़ाई के दौरान ही बच्चे को सिखाया जाता है।

यहां कमाया नाम
वर्ष 2014 में डिजिटल लर्निंग मैनेजमेंट ने उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़े गेम चेंजरों की सूची में पहले स्थान पर रखा। वीरेंद्र रावत दुनिया में 300 से अधिक ग्रीन स्कूल संचालित करने वाली संस्था ‘ग्रीन स्कूल एलायंस ग्लोबल बेस्ट यूएसए’ के कॉर्डिनेटर हैं।

इसके अलावा बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट, सीयू शाह यूनिवर्सिटी, गुजरात, एनवायरमेंट एंड ग्रीन टेक्नोलॉजी बोर्ड गुजरात, टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी अहमदाबाद, इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर एनवायरमेंट एजूकेशन यूएसए, एनवायरमेंट एजूकेशन कमेटी, सीबीएसई के सदस्य होने के साथ ही यंग मास्टर प्रोग्राम ऑन सस्टेन एबिलिटी, यूनेस्को के प्रमाणित प्रशिक्षक भी हैं।

इसी वर्ष आयोजित वाइब्रेंट गुजरात 2015 में वीरेंद्र सिंह रावत ने ग्रीन स्कूल प्रोजेक्ट को पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत किया।

तीन साल में छात्र, शिक्षक कोई बीमार नहीं
वीरेंद्र ने बोस्टन में अपने लेक्चर में बताया कि बेहद प्राकृतिक किस्म के इन स्कूलों में तीन वर्षों से न तो कोई छात्र बीमार हुआ और न ही किसी शिक्षक ने बीमारी की छुट्टी ली है।
ग्रीन उद्यमियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। छात्रों में उद्यमिता विकास होने के साथ ही पढ़ाई के दौरान वह पर्यावरण भी बचाते हैं और कमाई भी सीखते हैं। शादी समारोहों में केवल ग्रीन गिफ्ट का ही प्रचलन भी तेजी से बढ़ गया है।

2020 तक 2000 ग्रीन स्कूल का लक्ष्य

इन दिनों अमेरिका में मौजूद वीरेंद्र रावत ने ई-मेल के माध्यम से बताया कि आज वह गुजरात में 100 ग्रीन स्कूलों के निर्देशक हैं, जिनमें 61 सरकारी ग्रीन स्कूल शामिल हैं। उनका मकसद वर्ष 2020 तक 2000 ग्रीन स्कूलों की स्थापना है।

विरेंद्र पहले और अकेले भारतीय बन गए हैं

केंद्र ने यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) की ओर से पहली बार मिलने जा रहे ‘यूनेस्को-जापान प्राइज ऑन एजुकेशन फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ के लिए विरेंद्र का नाम भेज दिया है। यह मुकाम हासिल करने वाले विरेंद्र पहले और अकेले भारतीय बन गए हैं।


Wednesday 3 June 2015

एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत !आओ, अपने मन को टोवें!व्यर्थ देह के सँग मन की भी निर्धनता का बोझ न ढोवें


एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत !

आओ, अपने मन को टोवें! 
व्यर्थ देह के सँग मन की भी 
निर्धनता का बोझ न ढोवें

सुमित्रानंदन पंत (मई 20, 1900 - 1977) हिंदी में छायावाद युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनका जन्म अल्मोड़ा ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में मई 20, 1900 को हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाई दत्त। वे सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे।






पंत जी हिन्दी के छायावादी युग चार के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रकृति के एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी बचपन से ही काव्य प्रतिभा के धनी थे और 16 वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता रची “गिरजे का घंटा”। तब से वे निरंतर काव्य साधना में तल्लीन रहे।

कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, “संभवतः प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं।” अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेजी कवियों का प्रभाव भी है।

‘उच्छ्वास’ से लेकर ‘गुंजन’ तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं – प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्रकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा


“मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। ”
पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।

नियति ने ही निज कुटिल कर से सुखद
गोद मेरे लाड़ की थी छीन ली,
बाल्य ही में हो गई थी लुप्त हा!
मातृ अंचल की अभय छाया मुझे।

मां की कमी उन्हें काफी सालती रही और प्रकृति माँ की गोद का सहारा मिला तो मानों वे उसके लाड़ से अपने आप को पूरी तरह सरोबार कर लेना चाहते थेः

“मातृहीन, मन में एकाकी, सजल बाल्य था स्थिति से अवगत,
स्नेहांचल से रहित, आत्म स्थित, धात्री पोषित, नम्र, भाव-रत

हालाकि पंत जी ने गद्य की भी कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई लेकिन मूलतः वे कविता के प्रति ही समर्पित थे। 1918 से 1920 तक की उनकी अधिकांश रचनाएं ‘वीणा’ में छपी हैं। यद्यपि अपनी आरंभिक रचनाओं ‘वीणा’ और ‘ग्रंथि’ से पंत जी ने काव्यप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा ज़रूर पर एक छायावादी कवि के रूप में इनकी प्रतिष्ठा ‘पल्लव’ से ही मिली। ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएं कॉलेज में पढने जब वे प्रयाग आए, उसी दौरान लिखी गईं। पंत जी कहते हैं, “शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों से बहुत-कुछ मैंने सीखा। मेरे मन में शब्द-चयन और ध्वनि-सौन्दर्य का बोध पैदा हुआ। ‘पल्लव’-काल की प्रमुख रचनाओं का आरम्भ इसके बाद ही होता है।”

प्रकृति-सौन्दर्य और प्रकृति-प्रेम की अभिव्यंजना “पल्लव” में अधिक प्रांजल तथा परिपक्व रूप में हुई है। इस संग्रह के द्वारा पंत जी प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर काव्य के भाव-विशद सौन्दर्य प्रासाद में प्रवेश पा सके। छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि ‘मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।’

पल्लव को आलोचक भी छायावाद का पूर्ण उत्कर्ष मानते हैं। डॉ. नगेन्द्र का मानना है, “‘पल्लव’ की भूमिका हिंदी में छायावाद-युग के आविर्भाव का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।” भाव, भाषा, लय और अलंकरण के विविध उपकरणों का बड़ी कुशलता से इसमें समावेश किया गया है। ‘पल्लव’ में प्राकृतिक रहस्य की भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत हो गयी है। इसकी सीमाएं छायावादी अभिव्यंजना की सीमाएं हैं। इसमें पंत जी कल्पना द्वारा नवीन वास्तविकता की अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे थे। इसके साथ ही इसमें मानव जीवन की अनित्य वास्तविकता के भीतर सत्य को खोजने का प्रयत्न भी है, जिसके आधार पर नवीन वास्तविकता का निर्माण किया जा सके।

कवि पंत की रचनाओं को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे स्वयं प्रकृति स्वरूप थे। उनकी विभिन्न रचनाओं में ऐसा लगता है जैसे कवि प्रकृति से बात कर रहा हो, अनुनय कर रहा हो, प्रश्न कर रहा हो। मानों प्रकृति कविमय हो गई है और कवि प्रकृतिमय हो गया है। प्रकृति से परे सोचना उनके लिए असंभव सा थाः-

“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन॥ ”

कवि सम्राट पंत जी ने स्वयं माना कि छायावाद वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है। अपनी संकुचित परिभाषा के कारण कुछ लोग पंत की रचनाओं में भी केवल पल्लव और पल्लव में भी कुछेक कविताओं को ही छायावाद के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। मौन निमंत्रण में अज्ञात की जिज्ञासा होने के कारण रहस्यवाद है, अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता के कारण छायावाद है और कल्पनालोक में स्वच्छंद विचरण करने के कारण स्वच्छंदतावाद भी है। पंत का रहस्य भावना ‘अज्ञात’ की लालसा के रूप में व्यक्त हुई है। पंत सीमित ज्ञान की सीमा को तोड़कर प्रकृति और जगत के प्रति जिज्ञासु की तरह देखते हैं। पंत का बालक मन हर चीज से सवाल पूछता है।
प्रथम रशमि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना

‘गुंजन’, विशेषकर ‘युगांत’ में आकर पंत की काव्य यात्रा का प्रथम चरण समाप्त हो जाता है। ‘गुंजन’-काल की रचनाओं में जीवन-विकास के सत्य पर पंत जी का विश्वास प्रतिष्ठित हो जाता है।

सुन्दर से नित सुन्दरतर, सुन्दरतर से सुन्दरतम
सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर सुन्दर जग जीवन!

उनकी काव्य यात्रा का दूसरा चरण ‘युगांत’, ‘युग-वाणी’ और ‘ग्राम्या’ को माना जा सकता है। इस काल तक आते-आते कवि स्थायी वास्तविकता के विजय-गीत गाने को लालायित हो उठता है और उसके लिए आवश्यक साधना को अपनाने की तैयारी करने लगता है, उसे ‘चाहिए विश्व को नव जीवन’ का अनुभव भी होने लगता है।

नवीन जीवन तथा युग-परिवर्तन की धारणा को सामाजिक रूप देने की कोशिश ‘युगान्त’ में सक्रिय रूप में सामने आई है। ‘युगान्त’ की अधिकांश कविताएं कवि की तीखी भाव चेतना के परिवर्तन का संकेत देती हैं। यह परिवर्तन वस्तुवादी चेतना के प्रति अधिक आग्रहशील दिखता है। “द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त, ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण” में जहां ओजपूर्ण आवेश है वहीं गा कोकिल में नवीन जीवन पल्लवों से सौन्दर्य-मंडित करने का भी आग्रह है।

गा कोकिल, बरसा पावक कण
नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन 
झरे जाति-कुल; वर्ण-पर्ण धन 
व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष-रण 
झरें-मरें विस्मृत में तत्क्षण 
गा कोकिल, गा, मत कर चिन्तन -

‘ग्राम्या’ प्रगतिशील आन्दोलन के प्रभाव के अन्तर्गत लिखी हुई रचना है। इसमें मार्क्सवाद, श्रमिक-मज़दूर, किसान-जनता के प्रति इन्होंने भावभीनी सहानुभूति प्रकट की है।

जगती के जन-पथ कानन में
तुम गाओ विहग अनादि गान।
चिर-शून्य शिशिर-पीड़ित जग में,
निज अमर स्वरों से भरो प्राण।

‘ग्राम्या’ 1940 की रचना है, जब प्रगतिवाद हिन्दी साहित्य में घुटनों के बल चलना सीख रहा था। पंत जी कहते हैं, “‘ग्राम्या’ में मेरी क्रान्ति-भावना मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित ही नहीं होती, उसे आत्मसात्‌ कर प्रभावित करने का भी प्रयत्न करती है।”

भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहां आत्म-दर्शन अनादि से समासीन अम्लान।

इन सब के साथ-साथ आदर्श तथा यथार्थ के बीच व्यवधान पंत जी के भीतर बना ही रहा। कवि के मन में आदर्श और यथार्थ की चिन्तन-धाराओं का संघर्ष तथा मंथन चलता रहा। डॉ.. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है,
“मार्क्सवाद में श्री सुमित्रानंदन पंत का व्यक्तित्व अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं पा सकता।”

शीघ्र जी फिर वे अपने परिचित पथ पर लौट आये। मार्क्सवाद का भौतिक संघर्ष और निरीश्वरवाद पंत जैसे कोमलप्राण व्यक्ति का परितोष नहीं कर सकते थे। काव्य यात्रा के तीसरे चरण की रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘युग पथ’, ‘अतिमा’, ‘उत्तरा’ में वे महर्षि अरविन्द से प्रभावित होकर आध्यात्मिक समन्वयवाद की ओर बढ़ते दिखते हैं। कवि की अनुभूति वस्तु जगत को समेटती हुई उस बौद्धिक चेतना से ऊपर उठकर एक सूक्ष्म अतिमानवीय चेतना को ग्रहण करती लगती है।

सामाजिक जीवन से कहीं महत्‌ अंतर्मन,
वृहत्‌ विश्व इतिहास, चेतना गीता किंतु चिरंतन।

इस चरण को पंत जी के चेतना-काव्य का चरण कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने मानवता के व्यापक सांस्कृतिक समन्वय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

भू रचना का भूतिपाद युग हुआ विश्व इतिहास में उदित,
सहिष्णुता सद्भाव शान्ति से हों गत संस्कृति धर्म समन्वित।

पंत जी की कव्य यात्रा का चौथा चरण ‘कला और बूढ़ा चांद’ से लेकर ‘लोकायतन’ तक की है। इसमे उनकी चेतना मानवतावाद, खासकर विश्व मानवता की ओर प्रवृत्त हुई है। इन रचनाओं में लोक-मंगल के लिए कवि व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य के महत्व को रेखांकित करता है।

हमें विश्व-संस्कृति रे, भू पर करनी आज प्रतिष्ठित,
मनुष्यत्व के नव द्रव्यों से मानस-उर कर निर्मित।

‘लोकायतन’ कविवर पंत के लोक-कल्याण संबंधी नेक इरादे का भव्य एवं कलात्मक साक्षात्कार कराता है। अरविन्द दर्शन से प्रभावित होकर पंत की चेतना इस चरण में फिर से वापस लौटकर अपने प्रथम चरण की चेतना से जुड़ जाती है। अरविन्द दर्शन के प्रभाव में आने के बाद पंत को भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय का एक ठोस आधार प्राप्त हो गया।

समग्र रूप से देखें तो पाते हैं कि कवि के चिंतन में अस्थिरता है। निराला और पंत की जीवन-दृष्टि और काव्य-चेतना की तुलना करें तो हम पाते हैं कि निराला की जीवन-दृष्टि का लगातार एक निश्चित दिशा में विकास होता है जबकि पंत का दृष्टि विकास एक दिशा में न होकर उसमें कई मोड़ आते हैं। कभी वे प्रकृति में रमे रहते हैं तो कभी मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन और गांधीवाद की गलियों के चक्कर लगाते हैं। ‘ग्रंथि’ से ‘पल्लव’ और ‘पल्लव’ से ‘गुंजन’, ‘ज्योत्सना’ और ‘युगांत’ में वे क्रमशः शरीर से मन और मन से आत्मा की ओर बढ़ रहे थे। बीच में ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में आत्म-सत्य की अपेक्षा वस्तु-सत्य पर बल देते हैं। ‘स्वर्णकिरण’, और ‘स्वर्णधूलि’ में फिर से वे आत्मा की ओर मुड़ जाते हैं।

फिर भी ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’ जैसी रचनाओं द्वारा पंत जी छायावादी काव्य-धारा को सम्पन्न बनाया। वे छायावादी कविता के अनुपम शिल्पी हैं। उनकी भाषा में कोमलता और मृदुलता है। हिन्दी खड़ी बोली के परिष्कृत रूप को अधिक सजाने-संवारने में इनका योगदान उल्लेखनीय है। भाषा में नाद व्यंजना, प्रवाह, लय, उच्चारण की सहजता, श्रुति मधुरता आदि का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। शैली ऐसी है जिसमें प्रकृति का मानवीकरण हुआ है। भावों की समुचित अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत सहज अलंकार विधान का सृजन उन्होंने किया। नये उपमानों का चयन इनकी प्रमुख विशेषता है। उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपमानों का सर्वथा एक नया रूप देखने को मिलता है। जैसे

“पौ फटते, सीपियाँ नील से
गलित मोतियां कान्ति निखरती”
या
“गंध गुँथी रेशमी वायु”
या
“संध्या पालनों में झुला सुनहले युग प्रभात”

इसी तरह उन्होंने छाया को, “परहित वसना”, “भू-पतिता” “व्रज वनिता” “नियति वंचिता” “आश्रय रहिता” “पद दलिता” “द्रुपद सुता-सी ” कहा है। इस तरह उन्होंने भाषा को एक नया अर्थ-संस्कार दिया।

ध्वन्यार्थ व्यंजना, लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शैली के उपयोग द्वारा उन्होंने अपनी विषय-वस्तु को अत्यंत संप्रेषणीय बनाया है। शिल्प इनका निजी है। पंत जी की भाषा शैली भावानुकूल, वातावरण के चित्रण में अत्यंत सक्षम और समुचित प्रभावोत्पादन की दृष्टि से अत्यंत सफल मानी जा सकती है।

उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। आकर्षक और कोमल व्यक्तित्व के धनी कविवर सुमित्रा नंद पंत जिस तरह से अपने जीवन काल में सभी के लिए प्रिय थे उसी तरह से आज भी आकर्षण का केंद्र हैं। प्रकृति का परिवर्तित रूप सदा पंतजी में नित नीवन कौतूहल पैदा करता रहा। उन्होंने सबकुछ प्रकृति में और सब में प्रकृति का दर्शन किया। यही कारण है कि वे प्रकृति के सुकुमार चितेरे थे और अंत में शास्वत सत्य की जिज्ञासा उन्हें अरविंद दर्शन, स्वामी रामकृष्ण आदि के विचारों की ओर खींच ले गई। इस प्रकार उन्होंने काव्य सृजन से वे चारों पुरूषार्थ उपलब्ध किए जो काव्य का फल हैं। अंत में ‘आंसू’ की ये पंक्तियां ...

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।

हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968) तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौशानी में उनके पुराने घर को जिसमें वे बचपन में रहा करते थे, सुमित्रानंदन पंत वीथिका के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।

उनका देहांत 1977 में हुआ। आधी शताब्दी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकर्म में आधुनिक हिंदी कविता का पूरा एक युग समाया हुआ है।