Sunday 6 July 2014

पहाड़ के निष्कलुष, मगर फौलादी बेटे थे विद्यासागर नौटियाल - पहाड़ के प्रेमचंद -जब मैं मरूं खिड़की खुली छोड़ देना





पहाड़ के निष्कलुष, मगर फौलादी बेटे थे विद्यासागर नौटियाल - पहाड़ के प्रेमचंद -




 विद्यासागर नौटियाल की डायरी के पृष्ठ-
जब मैं मरूं खिड़की खुली छोड़ देना/ एक बच्चा संतरा खाता है खिड़की से मैं उसे देख सकता हूं!
 एक किसान महकाता है फसलअपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूं जब मैं मरूं खिड़की खुली छोड़ देना !



विद्यासागर नौटियाल का जाना भारतीय साहित्य की एक बड़ी क्षति तो है ही, राजनीति में भी मूल्यों और सिद्धान्तों के एक बड़े स्तम्भ का ढह जाना है। उनका व्यक्तित्व बेहद सहज और प्रेमिल था और उनके होने से देहरादून में अनेक महत्वपूर्ण गतिविधियों और आयोजनों में उनकी कमी सभी जागरूक लोगों को बहुत सालती रहेगी। उनके होने से बहुत सारे लोगों को ऊर्जा मिलती थी।
उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलू थे। एक आक्रामक युवा क्रान्तिकारी, एक जनपक्षधर राजनेता, एक समर्पित कार्यकर्ता, लोगों के दिलों तक पहुँचने का प्रयास करने वाला विधायक, एक बेहद आत्मीय बुजुर्ग, एक अप्रतिम लेखक और एक विशिष्ट इतिहासकार।
एक दौर  में उनके विचारों से टिहरी की राजशाही काँपती थी तो एक लेखक के रूप में उनके विरोध के स्वर, असहमति की बेलाग लपेट अभिव्यक्ति उनके शब्दों के जरिए आज भी लोगों के दिलों को छू लेती है। छात्र जीवन से ही वे लिखने लगे थे। 1953 में लिखी गई और अक्टूबर 1954 में प्रकाशित हुईभैंस का कट्याउनकी प्रारम्भिक रचनाओं में एक मानी जाती है। सोवियत संघ के प्राच्य विद्या संस्थान ने इसेदीती इंदी’ (भारतीय बच्चे) के नाम से रूसी भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित किया।सुच्ची डोरउनकी एक प्रिय कहानी थी, जिसकी मूल प्रति गुम हो जाने का उन्हे बेहद अफसोस रहा। बाद में उनकी 10 प्रतिनिधि कहानियाँमें इसका संशोधित स्वरूप प्रकाशित हुआ था औरसुच्ची डोरके नाम के ही एक अन्य संग्रह में भी इसे स्थान मिला।
उत्तर बायाँ है, झुण्ड से बिछुड़ा, भीम अकेला और यमुना के बागी बेटे उनके प्रमुख उपन्यास हैं।

जिस टिहरी राजशाही के विरोध के कारण 14 वर्ष की उम्र में उन्हें जेल जाना पड़ा, उसके खिलाफ टिहरी की जनता के 1930 के आन्दोलन के सहारेयमुना के बागी बेटेमें उन्होने एक तरह से इतिहास के एक दौर की ही पुनर्रचना कर दी है। इस किताब की भूमिका में भी उन्होंने लिखा था कि,
‘‘
मेरा जन्म एक जंगलाती परिवार में हुआ था। यमुना घाटी का अन्न, जल वायु मेरे बचपन की हिफाजत करते रहे। अपने जन्म से तीन साल पहले घटित तिलाड़ी कांड की दारुण कथाएँ मेरे दिल को एक भारी पत्थर के मानिन्द दबाती लगती थीं। उन स्वाभिमानी रवांल्टों की वीर गाथाएँ सुनकर मैं उस ऋण से उऋण होने की योजनाएँ बनाता रहता था’’ और वाकई इस रचना के जरिए उन्होंने जन्मभूमि का यह कर्ज उतार ही दिया था।

उत्तर बायां हैहिमाच्छादित बुग्यालों और ऊँचे विस्तृत चरागाहों में जीवन जीने वाले घुमन्तू गूजरों और पहाड़ी भेड़पालकों की जिन्दगी का यथार्थ है। नौटियाल जी ने इसकी भूमिका में लिखा था, ’’अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है। उनके साहित्य का गहराई से विश्लेषण करने वाले भी मानते हैं कि वे वाकई अपने रचे हुए को अपने भीतर जीते भी थे।सूरज सबका है’, ‘स्वर्ग दिदा पाणि-पाणि’, ‘मोहन गाता जाएहो याफट जा पंचधारयादेश भक्तों की कैद में’, उनकी हर रचना हमें अतीत की स्मृतियों के साथ-साथ वर्तमान के कड़वे सच की भी याद दिलाती रहती है। उनकी कथाएँ हमें फट जा पंचधार, मेरी कथायात्रा, फुलियारी, कुदरत की गोद में और टिहरी की कहानियाँ जैसे संग्रहों में भी पढ़ने को मिलती हैं।सूरज का सन्निपातउनका नाटक है तोबागी टिहरी गाए जामें उनके निबन्ध हमें उनकी कलम का एक अलग रूप दिखाते हैं।देशभक्तों की कैद मेंके जरिए तो एक तरह से उन्होंने अपनी आत्मकथा के बहाने एक युग का पूरा इतिहास ही लिख दिया है, जिसमें राजा-रानी भी हैं, आजादी के बाद का दौर भी और इस सबके बीच में टिहरी-उत्तरकाशी का पूरा समाज भी। मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को, उत्तराखण्ड को जानने समझने की कोशिश करने वाले हर व्यक्ति को और हर ऐसे व्यक्ति को, जो उत्तराखण्ड को बदलने का स्वप्न देखता है, विद्यासागर नौटियाल की इस किताब से जरूर पढ़ना चाहिए। यह उनकी जिन्दगी की कहानी भी है और उत्तराखण्ड के समाज के एक बड़े हिस्से की जिंदगी में आने वाले बदलावों का रोजनामचा भी। व्यक्तिगत रूप से मैं इस रचना को साहित्यिक रचना से अधिक एक ऐतिहासिक दस्तावेज मानता हूँ। जीवन भर कम्युनिस्ट रहने वाले नौटियाल जी व्यक्तिगत जीवन में कितने भावुक और संवेदनशील थे, उसकी बानगी भी इस किताब में मिलती है। अपनी बहन यानी सुन्दरलाल बहुगुणा की पत्नी विमला बहुगुणा से उनके बचपन के रिश्तों का जो सहज मार्मिक वर्णन इस किताब में है, वह हिन्दी में अब दुर्लभ होता जा रहा है।

लेखक के रूप में नौटियाल जी के जीवन में दो दौर बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। एक दौर युवावस्था से लेकर सक्रिय राजनीति में व्यस्त हो जाने के बीच का तो दूसरा दौर सक्रिय राजनीति से विदाई के बाद का। उनके दूसरे दौर ने साहित्य को बहुत कुछ दिया। इसी दौर में उन्होंने यह साबित किया कि जन अधिकारों के लिए लड़ने वाले जननेता के रूप में वे जितने बड़े थे, कलम के योद्धा के रूप में भी उससे कहीं कम नहीं थे।

वकालत की डिग्री के बाद उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी मे एम.. भी किया था। छात्र राजनीति में झण्डे गाड़ने के बाद वे टिहरी में वामपंथी आलोचना के सूत्रधार बने और सी.पी.आई. विधायक के तौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी पहुँचे। इसी दौरान अपने विधानसभा क्षेत्र की दो दिवसीय पदयात्रा को उन्होंनेभीम अकेलाके रूप में प्रस्तुत किया था और इसे वे अपनी लेखकीय सक्रियता के दूसरे दौर की शुरूआत मानते थे। वे कहते थे कि इस किताब को लिखने की प्रेरणा उन्हे नेत्रसिंह रावत के यात्रा वृतांतपत्थर और पानीसे मिली थी। इसे पाठकों के सामने लाने का श्रेयपहाड़को है, क्योंकि सबसे पहलेपहाड़में ही इसका प्रकाशन हुआ था।

उत्तराखण्ड के सामाजिक आन्दोलनों में टिहरी का जो अपना रंग था, टिहरी शहर हमेशा बहुत अजीब लगता था। हमेशा बहुत उदास और उतना ही ऊर्जावान। टिहरी की आजादी की लड़ाई और सामाजिक बदलाव की यात्रा के कई अहम पड़ाव आये, टिहरी की जनता को बहुत बहादुर, संघर्षषील और नई जमीन तोड़ने वाली मानते थे। राजनीति में अपनी सीमाओं का भी उन्हें अहसास था और इस बात का अफसोस भी कि प्रगतिशील ताकतों के बीच बड़ी एकजुटता नहीं बन पाई है।

लोग उन्हे हेमिंग्वे का शिष्य और प्रेमचन्द की परम्परा का लेखक मानते हैं। मगर वे सही मायनों में पहाड़ के बेटे थे। पहाड़ के बहादुर पुत्र, जिन्होंने शब्दों के जरिए पहाड़ के तमाम रंगों को जीवन्त कर दिया है। वे समूची मानवता की धरोहर थे, इंसानियत की बेहतरी की लड़ाई के लड़ाके। मगर मैं उन्हें पहाड़ के निष्कलुष, निरीह और कोमल भावनाओं से भरे हुए एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति की तरह याद रखना चाहिए, जो अब भी पहाड़ों की सुन्दर वादियों में, पहाड़ के तमाम संघर्षो और दुःख-दर्दों के बीच उन्मुक्त भाव से कुलाँचे भरता हुआ पर्वत-पर्वत विचर रहा है।


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