Thursday 10 July 2014

हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व !

हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है-


• 1- चैत्र मास में - प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है।
• 2- श्रावण मास में - सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है।
• 3- आश्विन मास में - आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।

किन्तु उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया जाता है! क्योंकि श्रावण मास शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है!

इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है।

सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है! इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी की जाती है!

हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है।

इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है।

10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे विधि - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं -

"लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल,
जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये,
अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो,
स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये,
सिल पियी भात खाये"

जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

No comments:

Post a Comment