Friday 4 July 2014

माधो सिंह भंडारी - लोक कथा - कसो छ भंडारी तेरो मलेथा ? -लासण की क्यारी मेरा मलेथा।






दुनिया की ज्यादातर महत्त्वपूर्ण चीजें उन लोगों द्वारा प्राप्त कि गयीं हैं जो कोई उम्मीद ना होने के बावजूद अपने प्रयास में लगे रहे.        




  

  अपने गांव मलेथा के लिये माधो सिंह की वीरता बलिदान की यह लोक कथा अभी भी गढ़वाल में फसल कटाई के समय कई बार सुनायी जाती हैं। आज मलेथा गांव समृद्ध हरा भरा है लेकिन उस गांव के लोग अभी भी अपने नायक माधो सिंह को नहीं भूले हैं और हाँ वह माधों सिंह द्वारा बनायी गयी नहर आज तकरीबन चार सौ सालों बाद भी मलेथा तक पानी पहुंचा रही है।

माधो सिंह भंडारी जिन्हे माधो सिंह मलेथा भी कहा जाता है का जन्म सन 1595 के आसपास टिहरी जनपद के मलेथा गांव में हुआ था। वह एक प्रतिष्टित परिवार से थे। उनके पिता सोणबाण कालो भंडारी अपने वीरता के लिये प्रसिद्ध थे। तत्काली गढ़वाल नरेश ने इनकी बुद्धिमता और वीरता से प्रभावित होकर एक बड़ी जागीर इन्हे भैंट की थी। माधो सिंह भी अपने पिता की तरह वीर स्वाभिमानी थे। मलेथा गांव ऋषिकेश-श्रीनगर मार्ग पर देवप्रयाग कीर्तिनगर के बीच स्थित है। यह गांव सिंचाई के साधनों के अभाव में मात्र मोटा अनाज जैसे झंगोरा ही पैदा करने सक्षम था।

कम उम्र में ही माधो सिह श्रीनगर में शाही दरबार में सेना में भर्ती हो गये और अपनी वीरता युद्ध कौशल से सेनाध्यक्ष के पद पर पहुंच गये। वह राजा महिपात शाह (1629-1646) की सेना के सेनाध्यक्ष थे जहां उन्होने कई नई क्षेत्रों में राजा के राज्य को बढ़ाया और कई किले बनवाने में मदद की।

एक बार छुट्टियों में जब वह अपने गांव मलेथा आये तो वहां उन्हें वह स्वादिष्ट भोजन नहीं मिला जिसको वह राज-महल में पाने के आदी थे। वह अपनी पत्नी पर गुस्सा हुए और उन्होने अच्छा भोजन मांगा जबाब में पत्नी नें उन्हे वे सूखे खेत दिखा दिये जो पानी के अभाव में अनाज,फल सब्जियां उगाने में असमर्थ थे। माधों सिंह बैचेन हो गये और उन्होनें निश्चय किया किसी भी तरह मलेथा गांव में पानी लेकर आयेंगे।

गांव से कुछ दूर चन्द्रभागा नदी बहती थी लेकिन नदी गांव के बीच में बड़े-बड़े पहाड़ चट्टानें थीं। माधों सिंह ने विचार किया कि अगर किसी प्रकार पर्वतीय नदी के मध्य आने वाले पहाड़ के निचले भाग में सुरंग निर्माण की जाये तो नदी का पानी गांव तक पहुंचाया जा सकता हैं। दृढ़ निश्चयी माधो सिंह ने सुरंग खोदने वाले विशेषज्ञों गांव वालों को साथ लेकर काम शुरु कर दिया। महीनों की मेहनत के बाद सुरंग तैयार हो गयी। सुरंग के ऊपरी भाग में मजबूत पत्थरों को लोहे की कीलों से इस प्रकार सुदृढ़ता प्रदान की गयी कि भीषण प्राकृतिक आपदा का भी उन पर प्रभाव नहीं पड़ सकता।

माधो सिह को अपने जवान पुत्र गजे सिंह को नहर बनाने की प्रक्रिया में बलि पर चढ़ाना पड़ा। उस क्षेत्र की लोक कथाओं के अनुसार जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तब नदी के पानी को सुरंग में ले जाने के अनेक प्रयास किये गये लेकिन कई तरह के बद्लावों, पूजा पाठों के बाद भी नदी का पानी सुरंग तक नहीं पहुंच पाया। माधो सिंह काफी परेशान हो गये। एक रात माधो सिंह को सपना आया कि उन्हें पानी लाने के लिये अपने एकमात्र बेटे की बलि देनी पड़ेगी। पहले तो वह इसके लिये तैयार नहीं थे लेकिन बाद में अपने पुत्र गजे सिंह के ही कहने पर वह तैयार हो गये। उनके पुत्र की बलि दी गयी और उसका सर सुरंग के मुँह पर रख दिया गया। इस बार जब पानी को मोड़ा गया तो इस बार पानी सुरंग से होते हुए सर को अपने बहाव में बहा ले गया और उसे खेतों में प्रतिष्ठापित कर दिया। जल्दी ही माधों सिंह की छुट्टियां खतम हो गयी और वह वापस चले गये फिर कभी लौट कर ना आने के लिये।




 
धौळि का छालु पल्ले किनारो,
उंच माँगे मलेथा  सेरो,
सैणु स्वाणु रौंतेलु गौं च।
एक दिन छ्यू भूखो मलेथो,
आज सि पाणि सेरो कुल्यांदो,
तै दिनों छैयु नि स्यो मलेथो।
कोटू गत्थूक गाँव छया,
धान नि नौऊँ कु होंद छैया,
दूर बटी सारि मुंडा मुगैई,
लांद छै पाणि पीणा कु तैइ 
तब की बात तख रैंदु छयो,
माधु भंडारी मासूर छैयो।
 
कसो  भंडारी तेरो मलेथा ?
गौं मूड़ को सेरो मेरा मलेथा।
गौं मथे मेरा मलेथा।
 जाणू रुकमा मेरा मलेथा।
पाळिङ्गा की बाड़ी मेरा मलेथा।
लासण की क्यारी मेरा मलेथा।
 
 
 
 

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