Saturday 30 May 2015

काफल पाको मैं नि चाख्यो !बेडुपाको बार मासा,हो नरैण काफल पाको चैता मेरि छैला।









काफल, एक ऐसा फल जिसका नाम सुनते ही स्थान विशेष उत्तराखण्ड के लोगों का मन अनुपम आनंद से भर उठता है। इस फल का महत्त्व इसी बात से आँका जा सकता है कि यह वहाँ के लोगों के मन में इस प्रकार छाया है कि लोक गीत-संगीत, लोक कथाएँ भी इसके बिना अधूरी सी हैं। कुमाऊँनी भाषा के आदि कवि माने जाने वाले गुमानी जी ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है -

खाणा लायक इंद्र का, हम छियाँ भूलोक आई पणां।  पृथ्वी में लग यो पहाड़ ,हमारी थाती रचा देव लै। 
योई चित्त विचारी काफल सबै राता भया  कोई बड़ा -खुड़ा शरम लै काला धुमैला भया। 

अर्थात काफल अपना दुःख इस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए, और पृथ्वी पर भी इन पहाड़ों को ईश्वर ने हमारा स्थान बनाया, इसी बात को विचारते हुए सारे काफल गुस्से से लाल हो गए और कुछ बूढ़े बुजुर्ग तो शरम के मारे काले और मटमैले हो गए।
उत्तराखण्ड के लोक गीत को विश्व में पहचान दिलाने वाले इस प्रसिद्द गीत की पंक्तियाँ हैं-


              बेडुपाको बार मासा,हो नरैण काफल पाको चैता मेरि छैला। 

इसमें चैत के महीने में काफल पकने की सूचना निहित है। बेडू का फल तो बारहों महीने फलता है पर काफल केवल चैत के महीने में ही पक कर तैयार होता है (बेडू भी एक स्वादिष्ट जंगली फल है जो अंजीर की तरह होता है)ये पंक्तियाँ एक लोक गीत की हैं।

यहाँ की एक अति प्रसिद्द लोक कथा "काफल पाको मैं नि चाख्यो'' है, जो इस प्रकार है-

किसी गाँव में एक महिला अपनी बेटी के साथ रहती थी जो खेती बाड़ी से अपना गुजर करती थी। गर्मियों के दिन थे, जंगलों में काफल पक चुके थे। महिला सुबह ही काफल तोड़ के ले आई। उसने उनको छाया में फैला कर रख दिया। बेटी से कहा कि इनका ध्यान रखना, पर खाना नहीं, मैं खेतों से लौटकर आऊँगी तब दूँगी। बेटी ने माँ की आज्ञा का पालन किया, मन ललचाने पर भी एक दाना नहीं खाया। बैठे बैठे उसकी आँख लग गई । माँ जब वापस आई तो देखा कि काफल तो बहुत कम लग रहे हैं, उसे लगा कि अवश्य ही बेटी ने काफल खा लिए और अब सो रही है। उसने गुस्से में आव देखा न ताव, बेटी को झकझोर कर उठाया और पटक दिया। बेटी आधी नींद में जग कर कुछ कर पाती पर गहरी चोट से उसके प्राण पखेरू उड़ गए। थोड़ी देर बाद शाम होने को आई शीतल बयार चली तो काफल फिर से अपने पुराने रूप में आगये ज़रा भी कम न थे। महिला को अब समझ आया कि काफल तो उतने ही हैं बेटी ने नहीं खाये थे। दर असल धूप के कारण काफल मुरझा गए थे। पश्चाताप में माँ ने अपना सर पीट लिया और बोली कि काफल तो पूरे हैं और प्राण त्याग दिए। कहते हैं कि वे दोनों ही पक्षी बन आज भी गर्मी के दिनों में जंगल में कूकती रहती हैं। एक चिड़िया इन स्वरों में कहती है "काफल पाको मैं नि चाख्यो " अर्थात काफल पक गए हैं पर मैंने नहीं चखे। तभी दूसरी चिड़िया के स्वर गूँजते हैं। ".के कर पुतई पूरे पूरे पूरे" क्या करूँ बेटी काफल पूरे हैं। बिना कारण जाने अकस्मात उत्तेजित होकर काम न करने की प्रेरणा देती यह कहानी जन मानस में रची बसी है।

ऐसा अद्भुत फल है काफल। इसे कुछ लोग काय फल भी कहते हैं। नाम के विषय में भी लोगों का दिलचस्प कथन मिलता है। कहीं अगर किसी विदेशी के पूछने पर कि का फल है? पूछने पर उसे उत्तर भी मिलता है काफल? प्रश्न उत्तर की खीज से बहुत असमंजस की स्थिति में किसी जानकार ने दोनों को समझाया कि वास्तव में इस फल का नाम ही काफल है।

मध्य हिमालयी क्षेत्रों में ,लगभग १२०० से २१०० मी॰ की ऊँचाई वाले जंगलों में इसके वृक्ष पाये जाते हैं। उत्तराखण्ड ,हिमाचल प्रदेश तथा देश के अन्य पर्वतीय इलाकों में भी इसके वृक्ष मिलते हैं। नेपाल में भी काफल मिलता है। इसको वनस्पति शास्त्र में मीरिका एस्कुलेंटा (Myrica Esculenta) पेड़ों की ऊँचाई करीब १० से १५ मी॰ तक होती है। गर्मी के मौसम में इसमें फल लगते हैं। फलों का आकार छोटा और कुछ गोलाकार होता है। ये गुच्छों में लगते हैं आरम्भ में हरे रंग के होते हैं और पकने पर गहरे लाल, भूरे और बैगनी रंग के हो जाते हैं। खट्टे मीठे स्वाद युक्त होते हैं कुछ सख्त सी गुठली छोटे छोटे दानों से भरी हुई होती है स्वादिष्ट होने के साथ साथ यह फल स्वास्थ्य वर्धक भी होता है। पेड़ की छाल भी कई औषधियाँ बनाने के काम आती है। आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा पद्धति में इनका काफी उपयोग होता है। ताज़े फलों को तोड़ कर नमक और सरसों का तेल लगा कर खाया जाता है । चटनी भी बनाई जाती है। गर्मी के दिनों में आस पास के ग्रामीण के सुबह ही जंगलों में जाकर डलियों-टोकरियों में भरकर ले आते हैं और सभी को बाँटते हैं और नजदीक के शहरों में या सड़क किनारे बैठ कर सैलानियों को बेचते भी हैं। इस तरह कुछ आमदनी हो जाती है।

यद्यपि इस फल और इसके वृक्षों से वहाँ के लोगों को धन अर्जन करने में मदद मिल सकती है परन्तु ऐसा सम्भव नहीं होता है। इसके कई कारण है। एक तो इस के वृक्ष जंगलों में होते हैं जहाँ पहुँचना आसान नहीं। दूसरा इसके फलों को अधिक समय तक नहीं रखा जा सकता। ये जल्दी ही ख़राब और स्वाद हीन हो जाते हैं अतः तोड़ने के बाद शीघ्र ही उपलब्ध बाज़ारों तक नहीं पहुँच पाते।

इसके वृक्ष स्वयं प्रकृति में उगते हैं। इन्हें बीजारोपण से नहीं उगाया जा सकता है। अब कृषि वैज्ञानिकों ने कुछ सफल अनुसंधानों के बल पर आशा का संचार किया है, जिससे निकट भविष्य में काफल के वृक्षों को बागों में उगाया जा सकेगा। अमृत स्वरूपी इस फल का स्वाद चखने के लिए एक बार गर्मियों के मौसम में यानी चैत बैशाख की की ऋतु में पहाड़ की यात्रा करनी पड़ेगी।

ज्योतिर्मयी पंत

2 comments:

  1. आप का पोस्ट पढ़ के काफी अच्छा लगा | काफी जानकारी मिली मुझे इससे
    https://pranjalkandwal.blogspot.com/2019/03/kafal-pako-me-nhi-chakhyo-kafal-pake-hai-pranjal-kandwal-ki-khaaniya.html

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