Monday 13 April 2015

जीवन व्यस्त भले ही हो, लेकिन अस्त-व्यस्त नहीं !किसी ने सही कहा है कि दुनिया को जीतने से पहले हमें स्वयं को जीतना चाहिए


वर्तमान जीवन का हाल यह है कि यहां चीजें सरपट भाग रही हैं। लोग जल्दी में हैं। उन्हें डर है कि कहीं धीमें पड़ गए तो आगे बढ़ने की रेस में पीछे न छूट जाएं। इस आपाधापी में वे तमाम तरह की गड़बडि़यों में शामिल हैं। इसी तरह के जीवन ने व्यक्ति को लापरवाह एवं अस्तव्यस्त बनाया है। न सोने का कोई टाइम है, न जागने का। न काम की कोई जवाबदेही और न दिनचर्या का अता-पता। हमें अस्त-व्यस्त हमारी सोच करती है, दूसरा कोई नहीं। असल में जीवन में छोटी-छोटी समस्याएं आती रहती है, लेकिन प्रगति का घोंसला छोटी-छोटी आदतों के तिनकों से बुनकर ही तैयार होता है। इसलिये अपने जीवन के हर पल को सार्थक बनाने के लिये व्यस्त भले ही बने, लेकिन अस्त-व्यस्त नहीं। सही समय पर सही कार्य करना ही संतुलित जीवन का आधार है। जो समय बीत गया वह फिर नहीं आता। इसलिये समय को पहचानो, समय की परवाह करो अन्यथा समय तुम्हारी परवाह नहीं करेगा।

आप इस क्षण में यदि असंतुष्ट हैं तो किसी अन्य क्षण में भी असंतुष्ट ही रहेंगे। आप अपनी वर्तमान अवस्था में यदि संतुष्ट नहीं है और सोच रहे हैं कि अमुक जैसे हो जाए तब संतुष्ट हो जायेंगे, सुखी हो जायेंगे तो यह आपके मन का भ्रम ही है। मन की परिधि पर जीने वाला व्यक्ति मन की मानकर जीने वाला व्यक्ति कभी भी सुखी जीवन नहीं जी सकता। वह सदैव असंतुष्ट रहेगा क्योंकि असंतुष्ट रहना मन का स्वभाव है। मन सदा भविष्य में जीता है, महत्वाकांक्षा में जीता है, दूसरों जैसे होने की चाह से भरा रहता है मन सदा।

दुनिया में असफल लोगों की दो श्रेणियां हैं। एक वे लोग जो विचार पर पूरा मनन नहीं करते और बिना योजना के कार्यान्वयन पर उतर आते हैं और दूसरे वे जो हर विचार पर खूब मनन करते हैं, योजना बनाते हैं परन्तु इसको आगे नहीं बढ़ाते उसे कार्य रूप नहीं देते। सही तरीका है कि विचार पर मनन करें। अपने समय, साधन और समझ के अनुरूप योजना बनाएं और कार्यक्षेत्र में कूद पड़े। हमें सदा परिश्रम करते रहना चाहिए क्योंकि परिश्रम से जो संतुष्टि मिलती है वह और किसी चीज से नहीं मिलती। वास्तव में संसार के सभी चर्चित महापुरुष हमारे जैसे इंसान ही थे। यह उनका तप और त्याग था जिसकी वजह से वे महानता अर्जित कर सके और शिखर तक पहुंचे।

योगशास्त्र में एक शब्द आता है- सजगता। इसका अर्थ है आप जो भी करें, जाग कर करें, होशपूर्वक करे। आप जो कर रहे हैं और जो बोल रहे हैं उसका आपको बोध होना चाहिए। अपने कर्तव्य का बोध, अपने वक्र्तृत्व का बोध यदि आपके भीतर नहीं होगा तो उसका परिणाम तेली के बैल के समान ही रहेगा। जीवन भर चलकर भी तेली का बैल कहीं पहुंचता नहीं, एक ही सर्कल में घूमता रहता है।

शिक्षित-सा दिखने वाला एक युवक दौड़ता हुआ आया और टैक्सी ड्राइवर से बोला-‘‘चलो, जरा जल्दी मुझे ले चलो।’’ हाथ का बैग उसने टैक्सी में रखा और बैठ गया। ड्राइवर ने जल्दी से टैक्सी स्टार्ट कर दी और पूछा-‘‘साहब, कहां चलना है?’’ युवक ने कहा-‘‘अरे, कहां-वहां का सवाल नहीं है, सवाल जल्दी पहुंचने का है। बिना लक्ष्य के ही ड्राइवर ने टैक्सी को दौड़ा दिया।

ऐसी स्थितियां हमें अक्सर देखने को मिलती है। किसी के पास यह सोचने और बताने का समय नहीं है कि आखिर उसे कहां जाना है? हर कोई यही अनुभव कर रहा है कि दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है, वह दौड़ रही है, इसलिए बस हमें भी दौड़ना है।

आज का व्यक्ति इसी तरह की व्यस्तता का जीवन जी रहा है। क्योंकि उसकी जीवन शैली कोरी प्रवृत्ति प्रधान है। कोरी प्रवृत्ति प्रधान जीवन शैली होने के कारण व्यक्ति का जीवन व्यस्त नहीं बल्कि अस्त-व्यस्त हो गया है। व्यस्तता व्यक्ति के लिये बुरी नहीं, अन्यथा व्यस्तता के अभाव में ‘खाली दिमाग शैतान वाली’’ कहावत चरितार्थ हो सकती है। किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत् के अनुसार अति व्यस्तता व्यक्ति के लिए हानिकारक है। अति व्यस्तता का एक प्रमुख कारण है-उतावलापन व अधीरता। उतावलापन वर्तमान युग की महामारी है। अबालवृद्ध सभी इस रोग से ग्रस्त हैं। प्रत्येक कार्य के प्रति जल्दीबाजी, काम तत्काल होना चाहिए तथा उसका परिणाम भी तत्काल होना चाहिए। चाहे डाक्टर के पास जाना हो या किसी अफसर के पास या किसी साधु के पास। व्यक्ति चाहे कुछ भी देने के लिए तैयार है किन्तु उसका कार्य शीघ्रताशीघ्र होना चाहिए, वह प्रतीक्षा की बात ही नहीं जानता। जीवन में जहां इतनी अधीरता व जल्दीबाजी होती है वहां व्यक्ति निश्चित रूप से मानसिक तौर पर अस्त-व्यस्त हो जाता है। इससे केवल बनते हुए काम ही नहीं बिगड़ते अपितु लाभ को हानि में, सफलता को असफलता में बदल देता है।

प्रायः लोगों को जो कुछ मिलता है उसका पूरा आनंद नहीं ले पाते। जो नहीं मिला उसके लिए ही अपनी किस्मत को रोते रहते हैं या ईश्वर से शिकायत करते रहते हैं। जो व्यक्ति अपने पास उपलब्ध साधनों की अपेक्षा नई-नई इच्छाएं करता रहता है और इस प्रकार उदास रहता है वह सदा लोभ-लालच में फंसकर अपने मन का चैन खो बैठता है।

प्रश्न उठता है उतावलापन क्या है? व्यक्ति के किसी भी कार्य को दूरगामी परिणामों पर विचार किए बिना हड़बड़ी में बिना सोचे-समझे कार्य को कर डालने की आदत को उतावलापन कहते हैं। यह आदत व्यक्ति के स्वयं के जीवन को ही अस्त-व्यस्त नहीं करती वरन् परिवार और समाज में भी अव्यवस्था को जन्म देती है तथा जिसकी परिणति अनेक रोगों में देखी जाती है। अमरीका के प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डा. लुही जैकोबली का मानना है कि आधुनिक युग में मनुष्य जितना बेचैन व अधीर है उतना कभी नहीं देखा गया। हर समय दौड़-धूप और हर काम में उतावलेपन व अधीरता ने मनुष्य के मन और मस्तिष्क को खोखला बना दिया है। अधीर व्यक्ति हमेशा कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने से कतराता है। ऐसे व्यक्ति प्रायः मानसिक तौर पर उदासी, मायूसी, घबराहट और तनाव से घिरे रहते हैं तथा शारीरिक स्तर पर रक्तचाप, कैंसर, अल्सर और हृदयघात जैसी बीमारियों से पीडि़त रहते हैं।

मनोचिकित्सकों के अनुसार हड़बड़ी से हड़बड़ी पैदा होती है। इस प्रकार से शरीर में यह चक्र चलता रहता है और यह चक्र इतना सुदृढ़ हो जाता है कि व्यक्ति मात्र यंत्र बनकर रह जाता है।

लंदन के डाक्टर जेनिस लियो का कथन है कि आज की दुनिया तेज गति की दीवानी भले ही हो किन्तु इस फास्ट लाइफ ने लोगों का चैन छीन लिया है तथा अनेक रोगों को जन्म दिया है। उनमें से एक प्रमुख रोग है नर्वस ब्रेक डाउन। जिसके कारण व्यक्ति का मन शंका-कुशंका, भय और भ्रम की आशंका से घिर जाता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं तो समस्याग्रस्त रहते ही हैं तथा दूसरों के लिए समस्या पैदा करते रहते हैं। वर्तमान युग की इस बीमारी से निपटने के लिए जरूरी है-धैर्य का विकास हो व कार्य करने की शैली योजनाबद्ध ढंग से अपनायी जाए। ध्यान, योगाभ्यास, प्राणायाम, जप, स्वाध्याय तथा चिंतन-मनन जैसी सरल क्रियाओं के द्वारा इस अस्त-व्यस्तता से निजात पायी जा सकती है। अति अस्त-व्यस्तता व्यक्ति को चिड़चिड़ा व क्रोधी बना देती है। शांत चित्त और मधुर व्यवहार के द्वारा इस व्याधि से सहज ही छुटकारा पा सकते हैं। इसके लिये जरूरी है व्यक्ति का स्वयं पर अनुशासन हो,  अस्त-व्यस्त जीवन शैली को व्यवस्थित व संतुलित करने के लिए व्यक्ति अपने जीवन में प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति की आदत डालें। हर समय काम ही काम नहीं, अकाम भी जरूरी है। इससे उसकी जीवनशैली व्यवस्थित होगी तथा जीवन को एक नई दिशा व नया आलोक मिलेगा।

किसी ने सही कहा है कि दुनिया को जीतने से पहले हमें स्वयं को जीतना चाहिए। आज के आधुनिक जीवन में सबसे बड़ी समस्या तो मन की उथल-पुथल से पार पाने की है। हम जितना आराम और सुख चाहते हैं आज के प्रचलित तरीकों से उतना ही मन अशांत हो रहा है। हर  अस्त-व्यस्त इंसान महसूस करता है कि उसे लंबे अर्से से सुकून नहीं मिला। जबकि सुकून हमें खोजना पड़ता है ना कि हमें हथेली में सजा मिलेगा कि आओं और सुकून का उपभोग करो और चलते बनों। आज की जीवनशैली की सबसे बड़ी समस्या समय का ना होना यानी अस्त-व्यस्तता भी है। तथाकथित प्रगति की दौड़ में शामिल इंसान की जीवनशैली का तो यही हाल है कि रात को बारह बजे तक जागना और सुबह नौ बजे तक सोना फिर काम की आपाधापी में पड़ जाना और काम इतना कि खुद के लिए भी समय ना मिलना।

हमें यह मानकर चलना चाहिए कि  जिन्दगी का कोई भी लम्हा मामूली नहीं होता, हर पल वह हमारे लिये कुछ-न-कुछ नया प्रस्तुत करता रहता है। इसके लिये जरूरी है कि हम रोज स्वयं को अनुशासित करने का प्रयास करते रहे। प्रवृत्ति और निवृत्ति, काम और अकाम, कर्मण्यता और अकर्मण्यता दोनों के बीच संतुलित स्थापित करें। जीवन न कोरा प्रवृत्ति के आधार पर चल सकता है और न ही कोरा निवृत्ति के आधार पर। स्वस्थ और संतुलित जीवन-शैली के लिए जरूरी है दोनों के बीच संतुलन स्थापित होना। संतुलन के लिये जरूरी है ध्यान। यही एक ऐसी प्रक्रिया है, जो हमें सुख शांति प्रदान करती है। आपको जिंदगी में सुकून चाहिए तो ध्यान को अपने दैनिक जीवन के साथ जोड़ें। यह आपको सुकून तो देगा ही, जीने का अंदाज ही बदल देगा। एक मोड़, एक नया प्रस्थान मालूम देगा।  !


ललित गर्ग

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