Tuesday 11 November 2014

ऐसा था मेरे बचपन का दून



मेरे बचपन का दून आज ‘पहाड़’ हो गयाहरा-भरा दून आज ‘बेजार’ हो गयामेरा गांव सा दून आज ‘शहर’ हो गया…





मेरे बचपन का दून (देहरादून कहीं खो सा गया है। विकास की अंधी दौड़ ने इसकी खूबसूरती पर चार-चांद लगाने के बजाए कई अनचाहे दाग लगा दिए हैं। लगता ही नहीं यह वही शहर है जहां शांति थी सुकून था खूबसूरत नजारे थे सड़कों पर दौड़ती तांगा-गाड़ी और आम-लीची के बागीचे थे। संकरी होने के बावजूद शहर की सड़कें खुली-खुली थीं।

दून के कुछ हिस्सों की कहानी मैं आपको बताता हूं। मेरे बचपन से जुड़ी कई महकती यादें हैं जो मुझे पुराने दून की याद दिलाती हैं। दून घाटी के नाम से प्रख्यात ये शहर तब मसूरी के कोल्हूखेत से देखने पर फूलों की टोकरी में रखा सुंदर सा गुलदस्ता नजर आता था। जगह आज भी उतनी ही है, लेकिन तब की टोकरी आज काली कढ़ाई बन गई है। पहले ऊंचाई से हरियाली के बीच मकान ढूंढने पड़ते थे, आज भवनों की बीच हरियाली ढूंढनी पड़ती है।

तब चार दिशाओं के चार कोनों पर शहर खत्म हो जाता था। सहारनपुर रोड से शाम छह बजे के बाद लालपुल से आगे जाने पर लोगों को डर लगता था। आज जहां पटेलनगर इंडस्ट्रियल एरिया में अमर उजाला का दफ्तर खड़ा है कुछ एक साल पहले तक इससे आगे लहलहाते खेतों की एक लंबी श्रंखला होती थी। तब यहां से आगे कारगी चौक को जाने वाली सड़क पर अंधेरा पड़ने के बाद कोई जाने की सोचता भी नहीं था। बाईपास रोड भी अस्तित्व में नहीं आई थी।

इधर चकराता रोड पर बिंदाल पुल समझो शहर का अंतिम छोर था। इससे आगे किशन नगर चौक पर कुछ एक दुकानें थीं। दून स्कूल, आईएमए, एफआरआई, ओएनजीसी जैसे संस्थानों के चलते लोगों का इस सड़क पर आना-जाना होता था। तब भी इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई देते थे। हां सुबह की सैर के लिए कैंट की तरफ जाने वाली सड़क तब भी लोगों की पसंदीदा जगह थी।

हरिद्वार रोड की बात करे तो धर्मपुर में कुछ गिनी-चुनी दुकानों को छोड़कर आगे बिरानी छा जाती थी। धर्मपुर का एक बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण क्षेत्र में आता है। लेकिन तब यह विशुद्ध रूप से गांव ही था। जिसके हर हिस्से में खेती होती थी। बासमती की महक लोगों को दूर से खिंच लाती थी। रिस्पना पुल तक जाते-जाते कुछ एक घर, इक्का-दुक्का दुकानें नजर आ जाती थी। इसके बाद शहर पूरी तरह खत्म। फिर ऋषिकेश-हरिद्वार की तरफ जाने वाले गाड़ियां सरपट दौड़ती थीं।

मसूरी की तरफ जाने पर गांधी पार्क से कुछ आगे गोल चौक तक ही चहल-पहल दिखाई देती है। इसके आगे सन्नाटा पसरा रहता था। तब ताजी हवा के लिए लोगों को आज की तरह राजपुर की तरफ नहीं जाना पड़ता था। शहर के हर कोने में सुकून की सांस थी।

मुझे याद हम लोग तिलक रोड से लगे आनंद चौक इलाके में रहते थे। मच्छी बाजार से भी एक सड़क आनंद चौक के लिए कटती थी। जहां आने-जाने के लिए तांगा ही एक मात्र साधन था। पिताजी का कोरोनेशन अस्पताल में पथरी का आपरेशन हुआ था। उन दिनों जब मां मुझे घर पर अकेला नहीं छोड़ सकती थी। मैंने भी तहसील चौक से कोरोनेशन अस्पताल तक तांगे की खूब सवारी की। आम-लीची के बागों के बीच पूरे रास्ते ऐसा लगता था जैसे हम किसी जंगल से गुजर रहे हैं।

आपका स्वागत है…
मैं जानता हूं दून से जुड़े हर शख्स की यादों में उसका प्यारा दून कुछ ऐसे ही बसता है। लंबा वक्त नहीं गुजरा। पिछले  वर्षों में राज्य बनने के बाद ही इस शहर की सूरत ज्यादा बदली है। विकास के नाम पर दून को जाने-अनजाने में ही बलि का बकरा बना दिया गया।
क्यों न इस कड़ी को आगे बढ़ाएं-
आगे आएं और बताएं, पहले ऐसा था मेरा दून…..

इससे पहले का दून रस्किन बांड की इन कहानियों में पढ़ने को मिलता है।
Our trees still grow in Dehra
School Days The Adventures of Rusty
A Town Called Dehra, Dust on the Mountain

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