Sunday 19 October 2014

उत्तराखंड की संस्कृति के जीवंत चितरे शैलेश मटियानी -पहाड़ में जन्मे मटियानी को पहाड़ सा दर्द पूरे जीवन मिला






उनका जन्म बाड़ेछीना गांव (जिला अलमोड़ा, उत्तराखंड (भारत)) में हुआ था। उनका मूल नाम रमेशचंद्र सिंह मटियानी था। बारह वर्ष (१९४३) की अवस्था में उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उस समय वे पांचवीं कक्षा के छात्र थे। इसके बाद वे अपने चाचाओं के संरक्षण में रहे किंतु उनकी पढ़ाई रुक गई। उन्हें बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का काम करना पड़ा। पांच साल बाद 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरु किया। विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। वे १९५१ में अल्मोड़ा से दिल्ली आ गए। यहाँ वे 'अमर कहानी' के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहां रहने लगे। तबतक 'अमर कहानी' और 'रंगमहल' से उनकी कहानी प्रकाशित हो चुकी थी। इसके बाद वे इलाहाबाद गए। उन्होंने मुज़फ़्फ़र नगर में भी काम किया। दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वे बंबई चले गए। फिर पांच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। १९५६ में श्रीकृष्ण पुरी हाउस में काम मिला जहाँ वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे और अपना लेखन जारी रखा। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ गए और कई वर्षों तक वहीं रहे। 1992 में छोटे पुत्र की मृत्यु के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। जीवन के अंतिम वर्षों में वे हल्द्वानी आ गए। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के शहादरा अस्पताल में हुई

भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय लोगों तथा उत्तराखंड की संस्कृति के जीवंत चितरे शैलेश मटियानी का मंगलवार को जन्मदिन था। पहाड़ में जन्मे मटियानी को पहाड़ सा दर्द पूरे जीवन मिला। जब उनकी कहानियां धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित होने लगी थी तो वह मुंबई के एक होटल में वेटर का काम करते थे। बाद में वह अपने लेखन से शिखर तक पहुंचे, लेकिन अपनी उपेक्षा का दंश उन्होंने जीवन भर झेला। बेटे की हत्या ने तो उन्हें पागल ही कर दिया। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी साहित्य के इस अमर कलमकार की मौत पागलखाने में हुई। उनका जन्म 14 अक्तूबर 1931 को अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना गांव में हुआ था। मटियानी का निधन 24 अप्रैल 2001 को दिल्ली में हुआ।


गरीबी ने नहीं पढ़ने दिया

गरीबी की वजह से शैलेश की पढ़ाई नहीं हो पाई। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं दी थी। जीवनयापन के लिए बचपन में ही भागकर मुंबई जाना पड़ा। उसके बाद से वह भागते ही रहे। कभी दिल्ली तो कभी इलाहाबाद और कभी मुंबई। राजेंद्र यादव कहते हैं कि शैलेश के सामने बहुत ही विकट स्थितियां थीं। आर्थिक और मानसिक रूप से भी। मुंबई में उन्हें बहुत विकट जीवन जीना पड़ा। बहुत समय तक फुटपाथों पर रहना पड़ा। जहां मुफ्त खाना मिलता था उन जगहों पर लाइनों में लगना पड़ा। शैलेश ने खुद एक जगह लिखा है कि जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो बड़ा अच्छा लगता था। सोचता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाने को खाना। शैलेश ऐसे लेखक हैं जिनके पास शिक्षा की नहीं, बल्कि अनुभव की पूंजी थी।

हिंदी का लेखक और होटल का वेटर

शैलेश की कहानियां जब धर्मयुग में प्रकाशित हो रही थीं तो उस समय वह मुंबई के एक छोटे से ढाबे में प्लेटें धोने और चाय लाने का काम करते थे। कितनी बड़ी विडंबना है कि धर्मयुग जैसे सर्वश्रेष्ठ अखबार में जिनकी कहानियां छपनी शुरू हो गईं हों वह एक छोटे से सड़क के किनारे बने ढाबे में चाय-पानी देने और प्लेट साफ  करने का काम कर रहा हो।

अंग्रेजी नहीं जानने वाले विचारक

शैलेश अंग्रेजी नहीं जानते थे लेकिन अपने ढंग से विचारक थे। देश की समझ, राष्ट्र की समस्या, भाषा की समस्या पर लिखते रहे। लेकिन वह हिंदुत्व के घेरे से बाहर नहीं निकल पाए। राजेंद्र यादव कहते हैं कि एक तरह से एक रूढ़िवादी विचारक के रूप में उन्होंने अपने को प्रोजेक्ट किया। वे एक अद्भुत और विलक्षण कहानीकार हैं लेकिन बहुत दयनीय विचारक थे।

रेणु से पहले किया आंचलिकता का प्रयोग

साहित्य की विधा में नई कहानी के सूत्रधार रहे राजेंद्र यादव कहते हैं कि शैलेश मटियानी फणेश्वर नाथ रेणु से पहले लेखक हैं, जिन्होंने सफलता पूर्वक आंचलिक भाषा और आंचलिक संस्कृति का प्रयोग किया। रेणु का जब पता भी नहीं था तब शैलेश का श्बोरीवली से बोरीबंदर तक उपन्यास आ चुका था। पहाड़ के जीवन पर उनकी अद्भुत कहानियां आ चुकी थीं, जो वहां की जीवन, संस्कृति और भाषा को निरूपित करती थी।

बेटे की हत्या का असर

कहा जाता है कि बेटे की हत्या होने के बाद शैलेश में एक खास तरह का परिवर्तन आ गया। राजेंद्र यादव कहते हैं कि इससे उनमें एक पराजय का भाव प्रारब्ध और नियति के सामने समर्पण का भाव और धर्म और ईश्वर से एक तरह से निकालने के लिए प्रार्थना का भाव पैदा कर दिया।

जिससे प्यार किया उसने समझा बेगाना

कहा जाता है कि शैलेश को उनके गांव के ब्राह्मणों ने भगा दिया था। इसके पीछे वजह यह बताई जाती है कि उन्हें एक ब्राह्मण की लड़की से प्रेम हो गया था। इसी वजह से उन्हें अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा। प्रेम की वजह से उनकी जान को खतरा हो गया था। बताया जाता है कि जिस लड़की से उन्होंने प्रेम किया था बाद में वही उनके खिलाफ हो गई थी। गर्भवती होने के बाद उसने शैलेश पर आरोप लगाया कि शैलेश बहकाकर और भगाकर उसे मैदान में बेचना चाहता है।

कहानियों में गरीबों की दुनिया

शैलेश कहानी की दुनिया मार्जिनलाइज़्ड की दुनिया है। गरीबों की दुनिया है। वह खुद जाति व्यवस्था से पीड़ित रहे। पहाड़ से भगा दिए गए। लेकिन विचार की दुनिया में उसी का समर्थन करते रहे। कहा जाता है कि वह पहाड़ से इसलिए भगाए गए क्योंकि वह प्रॉपर ढंग से क्षत्रिय भी नहीं थे। इनके परिवार में कसाई का काम किय जाता था। यही उन्हें तकलीफ देता था।

भोगा हुआ लिखा

डा. जगत सिंह बिष्ट लिखते हैं कि शैलेश मटियानी का साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है। शैलेश के साहित्य के वृत्त के में विविध क्षेत्रों वर्गों और संप्रदायों से संबद्ध जीवन संदर्भों का चित्रण हुआ है। शैलेश के कहानी में चित्रित निम्न वर्ग कुमाऊं के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध है। उनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित पीड़ित शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग और संप्रदाय से है, अपने प्रकृत रूप में दिखाई देता है। इसकी वजह शैलेश की अत्यंत संवेदनशील अंतर्दृष्टि को माना जा सकता है, जिसने उन्हें अपनी भोगी एवं देखी चीजों को यथार्थ के रूप में पकड़ पाने की अद्भुत क्षमता दी।

लेकिन प्रगतिशील खेमे को नहीं भाए

पलाश विश्वास लिखते हैं कि प्रगतिशील खेमे ने शैलेश को कभी नहीं अपनाया। जब शैलेश बेटे की मृत्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह हिंदुत्व में समाहित हो गये, तब शैलेश के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिंदी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर दिया। शैलेश की लेखकीय प्रतिष्ठा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका जो मिल गया था।




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